ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 1
अ॒यम॑ग्ने जरि॒ता त्वे अ॑भू॒दपि॒ सह॑सः सूनो न॒ह्य१॒॑न्यदस्त्याप्य॑म् । भ॒द्रं हि शर्म॑ त्रि॒वरू॑थ॒मस्ति॑ त आ॒रे हिंसा॑ना॒मप॑ दि॒द्युमा कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्ने॒ । ज॒रि॒ता । त्वे इति॑ । अ॒भू॒त् । अपि॑ । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । न॒हि । अ॒न्यत् । अस्ति॑ । आप्य॑म् । भ॒द्रम् । हि । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । अस्ति॑ । ते॒ । आ॒रे । हिंसा॑नाम् । अप॑ । दि॒द्युम् । आ । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्ने जरिता त्वे अभूदपि सहसः सूनो नह्य१न्यदस्त्याप्यम् । भद्रं हि शर्म त्रिवरूथमस्ति त आरे हिंसानामप दिद्युमा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्ने । जरिता । त्वे इति । अभूत् । अपि । सहसः । सूनो इति । नहि । अन्यत् । अस्ति । आप्यम् । भद्रम् । हि । शर्म । त्रिऽवरूथम् । अस्ति । ते । आरे । हिंसानाम् । अप । दिद्युम् । आ । कृधि ॥ १०.१४२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा अपने उपासक के अज्ञान को नष्ट करता है, मोक्षसुख देता है, तीन प्रकार के दुःखों से पृथक् करता है, उसकी सदा रक्षा करता है इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (अयं जरिता) यह स्तुति करनेवाला (त्वे-अपि-अभूत्) तेरे अन्दर निमग्न हो जाता है (सहसः सूनो) हे बल के प्रेरक ! (अन्यत्-आप्यम्) अन्य प्राप्तव्य वस्तु (नहि-अस्ति) तुझ से भिन्न नहीं है (ते शर्म भद्रं हि) तेरा शर्म गृह कल्याणरूप ही (त्रिवरूथम्-अस्ति) तीन दुःखों का निवारक है (हिंसानां दिद्युम्) हिंसकों के दीप्यमान शस्त्र को (आरे-अप आ कृधि) दूर कर दे-दूर फेंक दे ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा का स्तुति करनेवाला उसके अन्दर निमग्न हो जाता है, परमात्मा से भिन्न उसकी कोई प्राप्तव्य वस्तु नहीं होती, परमात्मा की शरण कल्याणकारी है और तीन दुखों-अर्थात् आध्यात्मिक, अधिदैविक और अधिभौतिक दुखों का निवारक है, हिंसकों के शस्त्रास्त्र को दूर फेंकता है ॥१॥
विषय
प्रभु ही सच्चे बन्धु हैं
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (अयं जरिता) = यह स्तोता (त्वे अभूत्) = आप में ही होता है। यह सर्वदा आपकी ही शरण को प्राप्त करता है । अपि और हे (सहसः सूनो) = बल के पुत्र, बल के पुञ्ज प्रभो! (अन्यत्) = आप से भिन्न (आप्यम्) = बन्धुत्व (नहि अस्ति) = नहीं है। वस्तुतः आप ही तो बन्धु हैं। अन्य बन्धुत्व तो सब स्वार्थ को लिये हुए हैं। [२] (हि) = निश्चय से (ते शर्म) = आपका रक्षण [शर्म protection] (भद्रम्) = कल्याण व सुख को देनेवाला है तथा (त्रिवरूथं अस्ति) = अध्यात्म, अधिदेव व अधिभूत सम्बन्धी सभी कष्टों का निवारण करनेवाला है। हे प्रभो ! आप (हिंसानाम्) = हिंसक वृत्तिवाले पुरुषों के (दिद्युम्) = वज्र को आरे दूर (अपकृधि) = हमारे से पृथक् करिये। हम इनके वज्र का शिकार न हों। काम, क्रोध, लोभ आदि असुरों के शस्त्रों से हम घायल न किये जायें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु में मग्न रहें। प्रभु को ही अपना बन्धु जानें। प्रभु का रक्षण हमें सब आपत्तियों से बचाता है। प्रभु कृपा से असुरों के अस्त्र हमारे पर प्रहार न करें।
विषय
अग्नि। त्रिभूमिक गृह के समान प्रभु शरण्य को प्राप्त कर परम मोक्ष और उसकी बन्धुता प्राप्ति और उससे दया की याचना।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! स्वप्रकाश ! प्रत्येक देह में व्यापक, अग्निस्वरूप प्रभो ! (अयम् जरिता) यह स्तुतिकर्ता, विद्वान् (त्वे अपि अभूत्) तेरे में ही ‘अप्यय’ अर्थात् मग्न होकर एकीभाव प्राप्त करे। हे (सहसः सूनो) बल के उत्पादक ! सर्वशक्तिमन् ! (नहि अन्यत् आप्यम् अस्ति) और कुछ भी नहीं पाना है। या और इससे अधिक दूसरी बन्धुता नहीं है (ते) तेरा दिया (भद्रं शर्म) कल्याण का जनकसुख ही (त्रि- वरूथं) तीनों दुःखों से बचाने वाला, तीनों तापों का वारक, तिमंजिले मकान के समान (अस्ति) है। तू (हिंसानाम्) हिंसकों के (दिद्युम्) चमकते शस्त्र या क्रोध को (आरे अपाकृधि) हम से दूर कर अथवा (हिंसानाम्) मारे जाने वाले हम प्राणियों से अपने चमचमाते क्रोध को दूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्ङ्गाः। १, २ जरिता। ३, ४ द्रोणः। ५, ६ सारिसृक्वः। ७,८ स्तम्बमित्रः अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २ निचृज्जगती। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ निचृदनुष्टुप्। ८ अनुष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मा निजोपासकस्याज्ञानं छिनत्ति मोक्षसुखं प्रयच्छति, दुःखत्रयात् पृथक् करोति सदा रक्षतीत्यादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (अयं जरिता) एष स्तोता “जरिता स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] (त्वे-अपि-अभूत्) त्वयि त्वदन्तरेऽपि गतो निमग्नो जातः (सहसः सूनो) हे बलस्य प्रेरकः ! “य आत्मदा बलदा...” [यजु० २५।१३] (अन्यत्-आप्यम्-नहि-अस्ति) जरितुः स्तोतुर्ममाव्यत् खल्वाप्यं प्राप्तव्यं वस्तु त्वद्भिन्नं नास्ति (ते शर्म भद्रं-हि त्रिवरूथम्-अस्ति) तव शरणं गृहम् “शर्म गृहनाम” [निघ० ३।४] कल्याणरूपं दुःखत्रयस्य वारकमस्ति (हिंसानां-दिद्युम्-आरे-अप आ कृधि) हिंसन्तीति हिंसाः-अच् कर्तरि तेषां दीप्यमानं शस्त्रं दूरे “इषवः वै दिद्यवः” [श० ५।४।२।२] “दिद्युम्-प्रज्वलितं शस्त्रास्त्रम्” [ऋ० ७।५६।९ दयानन्दः] “आरे दूरनाम” [निघ० ३।२६] प्रक्षिप ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O self-refulgent light of life, Agni, this celebrant is dedicated to you wholly in worship and service. O creator and inspirer of strength, patience and fortitude, there is none other than you worth attaining. Blissful is your power of body, mind and soul. Pray cast away the pain and sufferance caused by the burning oppression of violent enemies.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची स्तुती करणारा त्याच्यामध्ये निमग्न होतो. परमेश्वरापेक्षा वेगळे त्याचे कोणतेही प्राप्तव्य नसते. परमात्म्याला शरण जाणे कल्याणकारी असते. तो तीन दु:ख अर्थात् आध्यात्मिक, आधिभौतिक आणि आधिदैविक दु:खांचा निवारक आहे. हिंसकाची शस्त्रास्त्रे तो दूर फेकतो. ॥१॥
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