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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः देवता - मृत्यु छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    परं॑ मृत्यो॒ अनु॒ परे॑हि॒ पन्थां॒ यस्ते॒ स्व इत॑रो देव॒याना॑त् । चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते॑ ब्रवीमि॒ मा न॑: प्र॒जां री॑रिषो॒ मोत वी॒रान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पर॑म् । मृ॒त्यो॒ इति॑ । अनु॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । पन्था॑म् । यः । ते॒ । स्वः । इत॑रः । दे॒व॒ऽयाना॑त् । चक्षु॑ष्मते । शृ॒ण्व॒ते । ते॒ । ब्र॒वी॒मि॒ । मा । नः॒ । प्र॒ऽजाम् । रि॒रि॒षः॒ । मा । उ॒त । वी॒रान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परं मृत्यो अनु परेहि पन्थां यस्ते स्व इतरो देवयानात् । चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा न: प्रजां रीरिषो मोत वीरान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परम् । मृत्यो इति । अनु । परा । इहि । पन्थाम् । यः । ते । स्वः । इतरः । देवऽयानात् । चक्षुष्मते । शृण्वते । ते । ब्रवीमि । मा । नः । प्रऽजाम् । रिरिषः । मा । उत । वीरान् ॥ १०.१८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में मुमुक्षुओं की मोक्षप्राप्ति, और संसारी जनों की संसारप्रवृत्ति वर्णित है।

    पदार्थ

    (मृत्यो) हे मारनेवाले काल ! (परं पन्थाम् अनुपरेहि) अन्य मार्ग की ओर जा (यः-ते) जो तेरा मार्ग है (देवयानात्) मुमुक्षुयान से भिन्न पितृयाण, जहाँ साधारणजन पुनर्जन्मार्थ माता पिताओं को प्राप्त होते हैं (चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि) आँखवाले सुनते हुए तेरे लिए कहता हूँ “यह कथन आलङ्कारिक ढंग से है।” (नः-प्रजां मा रीरिषः मा-उत वीरान्) देवयान की ओर जानेवालों की इन्द्रियों को मत नष्ट कर और न हमारे प्राणों को नष्ट कर ॥१॥

    भावार्थ

    मारनेवाला काल पुनः-पुनः जन्मधारण करनेवाले साधारण जनों को पुनः-पुनः मारता रहता है, परन्तु देवयान-मोक्षमार्ग की ओर जानेवाले मुमुक्षुओं को पुनः-पुनः या मध्य में नहीं मारता, उन्हें पूर्ण अवस्था प्रदान करता है ॥१॥

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    विषय

    मृत्यु का मार्ग

    पदार्थ

    [१] हे मृत्यो = मृत्यु - देवते ! तू परं पन्थाम् - सुदूर मार्ग को अनु-लक्ष्य करके परेहि- हमारे से दूर चलीजा । उस मार्ग पर जा यः -जो कि ते-तेरा स्वः - अपना है। देवयानात् इतर:-जो देवयान से भिन्न मार्ग है। देवताओं का मार्ग 'देवो दानात्' देने का है, देव देकर खाते हैं। इनसे विपरीत असुर हैं, जो कि सारे का सारा अपने मुख में डाल लेते हैं [ स्वेषु आस्येषु जुह्वतश्चेति सः ] देवताओं का मार्ग 'देवो दीपनाद्वाद्योतनाद्वा' ज्ञान का मार्ग है, इस मार्ग में स्वाध्याय व प्रवचन को प्रमुखता प्राप्त है, असुरों के मार्ग में 'खाने-पीने व भोग' की प्रमुखता है । सो मृत्यु ने वहीं आना है जहाँ स्वार्थ है, जहाँ भोग का प्राधान्य है । [२] मृत्यु को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि चक्षुष्मते शृण्वते-देखती व सुनती ते-तेरे लिये ब्रवीमि मैं यह कहता हूँ कि तू नः प्रजाम् - हमारी प्रजा को मा रीरिषः = मत हिंसित कर, उत=और वीरान् मा- हमारी वीर सन्तानों का तू अन्त करनेवाली न हो। हमारी सन्तानें हमारे सामने जीवन को समाप्त कर न चली जायें। पीछे आने से उन्हें पहले जाने का अधिकार ही नहीं है। उनका पहले जाना तो अँधेर ही है। भावार्थ- हम देवयान मार्ग से चलें। स्वार्थ व भोग से ऊपर उठें। स्वार्थ व भोग का मार्ग ही मृत्यु का मार्ग है।

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    विषय

    मृत्यु। दीर्घजीवन का उद्देश्य। देवयान और पितृयाण मार्ग।

    भावार्थ

    हे (मृत्यो) मरणशील पुरुष ! तू (परं पन्थाम्) सब से उत्तम मार्ग का (अनु इहि, परा इहि) अनुसरण कर और दूर दीर्घकाल तक जा। तू उस मार्ग का ग्रहण कर (यः ते स्वः) जो तेरा अपना अभिमत है और (देव-यानात् इतरः) देव, तेजस्वी आदित्य ब्रह्मचारी, सर्वविजयी, मुमुक्षुओं से जाने योग्य मोक्ष मार्ग से अतिरिक्त है। (चक्षुष्मते) आंख वाले, और (शृण्वते) सुनने वाले (ते ब्रवीभि) तुझे उपदेश करता हूँ कि तू (नः प्रजां मा रीरिषः) हमारी संतान का नाश न कर (उत मा वीरान्) और पुत्रों वा प्राणों का भी नाश न कर।

    टिप्पणी

    चतुर्थ चरण में अथर्ववेद (१२। २। २१) में ‘इहेमे वीराः बहवो भवन्तु’ पाठ है। यहां ये बहुत से पुत्र हों। फलतः देवयान मार्ग अर्थात् अमृतमय मोक्ष-मार्ग से जाने में असमर्थ पुरुष मृत्यु-मार्ग वा पितृयाण मार्ग से जाता है। वही मृत्यु है। तो भी वह लोक में सबसे उत्तम गृहस्थ मार्ग का अवलम्बन करे, दीर्घ से दीर्घ जीवन व्यतीत करे जिससे उत्तम २ अगली संतानें हों और वे भी दीर्घजीवी हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते मुमुक्षूणां मोक्षप्रापणं तद्भिन्नानां संसारप्रवृत्तिश्च वर्ण्येते ॥

    पदार्थः

    (मृत्यो) हे मारयितः काल ! ‘मृत्युः मारयतीति सतः” [निरु०११।७] (परं पन्थाम्-अनुपरेहि) अन्यं पन्थानं प्रति प्राप्नुहि (यः ते) यः पन्थास्ते तवास्ति (देवयानात्) मुमुक्षुयानाद्भिन्नः पितृयाणः यत्र पुनर्जन्मार्थं मातापितरौ प्राप्नुवन्ति साधारणा जनाः (चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि) चक्षुष्मते शृण्वते तुभ्यं ब्रवीमि-इति त्वालङ्कारिकं कथनम् (नः प्रजां मा रीरिषः-मा-उत वीरान्) अस्माकं देवयानमार्गिणामिन्द्रियाणि मा हिंसीः “इन्द्रियं प्रजाः” [का०२७।२] नापि प्राणान् नाशय “प्राणा वै वीराः” [श०९।४।३।१०] ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Death, go off to that other path that’s yours, of mutability other than the path of divinity. You have eyes to see and ears to hear, and to you I say: Do not hurt our people, do not destroy our brave.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मारणारा काल पुन्हा पुन्हा जन्म धारण करणाऱ्या सामान्य लोकांना पुन्हा पुन्हा मारतो; परंतु देवयान मोक्षमार्गाकडे जाणाऱ्या मुमुक्षूंना पुन्हा पुन्हा किंवा मध्येच मारत नाही. त्यांना पूर्ण अवस्था प्रदान करतो. ॥१॥

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