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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 160 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 160/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पूरणो वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ती॒व्रस्या॒भिव॑यसो अ॒स्य पा॑हि सर्वर॒था वि हरी॑ इ॒ह मु॑ञ्च । इन्द्र॒ मा त्वा॒ यज॑मानासो अ॒न्ये नि री॑रम॒न्तुभ्य॑मि॒मे सु॒तास॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ती॒व्रस्य॑ । अ॒भिऽव॑यसः । अ॒स्य । पा॒हि॒ । स॒र्व॒ऽर॒था । वि । हरी॒ इति॑ । इ॒ह । मु॒ञ्च॒ । इन्द्र॑ । मा । त्वा॒ । यज॑मानासः । अ॒न्ये । नि । री॒र॒म॒न् । तुभ्य॑म् । इ॒मे । सु॒तासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तीव्रस्याभिवयसो अस्य पाहि सर्वरथा वि हरी इह मुञ्च । इन्द्र मा त्वा यजमानासो अन्ये नि रीरमन्तुभ्यमिमे सुतास: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तीव्रस्य । अभिऽवयसः । अस्य । पाहि । सर्वऽरथा । वि । हरी इति । इह । मुञ्च । इन्द्र । मा । त्वा । यजमानासः । अन्ये । नि । रीरमन् । तुभ्यम् । इमे । सुतासः ॥ १०.१६०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 160; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में राजप्रजाधर्म कहा जाता है, सब प्रकार के अन्न धन की पूर्ति प्रजा के लिए राजा करे, जो विद्वान् राजा को सहयोग दे, राजा उनके के लिये स्थायी जीविका दे, आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (अस्य) इस तीव्र प्रबल (अभिवयसः) प्राप्त बहुत अन्नवाले राष्ट्र की (पाहि) राजन् रक्षा कर (सर्वरथा) सब रमणीय पदार्थ जिनके द्वारा प्राप्त होते हैं, उन (हरी) उन दुःखहारक बल पराक्रमों को (वि मुञ्च) इस राष्ट्र में छोड़-उपयुक्त कर (इह) इस राष्ट्र में (त्वा) तुझे (अन्ये-यजमानाः) अन्य प्रजाजन (मा निरीरमन्) मत रमण करें, लोभ में न दबावें (तुभ्यम्) तेरे लिये (इमे) ये प्रजाजन आज्ञाकारी हों ॥१॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए, राष्ट्र को सब अन्न-धन से सम्पन्न बनावे, रक्षा करे, बल पराक्रम से प्रजा के दुखों को नष्ट करे, प्रजाजन विरुद्ध न हो सके, अतः उसको प्रसन्न रखे ॥१॥

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    विषय

    मुख्य कर्त्तव्य 'सोमरक्षण'

    पदार्थ

    [१] (तीव्रस्य) = शत्रुओं के लिये, रोगकृमि आदि के लिये अत्यन्त तीक्ष्ण (अभिवयसः) = [अभिगतं वयो येन] जिसके द्वारा उत्कृष्ट जीवन प्राप्त होता है उस (अस्य) = इस सोम का (पाहि) = तू अपने में रक्षण कर । सोम को शरीर में ही सुरक्षित रख। यह तुझे रोगों से मुक्त करेगा और दीर्घजीवन प्राप्त करायेगा। [२] (इह) = इस जीवन में (सर्वरथा) = [सर्व: रथः याभ्याम्] जिनके द्वारा यह शरीररथ पूर्ण बनता है, उन (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (विमुञ्च) = विषय-वासनारूप तृणों में चरते रहने से पृथक् कर । तेरी इन्द्रियाँ विषयों में ही लिप्त न रह जायें, इन्हें तू विषयमुक्त करके शरीर- रथ को आगे ले चलनेवाला बना । [३] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा) = तुझे (अन्ये यजमानासः) = अन्य विविध कामनाओं से यज्ञों में व्यापृत लोग (निरीरमन्) = मत आनन्दित करें। अर्थात् तू भी उनकी तरह सकाम होकर इन यज्ञ-यागादि में ही न उलझे रह जाना । (तुभ्यम्) = तेरे लिये तो (इमे) = ये सोम (सुतासः) = उत्पन्न किये गये हैं । तेरा मुख्य कार्य इनका रक्षण है। इनके रक्षण से ही सब प्रकार की उन्नति होगी ।

    भावार्थ

    भावार्थ—हम इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करके सोमरक्षण को ही अपना मुख्य कर्त्तव्य समझें ।

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    विषय

    इन्द्र।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) सेनापते ! हे शत्रुहन्तः ! ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू (अस्य) इस (तीव्रस्य) अति वेग से जाने वाले (अभि-वयसः) सर्वत्र बलयुक्त सैन्य और सर्व अन्न से सम्पन्न राष्ट्र का (पाहि) पालन कर। (इह) यहां (सर्वरथा हरी) वेग से जाने वाले रथ से संयुक्त, वा समस्त रथों में लगे अश्वों को (वि मुञ्च) खोल दें। (त्वा) तुझे (अन्ये यजमानासः) दूसरे शत्रु लोग नाना ऐश्वर्य देते हुए भी (मा नि रीरमन्) तुझे न लुभालें, (इमे सुतासः तुभ्यम्) ये समस्त उत्पन्न ऐश्वर्य और अधिकार वा अधिकारी जन एवं ऐश्वर्यवान् जन (तुभ्यम्) तेरी ही सेवा के लिये हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पूरणो वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते राजप्रजाधर्म उच्यते, सर्वविधान्नधनानां पूर्तिं प्रजायै राजा कुर्यात्, ये च विद्वांसो राजानं सहयोगं दद्युस्तेभ्यश्चिरजीविकां दद्यादित्येवंविधा विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (अस्य तीव्रस्य-अभिवयसः पाहि) एतस्य प्रबलस्य, अभिगतानि प्राप्तानि विविधानि वयांसि खल्वन्नानि यस्मिन् राष्ट्रे तथाभूतस्येति सर्वत्र द्वितीयार्थे षष्ठी एतं प्रबलं प्राप्तविविधान्नकं राष्ट्रं राजन् रक्ष (सर्वरथा हरी-इह विमुञ्च) सर्वे रमणीयाः पदार्था याभ्यां तौ दुःखहारकौ बलपराक्रमौ “हरी बलपराक्रमौ” [यजु० ३।५२ दयानन्दः] अत्र राष्ट्रे विमुञ्च उपयुङ्क्ष्व (इह) अस्मिन राष्ट्रे (त्वा) त्वाम् (अन्ये यजमानासः निरीरमन्) अन्ये प्रजाजनाः यजमान प्रजसम् [तै० सं० ५।३।३।१] न रमन्तु न लोभयन्तु (तुम्यम्-इमे सुतासः) त्वदर्थमेते सर्वे प्रजाजनाः सज्जिताः सन्ति ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O ruler of the world, Indra, take on, protect and promote this vibrant youthful social order, release all the versatile and abundant resources of development here for this purpose, let no other programme or programmers distract your attention. For you and your purpose all these natural and human resources are ready, trained and matured to the full.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने राष्ट्राला अन्नधान्याने संपन्न करावे. रक्षण करावे. बल पराक्रमाने प्रजेचे दु:ख नष्ट करावे. प्रजेने विरुद्ध होऊ नये यासाठी प्रजेला प्रसन्न ठेवावे. ॥१॥

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