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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 181/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रथो वासिष्ठः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रथ॑श्च॒ यस्य॑ स॒प्रथ॑श्च॒ नामानु॑ष्टुभस्य ह॒विषो॑ ह॒विर्यत् । धा॒तुर्द्युता॑नात्सवि॒तुश्च॒ विष्णो॑ रथंत॒रमा ज॑भारा॒ वसि॑ष्ठः ॥
स्वर सहित पद पाठप्रथः॑ । च॒ । यस्य॑ । स॒ऽप्रथः॑ । च॒ । नाम॑ । आनु॑ऽस्तुभस्य । ह॒विषः॑ । ह॒विः । यत् । धा॒तुः । द्युता॑नात् । स॒वि॒तुः । च॒ । विष्णोः॑ । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । आ । ज॒भा॒र॒ । वसि॑ष्ठः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रथश्च यस्य सप्रथश्च नामानुष्टुभस्य हविषो हविर्यत् । धातुर्द्युतानात्सवितुश्च विष्णो रथंतरमा जभारा वसिष्ठः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रथः । च । यस्य । सऽप्रथः । च । नाम । आनुऽस्तुभस्य । हविषः । हविः । यत् । धातुः । द्युतानात् । सवितुः । च । विष्णोः । रथम्ऽतरम् । आ । जभार । वसिष्ठः ॥ १०.१८१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 181; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 39; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमेश्वर ने अग्नि वायु सूर्य अङ्गिरा ऋषियों में वेद को प्रेरित किया, उनसे ब्रह्मा ने पढ़ा, गुरुशिष्यपरम्परा ब्रह्मा से चल पड़ी, आदि विषय हैं।
पदार्थ
(आनुष्टुभस्य यस्य) अनुष्टुप् वेदवाक् उसके वेदस्वामी ईश्वर के (यस्य हविषः) जिस आदेय ग्रहण करने योग्य वेद का (हविः) विज्ञान (प्रथः सप्रथः-च) उस वेदज्ञान में प्रथनशील शिष्य और शिष्य को बनानेवाला गुरु (वसिष्ठः) वेदवाणी में अत्यन्त बसा हुआ विद्वान् ब्रह्मा (धातुः) मन्त्रद्रष्टा अग्नि से (द्युतानात्) वायु ऋषि से (सवितुः) आदित्य ऋषि से (विष्णोः) अङ्गिरा ऋषि से (रथन्तरं जभार) वेदवाणी को ब्रह्मा अध्ययन करके धारण करता है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर की वेदवाणी, जो सारे ज्ञान-विज्ञानों का भण्डार है, उसका अध्ययन और अध्यापन प्रारम्भ सृष्टि से चला है, अग्नि वायु आदित्य और अङ्गिरा ये चार ऋषि वेदवाणी के प्रथम गुरु, इनसे अध्ययन करनेवाला ब्रह्मा, जो इनका अध्ययन करके अपने अन्दर धारण करता है, वह इनका शिष्य हुआ, पुनः ब्रह्मा से गुरु-शिष्यपरम्परा चालू हुई ॥१॥
विषय
प्रथ वासिष्ठ
पदार्थ
[१] (वसिष्ठः) = अतिशयेन (वसुमान्) = सब वसुओं को धारण करके अपने जीवन को उत्तम बनानेवाला यह वसिष्ठ, (यस्य नाम) = जिसका नाम (प्रथः च) = प्रथ है, शक्तियों का विस्तार करनेवाला है, (च) = और (सप्रथः) = जो सप्रथ है, परमात्मा के समान विस्तारवाला बना है, यह (धातुः) = सबका धारण करनेवाले प्रभु से (द्युतानात्) = ज्ञान - ज्योति का विस्तार करनेवाले से (सवितुः) = सबके प्रेरक (विष्णोः) = व्यापक, अत्यन्त उदार प्रभु से (रथन्तरं आजभार) = ' रथन्तरं साम्नां प्रतिष्ठा' [ताण्ड्य ९।३।४] साम मन्त्रों द्वारा उपासना को प्राप्त करता है । 'सामवेद' उपासना वेद है, प्रभु ने इस सामवेद के द्वारा इस वसिष्ठ को उपासना का मार्ग दिखाया है । वसिष्ठ 'रथन्तर' साम द्वारा प्रभु का उपासन करता है, यह उपासना उसके शरीर रथ को भवसागर को पार करने का साधन बनाती है। [२] यह वसिष्ठ उस प्रभु से (आनुष्टुभस्य) = ' अनुष्टुप् सोमस्य छन्दः' [कौ० १५ । २] सोम के छन्द अनुष्टुप् का ग्रहण करता है। अनुष्टुप् छन्द से प्रभु का स्तवन करता हुआ यह वासना को दूर करके सोम का रक्षण कर पाता है [अनुष्टौति अनेन इति अनुष्टुप्] इसीलिए अनुष्टुप् को सोम का छन्द कहा है। [३] यह वसिष्ठ यत्-जो हविषः हविः - हवि की भी हवि है उसका ग्रहण करता है, अर्थात् अत्यन्त त्यागशील होता है, सदा दान देकर बचे हुए को खानेवाला होता है। एवं यह वसिष्ठ प्रभु से उपासना, सोम के रक्षण व त्यागवृत्ति को ग्रहण करता है और वसिष्ठ बनकर खूब ही अपनी शक्तियों को विस्तृत करता है, 'प्रथ' होता है। यह प्रथ [क] धारण करनेवाला होता है, [ख] ज्ञान का विस्तार करता है, [ग] सन्मार्ग की औरों को प्रेरणा देनेवाला बनता है, [घ] उदार होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उपासना, सोमरक्षण व दानवृत्ति को अपनाते हुए अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले 'प्रथ' बनें ।
विषय
विश्वदेव। मेघ से विद्युत् आदि प्राप्ति का उपदेश। ज्ञान- पक्ष में गुरु से विद्या प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(वसिष्ठः) सब बसने वालों में सब से उत्तम, प्रजाओं में राजा के तुल्य विद्वान् पुरुष, (द्युतानात्) चमकने वाले और (धातुः) धारण पोषण करने वाले मेघ से (विष्णोः च सवितुः) विविध जलों को बहाने वाले, सर्वप्रेरक सूर्य से, (रथन्तरं) अति वेग से युक्त ऐसे साधन विद्युत् आदि को (आ जभार) प्राप्त करे। (यस्य नाम) जिसका नाम या स्वरूप वा बल (प्रथः च सप्रथः च) विस्तृत और समान रूप से विस्तृत करने वाला है। और (यत्) जो (आनुष्टुभः हविषः हविः) प्रतिस्तम्भन अर्थात् रोकने वाले (हविषः) साधनों में (हविः) उत्तम ग्रहण करने योग्य है। ज्ञान-पक्ष में—(वसिष्ठः) उत्तम वसु ब्रह्मचारी विद्वान् (धातुः द्युतानात्) तेजस्वी पोषक गुरु से और (विष्णोः च सवितुः) पिता के तुल्य विद्वान् से (रथन्तरम्) उत्तम २ उपदेश ग्रहण करे। जिसका नाम, रूप (प्रथः सप्रथः च) विस्तृत और सव्याख्यान है, और (अनुष्टुभस्य हविषः हविः) प्रतिदिन उपदेश योग्य ज्ञान का परम ग्राह्य रूप है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः प्रथो वासिष्ठः। २ संप्रथो भारद्वाजः॥ ३ धर्मः सौर्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते वेदः परमेश्वरेण खल्वग्निवायुसूर्याङ्गिरःसु प्रेरितः, तेभ्यः खलु ब्रह्माऽधीतधान् स चान्यानध्यापयामास तदनन्तरं गुरुशिष्यपरम्परा प्रचलिता।
पदार्थः
(आनुष्टुभस्य यस्य हविषः-हविः) प्रथमा वाग्वेदः “वागेवासौ प्रथमाऽनुष्टुप्” [कौ० १५।३] तस्य वेदस्य स्वामी परमेश्वरस्तस्य-वेदस्वामिनः-यस्य-आदेयस्य विज्ञानस्य वेदस्य “हविः-आदेयं विज्ञानम्” [ऋ० १।१०१।८ दयानन्दः] यद् विज्ञानम् (प्रथः सप्रथः-च वसिष्ठः) वेदविज्ञाने प्रथनशीलः प्रथः अन्यं प्रथनशीलं शिष्यं सम्पादयिता स सप्रथः, एवमतिशयेन वेदवाचि कृतवासः-आदिविद्वान् ब्रह्मा (धातुः-द्युतानात् सवितुः-विष्णोः) अग्नेः “अग्निर्वै द्रष्टा धाता” [तै० ३।३।१०।२] वायोः “यो वाऽयं वायुः पवते एष द्युतानः” [श० ३।६।१।१६] सूर्यात् “असावादित्यो देवः सविता” [श० ६।३।१।१८] अङ्गिरसः, एषां सकाशात् (रथन्तरं जभार) वेदवाचम् “वाग्वै रथन्तरम्” [ऐ० ४।२८] बिभर्ति धारयति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Vasishtha, the most brilliant seeker and teacher, a man of versatile mind and boundless possibilities who was gifted with a radiative spirit and passion for enlightenment, received the pure, applied, beatific and life giving Word of the Veda, the first, original and eternal gift of the lord of omniscience into his yajna of cosmic creation, from Agni, sustainer of the light of knowledge, Vayu, vibrant sage with passion and strong will, Savita, i.e., Aditya, brilliant and inspiring like the sun, and Angiras, the sage inspiring as omnipresent Vishnu and breath of life.$(This Vasishtha, the brilliant disciple of the four sages, Agni, Vayu, Aditya and Angira, who then became the teacher of the Vedas, was Brahma. Swami Brahmamuni explains this interpretation of this mantra in his commentary on Rgveda and cites authoritative evidence from the Brahmana works. Swami Dayanand explains the cosmic process of creative evolution and Vedic revelation in his Introduction to his Commentary on the Vedas, Rgvedadi Bhashya Bhumika, saying on Vedic and ancient authority that the Vedas were first revealed to four sages: Rgveda to Agni, Yajurveda to Vayu, Samaveda to Aditya, and Atharva veda to Angira. Brahma, the brilliant disciple and later the inspired teacher, learnt the Veda from these four sages and passed on this knowledge to his disciples.)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची वेदवाणी जी संपूर्ण ज्ञान-विज्ञानाचे भांडार आहे. तिचे अध्ययन व अध्यापन सृष्टी निर्माण झाल्यापासून चालत आलेले आहे. अग्नी, वायू, आदित्य व अंगिरा हे चार ऋषी वेदवाणीचे प्रथम गुरू होते. त्यांच्याकडून अध्ययन करणारा ब्रह्मा वेदवाणी आपल्यामध्ये धारण करतो. तो त्यांचा शिष्य होता. पुन्हा ब्रह्मापासून गुरू शिष्य परंपरा चालू झाली. ॥१॥
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