साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 188/ मन्त्र 1
प्र नू॒नं जा॒तवे॑दस॒मश्वं॑ हिनोत वा॒जिन॑म् । इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नू॒नम् । जा॒तऽवे॑दसम् । अश्व॑म् । हि॒नो॒त॒ । वा॒जिन॑म् । इ॒दम् । नः॒ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम् । इदं नो बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । नूनम् । जातऽवेदसम् । अश्वम् । हिनोत । वाजिनम् । इदम् । नः । बर्हिः । आऽसदे ॥ १०.१८८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 188; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा सर्वज्ञ सर्वसुखदाता तथा अग्नि अपने प्रकाश और ताप से यन्त्रयानों को चलाता है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(जातवेदसम्) जात-उत्पन्न हुओं को जो जानता है, उस परमात्मा को या जात-उत्पन्न हुए को सब जानते हैं प्रकाश और ताप से उस अग्नि को तथा जिससे ज्ञात प्राप्त होता है वित्त धन उसकी कृपा से उस परमात्मा को या किसी भी यन्त्रयान में युक्त करने से धन प्राप्त होता है, उस अग्नि को (अश्वम्) व्यापक परमात्मा को या प्रगतिशील अग्नि को कर्मों द्वारा अश्व की भाँति यन्त्रयान को आगे जानेवाले को (वाजिनम्) अमृतान्न भोग दिलानेवाले परमात्मा को या साधारण अन्न दिलानेवाले अग्नि को (नूनम्) अवश्य (प्र-हिनोत) प्रकृष्टरूप में तृप्त करो-या प्राप्त करो तथा प्रेरित करो (नः) हमारे (इदं बर्हिः) इस हृदयाकाश में (आसदे) बैठने को या इस विस्तृत स्थान स्थल जल गगन को अग्नि प्राप्त करे ॥१॥
भावार्थ
उत्पन्नमात्र वस्तु को जाननेवाले तथा उसकी कृपा से धन भोग प्राप्त किया जाता है, उस व्यापक अमृतान्नभोग देनेवाले परमात्मा को स्तुति द्वारा प्रसन्न कर अपने हृदय में आमन्त्रित करना चाहिये एवं जो अपने प्रकाश और ताप से उत्पन्न होते ही जाना जाता है और जिससे किसी यन्त्रयान में प्रयुक्त करने पर धन अन्न प्राप्त होता है, उसे यन्त्रयान में प्रयुक्त करके अश्व घोड़े की भाँति चलानेवाले अग्नि को प्रयुक्त करना चाहिये ॥१॥
विषय
ज्ञान-कर्म-शक्ति
पदार्थ
[१] (नूनम्) = निश्चय से उस प्रभु को (प्र हिनोत) = प्रकर्षेण प्रेरित करो, उस प्रभु से प्रार्थना करो, जो कि (जातवेदसम्) = [जाते जाते विद्यते] सर्वव्यापक हैं, [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ हैं अथवा [जातं वेदो अस्मात्] सम्पूर्ण धनों को जन्म देनेवाले हैं। (अश्वम्) = सर्वत्र व्याप्त हैं [अशू व्याप्तौ] । (वाजिनम्) = शक्तिशाली हैं । [२] (इदम्) = यह (नः) = हमारा (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय, जिसमें से सब वासनाओं को उखाड़ दिया गया है, वह हृदय (आसदे) = प्रभु के आसीन होने के लिये है । सर्वत्र व्यापकता के नाते सर्वत्र हैं, मेरे हृदय में भी है। उनको आसीन करने का भाव इतना ही है कि हम हृदय में प्रभु का दर्शन करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम हृदय को प्रभु का आसन बनायें। प्रभु हमें ज्ञान देंगे, कर्मसामर्थ्य देंगे और शक्ति प्राप्त करायेंगे ।
विषय
जातवेदा अग्नि। आत्मा और परमात्मा की उपासना।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! (नूनं) अवश्य आप लोग (जातवेदसम्) उत्पन्न शरीर को धन के समान प्राप्त करने और भोगने वाले, (वाजिनम्) बलशाली, ज्ञानी, (अश्वम्) अश्व के तुल्य उसे ढोने और उसके भोक्ता आत्मा को (प्र हिनोत) बढाओ, उसकी स्तुतियां करो। (इदं) यह (नः) हमारा (बर्हिः) वृद्धिशील देह ही उसके (आसदे) विराजने के आसन के तुल्य स्थान है। (२) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में व्यापक और उसको जानने वाला प्रभु भी ‘जातवेदाः’ है। समस्त बलों, ऐश्वर्यों के स्वामी होने से वाजी और व्यापक और संञ्चालक होने से ‘अश्व’ है। विद्वान् लोग उसकी स्तुति करें। उसके विराजने के लिये ये (बर्हिः) समस्त लोक ही आसनवत् हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः श्येन आग्नेयः॥ देवता—अग्निर्जातवेदाः॥ गायत्री छन्दः॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते परमात्मा सर्वज्ञः सर्वसुखप्रदाता च तथा अग्निः स्वप्रकाशेन तापेन च विविधयन्त्रयानानि चालयतीत्यादयः विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(जातवेदसम्) जातानि यो वेद तं परमात्मानं यद्वा जातं यं सर्वे जानन्ति प्रकाशेन तापेन च तं जातं प्राप्तं भवति वित्तं धनं यत्कृपया यद्वा कस्मिंश्चिद् यन्त्रे याने यस्मात् प्रयुज्यमानात् तं जातवेदसम् (अश्वम्) व्यापकं यद्वा प्रगतिशीलं कर्मभिरश्वमिव यन्त्रयानमग्रेऽग्रे वहन्तम् (वाजिनम्) अमृतान्नभोगवन्तम् “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१।९३] परमात्मानं यद्वाऽन्नवन्तमन्नप्रदम् (नूनं प्रहिनोत) अवश्यं यूयं प्रकृष्टं प्रीणयत प्राप्नुत “हिन्वन्ति प्रीणयन्ति” [ऋ० १।१४४।५ दयानन्दः] “हिन्वन्ति-आप्नुवन्ति” [निरु० १।२०] प्रेरयत वर्धयत वा यूयं वैज्ञानिकाः (नः-इदं बर्हिः-आसदे) अस्माकमिदं हृदयान्तरिक्षे “बर्हिः अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] आसीदितुं परमात्मा यद्वा-इदं भूमस्थानं विस्तृतस्थानं स्थलजलगगनरूपम् “भूमा वै बर्हिः” [श० १।५४।४] अग्निरासीदतु ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Invoke, kindle and delightfully feed Agni, all known, all knowing and all pervasive power and energy, sure achiever, all reacher and winner of victory. May this Agni grace the vedi of our yajna and lead our endeavour to success.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्रत्येक वस्तूला जाणणारा असून, त्याच्या कृपेने धन व भोग प्राप्त होतात. त्या व्यापक अमृतान्न भोग देणाऱ्या परमात्म्याला स्तुतीद्वारे प्रसन्न करून आपल्या हृदयात आमंत्रित केले पाहिजे. जो प्रकाश व ताप यामुळे जाणला जातो व ज्याला एखाद्या यंत्रयानात प्रयुक्त करण्याने अन्न व धन प्राप्त होते. त्या अश्वाप्रमाणे चालविणाऱ्या अग्नीला यंत्रयानात युक्त करावे. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal