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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 178 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 178/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः देवता - तार्क्ष्यः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्यमू॒ षु वा॒जिनं॑ दे॒वजू॑तं स॒हावा॑नं तरु॒तारं॒ रथा॑नाम् । अरि॑ष्टनेमिं पृत॒नाज॑मा॒शुं स्व॒स्तये॒ तार्क्ष्य॑मि॒हा हु॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्यम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । वा॒जिन॑म् । दे॒वऽजू॑तम् । स॒हऽवा॑नम् । त॒रु॒ऽतार॑म् । रथा॑नाम् । अरि॑ष्टऽनेमिम् । पृ॒त॒नाज॑म् । आ॒शुम् । स्व॒स्तये॑ । तार्क्ष्य॑म् । इ॒ह । हु॒वे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्यमू षु वाजिनं देवजूतं सहावानं तरुतारं रथानाम् । अरिष्टनेमिं पृतनाजमाशुं स्वस्तये तार्क्ष्यमिहा हुवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्यम् । ऊँ इति । सु । वाजिनम् । देवऽजूतम् । सहऽवानम् । तरुऽतारम् । रथानाम् । अरिष्टऽनेमिम् । पृतनाजम् । आशुम् । स्वस्तये । तार्क्ष्यम् । इह । हुवेम ॥ १०.१७८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 178; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में आकाश में विद्युन्मयवायु मेघों को पृथिवी पर वर्षाता है, विद्युन्मय वायु को आश्रित कर वायुयान उड़ते हैं, वह होम यथाविधि करना चाहिये, इत्यादि विषय वर्णित हैं।

    पदार्थ

    (त्यम्-उ सु) उस अवश्य सुन्दर (वाजिनम्) बहुत अन्नवाले-बहुत अन्न के निमित्तभूत जलवाले या बहुत अन्नप्रदशक्तिवाले (देवजूतम्) देवों का गमन जिसके आश्रय पर है, उस ऐसे (सहावानम्) साहसवाले-बलवान् (रथानां तरुतारम्) मेघदलों के तरानेवाले-नीचे प्रेरितकर्त्ता (अरिष्टनेमिम्) अहिंसित वज्रवाले-अप्रतिबद्ध प्रहारवाले (पृतनाजम्) संग्राम जीतनेवाले (आशुम्) व्यापनशील (तार्क्ष्यम्) विद्युद्युक्त वायु को (इह) इस अवसर पर (स्वस्तये हुवेम) अपने कल्याण के लिए सुसम्पन्न करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    विद्युत् से युक्त वायु अन्न के निमित्त जल भरे मेघों को ताड़ित करके नीचे गिरा देता है, उसे सुखदायक बनाने के लिए होम द्वारा सुसम्पन्न करना चाहिये, जिससे वृष्टि-जल गुणवाला बरसे ॥१॥

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    विषय

    अरिष्टनेमि-तार्क्ष्य

    पदार्थ

    [१] (इह) = इस जीवन में (स्वस्तये) = कल्याण के लिये, उत्तम स्थिति के लिये (तार्क्ष्यम्) = उस गतिशील प्रभु को (आहुवेम) = पुकारें । (त्यम्) = उस प्रभु को जो (वाजिनम्) = शक्तिशाली हैं, (देवजूतम्) = [देवेषु जूतं प्रेरणं यस्य] सब देवों में देवत्व को प्रेरित करते हैं 'तेन देवा देवतामग्र आयन्' । (उ) = और (सु) = अच्छी प्रकार (सहावानम्) = सहस्वाले हैं, (रथानां तरुतारम्) = हमारे इन शरीर - रथों को यात्रा की पूर्ति के करानेवाले हैं । [२] वे प्रभु (अरिष्टनेमिम्) = अहिंसित परिधिवाले हैं, प्रभु के नियम अटल हैं। (पृतनाजम्) = शत्रुसैन्यों को परे फेंकनेवाले हैं तथा अशुम् सर्वव्याप्त [ अशू व्याप्तौ ] व शीघ्रता से कार्य करनेवाले हैं [आशु शीघ्र ] । इन प्रभु को हम कल्याण के लिये पुकारते हैं । प्रभु को इन नामों से पुकारने का भाव यही है कि हम भी ऐसे ही बनें। शक्तिशाली बनें, सूर्य, वायु आदि देवों से प्रकाश व गति आदि की प्रेरणा लेनेवाले हों । 'सहस्' वाले बनें, शरीररस्थ को लक्ष्य की ओर ले चलें। जीवन की मर्यादाओं को तोड़ें नहीं, काम-क्रोध आदि की सेना को दूर भगानेवाले हों, शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले हों । सदा गतिशील बनें। यही कल्याण का मार्ग है।

    भावार्थ

    भावार्थ- गतिशील व अहिंसित मर्यादावाला बनना ही कल्याण प्राप्ति का मार्ग है।

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    विषय

    तार्क्ष्य। विद्युत्-तत्त्व का निरूपण। पक्षान्तर में योग्य नेता का वर्णन।

    भावार्थ

    (त्यं) उस (वाजिनं) बल, वेग, ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त, (देव-जूतम्) विद्वानों द्वारा प्रेरित वा सेवित, (सह-वानम्) बलवान् (रथानाम्) अति शीघ्र जाने वाले, रथों के (अरिष्ट-नेमिम्) कभी नष्ट न होने वाले, स्थिर रथ वा चक्र धारा के सदृश लेजाने के बल वाले (पृतनाजम्) सम्पूर्ण सेना को एक तरफ पछाड़ देने वाले, (आशुम्) अतिशीघ्र व्यापक, (तार्क्ष्यम्) अतिहिंसक, बलशाली वेगवान् तत्व, विद्युत् को (इह) यहां हम अपने कार्यकर्ता पुरुष के तुल्य ही (हुवेम) अच्छी प्रकार प्रयोग करें और उसका अन्यों को उपदेश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिररिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः॥ देवता—तार्क्ष्यः॥ छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते आकाशे विद्युन्मयो वायुर्वर्तते स मेघान् नीचै वर्षति तथा विद्युन्मयं वायुमाश्रित्य वायुयानानि खलूड्डीयन्ते स होमो सुसंस्कृतः कार्य इत्यादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (त्यम्-उ सु वाजिनम्) तमवश्यं सुसमीचीनं भृशमन्नवन्तम् “वाजिनं भृशमन्नवन्तम्” [निरु० १०।२८] बह्वन्नस्य निमित्तमुदकवन्तं बह्वन्नप्रदशक्तिमन्तं वा (देवजूतम्) देवानां जूतं गमनं यस्मिन् तथाविधम् (सहावानम्) सहस्वन्तं बलवन्तं “सहावानं सहस्वन्तम्” [निरु० १०।२८] (रथानां तरुतारम्) देवरथानां मेघदलानां तारयितारं गमयितारं नीचैः प्रेरयितारम् (अरिष्टनेमिम्) अहिंसितवज्रम् “नेभिः-वज्रनाम” [निघ० २।२०] अप्रतिबद्धप्रहारम् (पृतनाजम्) सङ्ग्रामजितमिव (आशुम्) व्यापनशीलम् (तार्क्ष्यम्) विशिष्टवायुम्-विद्युन्मिश्रितवायुम् “वायुर्वै तार्क्ष्यः” [सां० ब्रा० ३०।५] (इह स्वस्तये हुवेम) अस्मिन्नवसरे स्वकल्याणाय ह्वयेम सुखसम्पन्नं कुर्मः ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the sake of good and all round well being of life, we invoke and study that wind and electric energy of the middle regions which is fast and victorious, moved by divine nature, powerful, shaker of the clouds and energiser of sound waves, inviolable, war-like heroic and most dynamic, moving at the speed of energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्युतने युक्त वायू जलाने भरलेल्या मेघांना अन्नानिमित्त ताडित करून खाली पडतो. तो सुखदायक व्हावा यासाठी होमाद्वारे सुसंपन्न केले पाहिजे. ज्यामुळे वृष्टिजलाची गुणवत्ता वाढून ते बरसावे. ॥१॥

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