ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 152/ मन्त्र 1
ऋषिः - शासो भारद्वाजः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रखा॒दो अद्भु॑तः । न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जीय॑ते॒ कदा॑ च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठशा॒सः । इ॒त्था । म॒हान् । अ॒सि॒ । अ॒मि॒त्र॒ऽखा॒दः । अद्भु॑तः । न । यस्य॑ । ह॒न्यते॑ । सखा॑ । न । जीय॑ते । कदा॑ । च॒न ॥
स्वर रहित मन्त्र
शास इत्था महाँ अस्यमित्रखादो अद्भुतः । न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठशासः । इत्था । महान् । असि । अमित्रऽखादः । अद्भुतः । न । यस्य । हन्यते । सखा । न । जीयते । कदा । चन ॥ १०.१५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 152; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा सच्चा शासक, उसका उपासक किसी से मारा या जीता नहीं जा सकता, सुखदाता है, एवं प्रजारक्षक राजा सच्चा शासक है, उसका सङ्गी मारा या जीता नहीं जाता है, शत्रु को परास्त कर उसका धन अपनी प्रजा में बाँट देता है इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(इत्था) सत्य (महान् शासः) महान् शासक परमात्मन् या राजन् ! तू (असि) है, क्योंकि (अद्भुतः) अभूतपूर्व (अमित्रखादः) शत्रुनाशक है (यस्य सखा) तू ऐसा है, जिसका उपासक या साथी (कदाचन न हन्यते) किसी से कभी मारा नहीं जाता है (न जीयते) न जीता जा सकता है ॥१॥
भावार्थ
यह बात सत्य है कि परमात्मा महान् शासक है और उपासक के कामादि शत्रुओं का नाशक है तथा परमात्मा का जो मित्र-उपासक है, वह अन्यथा हनन को प्राप्त नहीं होता, पूर्ण आयु को भोगता है, न कामादि से परास्त होता अर्थात् कामादि उसे दबा नहीं सकते, यह भी सत्य है कि जो प्रजाहितैषी राजा होता है, उसका सहयोगी कभी मार नहीं खा सकता है और न जीता जा सकता है ॥१॥
विषय
शासक
पदार्थ
[१] हे जीव ! तू (शासः) = अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर शासन करनेवाला होता है। (इत्था) = इस प्रकार शासन करनेवाला बनकर तू (महान् असि) = महान् होता है, आदरणीय बनता है, तू बड़ा होता है। (अमित्रखादः) = शत्रुओं को खा जानेवाला, अर्थात् काम-क्रोध आदि को समाप्त करनेवाला होता है और (अद्भुतः) = शत्रुओं को समाप्त करके आश्चर्यभूत जीवनवाला होता है । सुन्दरतम जीवन यही तो है, जिसमें कि हम काम-क्रोध-लोभ को समाप्त करके स्वस्थ शरीर, मन व बुद्धिवाले बनते हैं । [२] इन काम-क्रोध-लोभ आदि से पराजित वही मनुष्य होता है, जो कि अपने सच्चे मित्र प्रभु से अलग हो जाता है। प्रभु को भूल जाना ही हमारे लिये प्रभु का समाप्त हो जाना है । (यस्य सखा न हन्यते) = जिसका यह प्रभुरूप मित्र समाप्त नहीं होता वह व्यक्ति (कदाचन) = कभी भी (न जीयते) = पराजित नहीं होता। उसे काम-क्रोध आदि कभी अभिभूत नहीं कर पाते ।
भावार्थ
भावार्थ - हम शासक बनें, इन्द्रियों को वश में रखते हुए काम आदि को समाप्त करनेवाले हों । प्रभुरूप मित्र से कभी अलग न हों। इसके सम्पर्क में रहने पर हम कभी पराजित न होंगे।
विषय
इन्द्र। विश्व का बड़ा भारी शासक परमेश्वर
भावार्थ
हे प्रभो ! राजन् ! तू (इत्था) सत्य ही (महान् शासः असि) बड़ा भारी विश्व का शासक है। और तू (अद्भुतः) आश्वर्यकारी (अमित्र-खादः) अमित्रों, शत्रुओं का नाश करने वाला है। (यस्य सखा न हन्यते) जिसका मित्र नहीं मारा जाता, न दण्डित होता और (न कदाचन जीयते) न कभी पराजित होता है, न कभी पछाड़ खाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शासो भारद्वाजः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृदनुष्टुप्। ३ अनुष्टुप्। ५ विराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते परमात्मा खलु सत्यशासकस्तस्योपासकः केनापि न हन्यते जीयते च सर्वसुखदाताऽपि, एवं प्रजारक्षको राजा सत्यशासको भवति तस्य सङ्गी न हन्यते जीयते च शत्रुं परास्त्य तद्धनं स्वप्रजासु वितरति।
पदार्थः
(इत्था) सत्यं खलु “इत्था सत्यनाम” [निघ० ३।१०] (महान् शासः-असि) महान् शासकस्त्वं परमात्मन् ! राजन् ! वा, असि, यतः (अद्भुतः-अमित्रखादः) अभूतोऽपूर्वः शत्रुनाशकः (यस्य सखा कदाचन न हन्यते न जीयते) यस्य सखा-उपासकः सहयोगी वा कदाचित् खलु न केनापि हन्यते न चान्येन जेतुं शक्यते ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you are truly the great ruler and controller of the world, wondrous unique, destroyer of unfriendly and negative forces, supreme power whose friend and devotee is never destroyed, never hurt, never overcome.
मराठी (1)
भावार्थ
ही गोष्ट सत्य आहे, की परमात्मा महान शासक आहे व काम इत्यादी उपासकांच्या शत्रूंचा नाशक आहे, तसेच परमात्म्याचा जो उपासक मित्र आहे त्याचे हनन होत नाही. तो पूर्ण आयू भोगतो. तो काम इत्यादीने पराजित होत नाही. अर्थात काम इत्यादी त्याचे दमन करू शकत नाहीत व हेही सत्य आहे की, जो प्रजेचा हितैषी राजा असतो त्याचा सहयोगी कधी मार खाऊ शकत नाही किंवा जिंकला जाऊ शकत नाही. ॥१॥
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