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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 143/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अत्रिः साङ्ख्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्यं चि॒दत्रि॑मृत॒जुर॒मर्थ॒मश्वं॒ न यात॑वे । क॒क्षीव॑न्तं॒ यदी॒ पुना॒ रथं॒ न कृ॑णु॒थो नव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्यम् । चि॒त् । अत्रि॑म् । ऋ॒त॒ऽजुर॑म् । अर्थ॑म् । अश्व॑म् । न । यात॑वे । क॒क्षीव॑न्तम् । यदि॑ पुन॒रिति॑ । रथ॑म् । न । कृ॒णु॒थः । नव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्यं चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं न यातवे । कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्यम् । चित् । अत्रिम् । ऋतऽजुरम् । अर्थम् । अश्वम् । न । यातवे । कक्षीवन्तम् । यदि पुनरिति । रथम् । न । कृणुथः । नवम् ॥ १०.१४३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 143; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में अध्यात्मविषय के अध्यापक उपदेशक वासनावाले मनुष्य को वासना से पृथक् करते हैं, शरीर केवल भोगार्थ ही नहीं अध्यात्मसिद्धि के लिये भी है, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (त्यम्-ऋतजुरम्) उस प्राप्त जरावस्थावाले (अत्रिं चित्) अत्ता, भोक्ता जन को (अर्थं यातवे) अभीष्ट प्राप्त करने के लिए (कक्षीवन्तम्-अश्वं-न) पट्टी से बँधे घोड़े के समान (यदि) जब (रथं न) शिल्पी जैसे रथ को (पुनः-नवं कृणुथः) फिर नया कर देते हैं, ऐसे अध्यापक और उपदेशक अपने अध्यापन और उपदेश से नया जीवन देते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    आत्मा शरीर में आकर भोग भोगकर जरा अवस्था को प्राप्त हो जाता है, परन्तु ये शारीरिक इष्टसिद्धि के लिए नहीं है, घोड़ा जैसे कक्षीबन्धन में बँधा होता है, उस ऐसे को दो शिल्पियों की भाँति जो रथ को नया बना देते हैं, उसकी भाँति अध्यापक और उपदेशक द्वारा अध्यापन और उपदेश सुनता है, तो नया बन जाता है ॥१॥

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    विषय

    अत्रि का 'शरीर'

    पदार्थ

    [१] प्रस्तुत सूक्त के देवता 'अश्विनौ'- प्राणापान हैं। ये प्राणापान (यत् ई) = निश्चय से (रथम्) = इस शरीररूप रथ को (पुनः) = फिर से (नवं न) = नया-सा (कृणुथः) = करते हैं । प्रातः से सायं तक कार्य करता हुआ मनुष्य थक-सा जाता है। सो जाता है, और प्राणापान इस शरीर रथ को फिर से नया [तरो ताजा] कर देते हैं। 'किस के लिये इस रथ को नया करते हैं ?' (त्यं चित् अत्रम्) = निश्चय से उस अत्रि के लिये, 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठे हुए के लिये । (ऋतजुरम्) = ऋत के द्वारा, प्रत्येक कार्य को ठीक रूप में करने के द्वारा वासनाओं को जीर्ण करनेवाले के लिये । (अर्थम्) = [ऋ गतौ] गतिशील के लिये। इस 'अत्रि ऋतजुर्-अर्थ' के लिये अश्विनीदेव शरीर रथ को तरोताजा करते हैं। [२] अश्विनीदेव अत्रि के लिये इस शरीर रथ को फिर-फिर नया इसलिए करते हैं कि यह (यातवे) = लक्ष्य स्थान पर जाने के लिये उसी प्रकार समर्थ हो (न) = जैसे कि (अश्वम्) = घोड़ा । घोड़े को घास आदि खिलाकर सबल बनाते हैं जिससे लक्ष्य - स्थान पर पहुँच सके, इसी प्रकार अश्विनीदेव शरीर-रथ को नया-नया करते हैं जिससे यह भी निरन्तर आगे बढ़ता हुआ लक्ष्य- स्थान पर पहुँचानेवाला हो। यह शरीर रथ उसी का ठीक बनता है जो कि (कक्षीवन्तम्) = प्रशस्त कक्ष्या [कटिबन्ध रज्जु] वाला है जो लक्ष्य पर पहुँचने के लिये कटिबद्ध है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'काम-क्रोध-लोभ' से ऊपर उठकर 'अत्रि' बनें। सब कार्यों को ठीक समय व स्थान पर करते हुए हम वासनाओं को जीर्ण करनेवाले 'ऋतजुर' हों। गतिशील बनकर 'अश्व' हों । लक्ष्य - स्थान पर पहुँचने के लिये कटिबद्ध 'कक्षीवान्' हों। ऐसे हमारे लिये प्राणापान शरीर- रथ को दिन प्रतिदिन नया कर देते हैं।

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    विषय

    दो अश्विगण। प्रधान प्रकृति और परमेश्वर का वर्णन। उनका कार्य जीव को पुनः जन्म देना। कक्षीवान् जीव।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) व्यापक गुण वाले प्रधान और परम पुरुष ! आप दोनों ! (त्यं चित् अत्रिम्) उस अत्रि अर्थात् नाना कर्मफलों के भोक्ता वा त्रिविध तापों से निवृत्त, (ऋत-जुरम्) सत्य ज्ञान को प्राप्त करने वाले जन को (अर्थं यातवे अश्वं न) प्राप्तव्य स्थान पर जाने के लिये अश्व के तुल्य, सुदृढ़, बलवान् पुनः हरा-भरा (कृणुथः) करते हो। (यदि पुनः) और (कक्षीवन्तं) उत्तम दृष्टियों वाले और उत्तम ज्ञानवान् पुरुष को (रथं न) रथ के समान (नवं कृणुथः) नया बना देते हो।

    टिप्पणी

    अत्रिः—अत्रैव तृतीयम् ऋच्छतेत्युचुः। निरु० १। ३। ५ ॥ प्रधानपुरुष इन दो से तीसरा कर्मफल भोक्ता ‘अत्रि’ है। कक्षीवान्—कक्ष्यावान्। निरु० ६। ३। १॥ कक्ष्याः प्रकाशयन्ति कर्माणि।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अत्रिः सांख्यः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:—१—५ अनुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्तेऽध्यात्मविषयस्याध्यापकोपदेशकौ वासनावन्तं जनं वासनातः पृथक् कुरुतः, शरीरं केवलं न भोगसिद्धयेऽध्यात्म-सिद्धयेऽपीति ज्ञापयत इत्यादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (त्यम्-ऋतजुरम्-अत्रिं चित्) हे-अश्विनौ ! “चतुर्थमन्त्रात्” अध्यापकोपदेशकौ “अश्विनौ-अध्यापकोपदेशकौ” [ऋ० ५।७८।३ दयानन्दः] ऋता प्राप्ता-जुर्जरा येन तं प्राप्तजरम् “जॄ वयोहानौ” [क्र्यादि०] ततो क्विप् ‘उत्वं छान्दसम्’ अत्तारं भोक्तारं जनम् “अत्रिः सुखानामत्ता-भोक्ता” [ऋ० १।१३९।९ दयानन्दः] “अदेस्त्रिनिश्च त्रिप्” [उणादि० ४।६८] इति अद धातोः-त्रिप् प्रत्ययः (अर्थं यातवे) अभीष्टं प्राप्तुम् “या धातोस्तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः” “तुमर्थेसेऽसेन...तवेनः” [अष्टा० ३।४।९] इत्यनेन (कक्षीवन्तम्-अश्वं-न) कक्ष्यया बद्धमश्वमिव (यदि) यद्वा (रथं न) शिल्पिनौ रथं यथा (पुनः-नवं कृणुथः) पुनर्नवं कुरुथः स्वाध्यापनोपदेशाभ्याम् ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Hey Ashvins, complementary energies of nature and complementary nobilities of humanity such as physician and surgeon, teacher and preacher, father and mother, men and women, the person who observes the laws of nature and principles of truth and grows up in the yajnic way of life, whether he or she loves to enjoy the experience of living or has grown out of life’s colourfulness and temptation, such a person you strengthen like a strong force in harness with every side of personality renewed to top condition of health and body to reach the goal and realise the purpose and values of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा शरीरात येऊन भोग भोगून जरावस्था प्राप्त करतो; परंतु हे शारीरिक इष्टसिद्धीसाठी नाही. घोडा जसा खोगीरबंधनात बांधलेला असतो व कारागीर रथाला पुन्हा नवीन करतात त्याप्रमाणे अध्यापक व उपदेशक आत्म्याला नवीन जीवन देतात. ॥१॥

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