ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत । अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत्सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठप्रो इति॑ । सु । अ॒स्मै॒ । पु॒रः॒ऽर॒थम् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒त॒ । अ॒भीके॑ । चि॒त् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृत् । स॒म्ऽगे । स॒मत्ऽसु॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । चो॒दि॒ता । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒काः । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत । अभीके चिदु लोककृत्संगे समत्सु वृत्रहास्माकं बोधि चोदिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रो इति । सु । अस्मै । पुरःऽरथम् । इन्द्राय । शूषम् । अर्चत । अभीके । चित् । ऊँ इति । लोकऽकृत् । सम्ऽगे । समत्ऽसु । वृत्रऽहा । अस्माकम् । बोधि । चोदिता । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वऽसु ॥ १०.१३३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 133; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में राजा के रथ के आगे सैनिक चलें, आक्रमणकारी शत्रु को राजा तुरन्त मार दे, प्रजा भी राजा की सहायता करे, आदि विषय हैं।
पदार्थ
(अस्मै-इन्द्राय) इस राजा के (पुरोरथम्) रथ के सामने-आगे (शूषम्) सैन्यबल को प्रशस्त करो, जिससे राजा रथ पर बैठा (समत्सु) संग्रामों में (अभीके चित्) समीप में भी (सङ्गे) साम्मुख्य होने पर (लोककृत्) स्थान करनेवाला अविचल (वृत्रहा) शत्रुनाशक (अस्माकं चोदिता) हमारा प्रेरक (बोधि) बोध दे (अन्यकेषां ज्याकाः) अन्यों-शत्रुओं के कुत्सित ज्याएँ डोरियाँ (धन्वसु-अधि) धनुषों में बन्धी (नभन्ताम्) नष्ट हो जावें ॥१॥
भावार्थ
सङ्ग्राम में राजा के साङ्ग्रामिक रथ के आगे सैनिकबल रहे, सामने आये शत्रुदल पर शस्त्रप्रहार करे, शत्रुओं के धनुषास्त्रों की डोरियाँ टूट जावें, शत्रु परास्त हो जावें ॥१॥
विषय
अग्रगामी - रथ और शत्रु-शोषक बल
पदार्थ
[१] राष्ट्र में शत्रुओं के संहार के लिए राजा सेनापति के रूप में 'इन्द्र' कहलाता है । (अस्मै इन्द्राय) = इस शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले सेनापति के लिए (उ) = निश्चय से (सु) = अच्छी प्रकार (पुरोरथम्) = अग्रगतिवाले रथ को तथा (शूषम्) = शत्रु- शोषक बल को (प्र अर्चत) = सम्यक् आदर दो । उस सेनापति को उचित आदर प्राप्त हो जिसका रथ आगे ही आगे बढ़ता है और कभी रणाङ्गण से पराङ्मुख नहीं होता । उस सेनापति को आदर दो जिसका कि बल शत्रुओं का शोषण करनेवाला है । [२] यह इन्द्र (अभीके) = संग्राम में (चित् उ) = निश्चय से (लोककृत्) = अपने स्थान को बनानेवाला है । (समत्सु) = संग्रामों में संगे शत्रुओं के साथ मुठभेड़ होने पर यह (वृत्रहा) = वृत्र का हनन करनेवाला है, राष्ट्र के घेरनेवाले शत्रुओं को समाप्त करनेवाला है [वृ-घेरना] । [३] हे इन्द्र ! इस प्रकार शत्रुहनन करता हुआ तू (अस्माकम्) = हमारा (चोदिता) = प्रेरक (बोधि) = अपने को जान प्रजाओं के अन्दर उत्साह का संचार करनेवाला तू हो । तेरी वीरता के सामने (अन्यकेषाम्) = [कुत्सिते कन् ] इन अधर्म के पक्षवाले कुत्सित शत्रुओं को (ज्याकाः) = धनुष की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ। उनका उत्साह मन्द पड़ जाएँ, उनके अस्त्र कुण्ठित हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ-सेनापति का रथ आगे ही आगे बढ़नेवाला हो, उसका बल शत्रुओं का शोषण कर दे। सेनापति शत्रुहनन करता हुआ प्रजाओं के उत्साह को बढ़ाये और शत्रुओं के अस्त्र कुण्ठित हो जाएँ।
विषय
इन्द्र। बलवान् सेनापति की प्रतिष्ठा। उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
(अस्मै इन्द्राय) शत्रुओं के नाश करने वाले, तेजस्वी इस पुरुष के (पुरः रथम् शूषम्) रथ के आगे आगे विद्यमान बल की (अर्चत) स्तुति करो। वह (अभीके संगे) भय रहित परस्पर मिलाप में (लोक-कृत्) समस्त लोकों का उपकार करता है, और (समत्सु वृत्रहा) उपकार संग्रामों में शत्रुओं का नाश करने हारा है। वह (अस्माकं चोदिता) हमें सन्मार्ग में प्रेरित करने वाला (बोधि) हमारा हित जाने। (अन्यकेषां धन्वसु) दूसरे शत्रुओं के धनुषों पर (अधि) (ज्याकाः) डोरियां (नभन्ताम्) नष्ट हों वा धनुषों पर को डोरियों को चढ़ाये हुए शत्रु नष्ट हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुराः पैजवनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः-१-३ शक्वरी। ४-६ महापंक्तिः। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते राज्ञो रथस्याग्रे सैनिका गच्छन्तु आक्रमणकारिणः शत्रून् सद्यो मारयेत् प्रजाजनास्तस्य राज्ञः साहाय्यं दद्युरित्येवमादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(अस्मै-इन्द्राय) अस्येन्द्रस्य-अस्य राज्ञः “षष्ठ्यर्थे चतुर्थीत्यपि वक्तव्यमिति वार्तिकेन [अष्टा० २।३।६२ चतुर्थी” (पुरोरथम्) रथस्य पुरस्तात् (शूषम्-उ सु प्र-अर्चत) सैन्यबलम् “शूषं बलनाम” [निघ० २।९] अवश्यं प्रशंसत यतः स इन्द्रो राजा रथस्थः (समत्सु-अभीके चित्) सङ्ग्रामेषु “समत्सु सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१७] समीपे “अभीके इत्यासन्नस्य-अभ्यक्ते” [निरु० ३।२०] अपि (सङ्गे) साम्मुख्ये (लोककृत्) स्वस्थानकृत् अविचलितः सन् (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (अस्माकं चोदिता बोधि) अस्माकं प्रेरयिता सन् बोधयेत् (अन्यकेषां ज्याकाः) अन्येषां शत्रूणां कुत्सिता ज्याः खल्वपि (धन्वसु-अधि नभन्ताम्) धनुष्षु बद्धाः खलु नश्यन्ताम् “णभ हिंसायाम्” [भ्वादि०] ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Offer a song of abundant praise in honour of this ruling lord Indra for his mighty force and front rank chariot. He, destroyer of darkness and evil, inspires us in our battles of life at the closest and enlightens us in our struggle for universal freedom. Let the strings of the alien enemy bows be snapped by the strike of the forces of Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
युद्धात राजाच्या युद्धभूमीतील रथापुढे सैनिकबल असावे. समोर आलेल्या शत्रूदलावर शस्त्रप्रहार करावा. शत्रूंच्या धनुष्यास्त्रांच्या दोऱ्या तुटून जाव्या, शत्रू पराजित व्हावा. ॥१॥
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