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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 137 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 137/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सप्त ऋषय एकर्चाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुन॑: । उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । दे॒वाः॒ । अव॑ऽहितम् । देवाः॑ । उत् । न॒य॒थ॒ । पुन॒रिति॑ । उ॒त । आगः॑ । च॒क्रुष॑म् । दे॒वः॒ । देवाः॑ । जी॒वय॑थ । पुन॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुन: । उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । देवाः । अवऽहितम् । देवाः । उत् । नयथ । पुनरिति । उत । आगः । चक्रुषम् । देवः । देवाः । जीवयथ । पुनरिति ॥ १०.१३७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 137; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    इस सूक्त में पतित का उद्धार, रोगी के रोग का निवारण विद्वान् वैद्यों द्वारा करना चाहिये तथा आश्वासन भी देना चाहिये, यह उपदेश है।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विद्वानों ! (उत) अपि तु हाँ (अवहितम्) नीचे गये हुए को-स्वास्थ्यहीन को (पुनः) फिर (देवाः) विद्वानों ! (उन्नयथ) उन्नत करो (उत) और (देवाः) विद्वानों ! (आगः) अपथ्यरूप पाप (चक्रुषम्) कर चुकनेवाले को (देवाः) वैद्य विद्वानों ! (पुनः-जीवयथ) पुनर्जीवित करो ॥१॥

    भावार्थ

    कोई मनुष्य यदि चरित्र से गिर जावे, तो विद्वान् लोग दया करके उसे चरित्रवान् बनावें और यदि कोई अपथ्य करके अपने को रोगी बना लेवे, तो विद्वान् वैद्य उसके रोग को दूर कर उसमें जीवनसंचार करें ॥१॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1140
    ओ३म् उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुन॑: ।
    उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुन॑: ॥
    ऋग्वेद 10/137/1

    ओ३म् उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुनः॑।
    उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुनः॑ ॥
    अथर्ववेद - काण्ड 4, सूक्त 13, मन्त्र 1

    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 
    पतित-से-पतित मनुष्य भी चाहे 
    उन्नत हो सकता है यहीं
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 

    पापी से पापी पुरुष तुम्हारा 
    पा के सहारा बने पुण्यात्मा 
    पतितों को देव निराश ना करते
    दूर हैं करते दु:ख बाधा 
    देव जो तुझ में ज्ञानप्रकाश है 
    तुझ में भी शक्ति कम तो नहीं 
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 

    करुणा परायण मेरे गुरुजनों
    कितनों को तुमने सँवारा है 
    तुमने ना जाने कितने गिरों को 
    निज युक्ति से उबारा है 
    पतित भी क्यों कर हिम्मत हारें?
    त्यागते देव उन्हें कभी भी नहीं 
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 

    दरसल पापी तब मरता है 
    जब जब पाप वह करता है 
    पापी तब तब जी उठता है 
    जब सत्कर्म वह करता है 
    क्यों ना तुम्हारी जीवनदायिनी 
    शरण में पापी आते नहीं है?
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 

    हाथ पैर मारो ए दलितों !
    यूँ ही ना हो जाओ अनमन 
    मरना नहीं जीना है तुमको 
    देव तुम्हारे जब है सङ्ग 
    मरने नहीं देंगे वह तुमको 
    उनकी दया भी  बहती रहीं 
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 
    पतित-से-पतित मनुष्य भी चाहे 
    उन्नत हो सकता है यहीं
    हे देवों ! सन्सार में मानव 
    सदा के लिए तो पतित नहीं 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--  19.9 2021   1.05

    राग :- बिहाग
    राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा

    *शीर्षक :-- *  🎧भजन ७१८ वां
    *तर्ज :- *
    00132-732 

    पतित = गिरे हुए, पापी
    युक्ति = ढंग,तरकीब
    उबारना = बचाना
    दरअसल = वास्तव में
    अनमन = उदास, परेशान
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    प्राक्कथन

    इस मन्त्र को समझने से पहले हमें युग प्रवर्तक महर्षि स्वामी दयानन्द महाराज के जीवन पर दृष्टिपात करना होगा।
    महर्षि स्वामी दयानंद के जीवन में जहां अच्छे लोग उनके सानिध्य में आए, वहां दूसरी ओर पतित से पतित मनुष्य भी उनके संपर्क में आए। उन्होंने कभी ऐसे लोगों को भी घृणा की दृष्टि से नहीं देखा, वे जानते थे कि मनुष्य अल्पज्ञ प्राणी है, वह आदतों से भी गलत हो सकता है और स्वभाव से भी गलत हो सकता है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम उससे नफ़रत करने लग जाएं। हम स्वयं को इतना शुद्ध हृदय बना ले जिसका प्रभाव बुरे से बुरे मनुष्य पर भी ऐसा जादू कर जाए की वह मनुष्य सदा के लिए अपनी बुरी आदतों को छोड़कर अपने बुरे स्वभाव को छोड़कर एक अच्छी परिस्थिति में आ जाए। जहां उसका सम्मान हो। क्या ऋषि दयानन्द ने ऐसा नहीं किया? अवश्य किया !
    आज अमीचंद को हम बुरे आदमी की दृष्टि से नहीं देखते बल्कि एक सुधरे हुए भक्त की तरह देखते हैं। ऐसे और कई प्रसंग हैं।
     इसलिए समझना होगा, के गिरों का,पतियों का, दलितों का परित्याग ना कर, प्रेम स्वभाव को अपनाना होगा जिस से घृणायें है ना फैलें। पतित से पतित मनुष्य में भी कहीं ना कहीं कुछ अच्छे गुण भी अवश्य होंगे। किन्तु कभी-कभी विवशता के कारण, स्वभाव के कारण, या बुरी संगत के कारण, मनुष्य पतित हो जाता है। लेकिन जो देवचंद होते हैं, वे उन्हें अपनी शरण में ले लेते हैं, यथावत सहाय्य बनते हैं। कारण को समझने का प्रयत्न करते हैं। और उन्हें उचित निर्देशन देते हैं। अपने भरोसे में लेते हैं। और उनका उद्धार करते हैं। आज बिगड़े हुए संसार में देवों की बहुत आवश्यकता है।

    आइए अब इस सुन्दर वेद के मन्त्र को हृदयङ्गम करें। और गाए गीत को सुनें।
      ‌               
                     मन्त्रोपदेश
    हे देव ! तुम्हारे इस संसार में कोई भी मनुष्य सदा के लिए पतित नहीं हो जाता। कोई मनुष्य सदा के लिए मर भी नहीं जाता। पतित-से-पतित मनुष्य इस संसार में फिर से जब चाहे तब उन्नत हो सकता है। मरे हुए मनुष्य को भी हे देवो ! तुम फिर जिला सकते हो पापी से पापी पुरुष भी तुम्हारा सहारा पाकर फिर पूरा पुण्य- आत्मा हो जाता है । 
    प्रायः पतित होकर हम लोग निराश हो जाया करते हैं, हम समझने लगते हैं कि अब तो हमारा उद्धार कभी किसी तरह नहीं हो सकता, परन्तु हे देवो ! तुम तो देव हो! तुम बड़े भारी ज्ञान-प्रकाशक और शक्ति से युक्त हो, तुम्हारे रहते हम कैसे फिर उन्नत ना हो सकेंगे? हे परोपकार के लिए ही जीवन धारण करने वाले श्रेष्ठ जनों ! तुम देव हो। तुम्हारी कृपा में बड़ी अद्भुत शक्ति है। तुमने ना जाने कितने पतितों को उबारा है,ना जाने कितने डूबतों को बचाया है। प्राण निकलते-निकलते आ बचाया है। जघन्य पापियों को अन्तिम क्षण में पुण्य जीवन की तरफ से लिया है। मरकर तो सभी जीव पुनर्जन्म पाते हैं, किन्तु असल में मरना तो पापी होना ही है।यदि अमर आत्मा किसी तरह मरता है तो वह पाप अपराध करने से ही मरता है। पर हे देवो ! तुम इस अत्यंत विकट आत्मिक मौत से भी उबार लेने वाले हो फिर से पुण्य जीवन का संचार कर देने वाले हो। तब हम तुम्हारे होते क्यों कभी निराश होवें? हतोत्साहित होकर क्यों हाथ पैर मारना छोड़ दें? क्यों ना तुम्हारी जीवनदायी शरण में आश्रय लेवें? हे देवो ! हमें पूरा पूरा विश्वास है कि तुम शरण में पड़े हम पतितों को, दलितों को, अवश्य ही ऊपर उठा लोगे हम मरे हुए को अवश्य ही फिर जीवित कर दोगे।                                       🕉🧘‍♂️ईशभक्ति भजन भगवान ग्रुप द्वारा🌹🙏

     

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    विषय

    पुनर्जीवन

    पदार्थ

    [१] शरीर में सब देवताओं का वास है। सूर्य इसमें चक्षुरूप से तो वायु प्राणों के रूप से तथा अग्नि वाणी के रूप से रह रही है। इसी प्रकार अन्य देव भी भिन्न-भिन्न रूपों में यहाँ रहते हैं। इन बाह्य देवों का अन्तर्देवों से मेल बना रहे तो मनुष्य स्वस्थ होता है, अन्यथा अस्वस्थ । चन्द्रमा मन रूप से रहता है। इनकी अनुकूलता के न रहने पर मन विकृत हो जाता है और उसमें अशुभ वृत्तियाँ पनपने लगती हैं। सो देवों से कहते हैं कि हे (देवा:) = देवो ! (उत अवहितम्) = जो रुग्ण होकर नीचे खाट पर पड़ गया है उसे भी (पुनः उन्नयथा) = फिर से उठा दो। [२] और (देवाः) = हे देवो! आप (आगः चक्रुषम् उत) = अपराध को कर चुके हुए इस व्यक्ति को भी (उन्नयथा) = उठाओ। इसकी इन अशुभ वृत्तियों को दूर कर दो, [२] हे (देवाः देवा:) = सब देवो ! आप इसे (पुनः) = फिर से (जीवयथा) = जिला दो । व्याधियों ने इसे शारीरिक दृष्टि से तथा आधियों ने मानस दृष्टि से गिरा रखा था, आप कृपा करके इसे आधि-व्याधि से ऊपर उठाकर फिर से नया जीवन प्रदान करनेवाले होवो |

    भावार्थ

    भावार्थ- सब प्राकृतिक देवों की अनुकूलता से हमें पुनर्जीवन प्राप्त हो ।

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    विषय

    विश्वेदेव। विद्वानों, तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य। जलों को रश्मियों के तुल्य नीचे गिरों को बार बार उठावें। अन्यों को जीवन प्रदान करें।

    भावार्थ

    हे (देवाः) विद्वान् तेजस्वी पुरुषो ! आप लोग (अवहितम्) नीचे गिरे पड़े को (उत् नयथ) ऊपर उठाओ। कैसे ? जैसे रश्मिगण नीचे स्थित जल को उठा लेते हैं। हे (देवाः) उत्तम गुणवान् विद्वानो ! (पुनः उत् नयथ) बार बार उठाओ। (उत) और हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (आगः चक्रुषं) अपराध और पाप करने वाले को भी (उत् नयथ) ऊपर उठाओ ! हे (देवाः) दानशील, उदार पुरुषो ! बख़्शने वाले (पुनः जीवयथ) मेघों के समान बार बार जीवन प्रदान करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सप्त ऋषय एकर्चाः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ६ अनुष्टुप्। २, ३, ५, ७ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते पतितस्योद्धरणं रुग्णस्य रोगनिवारणं च विद्वद्भिर्वैद्यैश्च तथा आश्वासनदानं चापि कार्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    (देवाः-उत-अवहितम्) हे विद्वांसः ! यूयम्-अपि नीचैः स्थितं जनं (पुनः-देवाः-उत् नयथ) पुनर्विद्वांसः ! उन्नयथ-उपरि नयथ (उत) अपि च (देवाः-आगः-चक्रुषम्) हे विद्वांसो वैद्याः ! पापमपथ्यं कृतवन्तं (देवाः-पुनः-जीवयथ) विद्वांसः ! पुनर्जीवयथ ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Devas, sages and noble scholars, raise the frustrated and the fallen. O divinities, save the despaired and raise him again. O saints, redeem the man committed to sin. O divines, give him the life again. Let the lost live once again.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    एखादा माणूस जर चरित्रहीन असेल तर विद्वान लोकांनी दया करून त्याला चरित्रवान बनवावे व जर कोणी अवपथ्य करून रोगी बनला असेल तर विद्वान वैद्यांनी त्याचा रोग दूर करून त्याच्यात जीवन संचार करवावा. ॥१॥

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