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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 189 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 189/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सार्पराज्ञी देवता - सार्पराज्ञी सूर्यो वा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः । पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्व॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । गौः । पृश्निः॑ । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒रः । पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्वरिति॑ स्वः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्व: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । गौः । पृश्निः । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुरः । पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व१रिति स्वः ॥ १०.१८९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 189; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 47; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में पृथिवी पूर्व दिशा में गति करती है, सूर्य की परिक्रमा भी करती है, सूर्य की ज्योति उदय से अस्तपर्यन्त द्युलोक पृथिवीलोक को तपाती है, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (आ अयम्) यह पृथिवीलोक (पुरः-अक्रमीत्) पूर्वदिशा में-पूर्व की ओर गति करता है (च) और (पितरं स्वः) पितारूप सूर्य के (प्रयन्) सब ओर गति करता हुआ (मातरं पृश्निम्) मातारूप अन्तरिक्ष को (असदत्) प्राप्त होता है ॥१॥

    भावार्थ

    पृथिवी पूर्व की ओर घूमती है और सूर्य के चारों ओर आकाश में गति करती है ॥१॥

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    विषय

    कुण्डलिनी का जागरण व ऊर्ध्व गति

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह (गौ:) = जागरित होने पर मेरुदण्ड में ऊपर और ऊपर गति करनेवाली कुण्डलिनी, (पृश्नि:) = [ संस्प्रष्टो भासा नि० २।१४ ] ज्योति के साथ सम्पर्कवाली होती है। यह प्राणायाम की उष्णता से (अक्रमीत्) = कुण्डल को तोड़कर आगे गति करती है । [२] यह (पुरः) = आगे और आगे बढ़ती हुई (मातरम्) = वेदमाता को 'स्तुता मया वरदा वेदमाता' (असदत्) = प्राप्त करती है, इसके जागरण व ऊर्ध्व गति के होने पर 'ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा' ऋत का पोषण करनेवाली प्रज्ञा उत्पन्न होती है। यह प्रज्ञा वेदज्ञान का प्रकाश करती हैं। [३] (च) = और इस वेदज्ञान के प्रकाश के होने पर यह (स्वः) = उस देदीप्यमान (पितरम्) = प्रभु रूप पिता की ओर (प्रयन्) = जानेवाली होती है। अर्थात् यह योगी अन्ततः प्रभु का दर्शन करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - कुण्डलिनी के जागरण से बुद्धि का प्रकाश होता है। उससे वेदार्थ का स्पष्टीकरण होता है और प्रभु की प्राप्ति होती है ।

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    विषय

    सार्पराज्ञी और सूर्य। चन्द्र, पृथिवी आदि लोकों का भ्रमण। उनकी गोवत्सादि से उपमा। अध्यात्म में ज्ञानार्थी को प्रभु की शरण ग्रहण।

    भावार्थ

    (अयं) यह (गौः) गमनशील, नित्य गतिमान् भूलोक सूर्य-लोक, चन्द्र-लोक आदि (पृश्निः) आकाश में (आ अक्रमीत्) सब ओर भ्रमण कर रहा है, और (पुरः मातरम् असदत्) आगे के अपने मातृतुल्य महान् आकाश में विराजता है, और अपने (पितरं) पिता तुल्य (स्वः) महान् प्रेरक, सूर्यवत् अपने से बड़े लोक की (प्र-यन्) परिक्रमा करता है। आकाशस्थ समस्त पिण्ड गतिमान् होने से ‘गौ’’ हैं, उनमें से प्रत्येक आकाश में आगे बढ़ता दीखता है, आकाश में ऐसे विराजता है जैसे माता की गोद में बच्चा। और वह भी किसी न किसी अपने से महान् की, पिता की बालकवत् परिक्रमा करता है। चन्द्र और पृथिवी, सूर्य और सौर-जगत् अपने से भी महान् किसी प्रेरक की परिक्रमा करता है। यही बात अन्य ग्रहों, उपग्रहों और सोपग्रह-ग्रह सहित सौर, मण्डलों के विषय में भी जानना चाहिये। (२) अध्यात्म वा अधिविद्य में—(अयं पृश्निः) यह प्रश्नशील जिज्ञासु जन (गौः) ज्ञानार्थी होकर (आ अक्रमीत्) परिक्रमा करे। (मातरं) ज्ञानदाता गुरुरूप माता के (पुरः असदत्) आगे विराजे और इसी (स्वः) प्रकाश स्वरूप, उपदेष्टा गुरु को (पितरं प्रयन्) पिता के तुल्य जान कर प्राप्त करे। (३) इसी प्रकार (अयं गौः) यह ज्ञानी आत्मा (पृश्निः) प्रेममय, ज्योतिर्मय होकर आगे बढ़ता, माता प्रभु को प्राप्त होता, उसी में विराजता है, उसी मोक्षमय पिता, पालक प्रभु को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सार्पराज्ञी। देवता—सार्पराज्ञी सूर्यो वा॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २ विराड् गायत्री। ३ गायत्री॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते पृथिवी पूर्वस्यां दिशि गतिं करोति सूर्यस्य परितश्च भ्रमति, सूर्यस्य ज्योतिरुदयास्तयोर्मध्ये द्यावापृथिव्यौ तपति, इत्यादि विषया वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (अयं गौः) एष पृथिवीलोकः “गौः-पृथिवीनाम” [निघ० १।१] (पुरः आक्रमीत्) पूर्वस्यां दिशि-पूर्वाभिमुखमाक्रामति (पितरं च स्वः प्रयन्) पितरं  पितृवत्सूर्यम् “स्वः-आदित्यो भवति” [निरु० २।१४] परितो गच्छन् (मातरं पृश्निम्-असदत्) मातरमन्तरिक्षं “मातरि अन्तरिक्षे” [निरु० ७।२७] “पृश्निः-अन्तरिक्षम्’ [ऋ० ४।३।२० दयानन्दः] सीदति ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This earth moves round and round eastward abiding in its mother waters of the firmament and revolves round and round its father sustainer, the sun in heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पृथ्वी पश्चिमेकडून पूर्व दिशेला फिरते, गती करते व आकाशात सूर्याच्या भोवती गती (परिभ्रमण) करते. ॥१॥

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