ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
ऋषिः - मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनों वा भार्गवः
देवता - आपो गावो वा, अग्नीसोमौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
नि व॑र्तध्वं॒ मानु॑ गाता॒स्मान्त्सि॑षक्त रेवतीः । अग्नी॑षोमा पुनर्वसू अ॒स्मे धा॑रयतं र॒यिम् ॥
स्वर सहित पद पाठनि । व॒र्त॒ध्व॒म् । मा । अनु॑ । गा॒त॒ । अ॒स्मान् । सि॒स॒क्त॒ । रेवतीः । अग्नी॑षोमा । पु॒न॒र्व॒सू॒ इति॑ पुनःऽवसू । अ॒स्मे इति॑ । धा॒र॒य॒त॒म् । र॒यिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि वर्तध्वं मानु गातास्मान्त्सिषक्त रेवतीः । अग्नीषोमा पुनर्वसू अस्मे धारयतं रयिम् ॥
स्वर रहित पद पाठनि । वर्तध्वम् । मा । अनु । गात । अस्मान् । सिसक्त । रेवतीः । अग्नीषोमा । पुनर्वसू इति पुनःऽवसू । अस्मे इति । धारयतम् । रयिम् ॥ १०.१९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में प्रमुखतया गौवों (इन्द्रियों) का वर्णन किया है।
पदार्थ
(रेवतीः) हे दूध आदि पोषक पदार्थ देनेवाली गौवो, प्रजाओं या इन्द्रियो ! (निवर्तध्वम्) इधर-उधर वन में चर कर लौट आवो, यात्रा को समाप्त करके फिर आ जाओ, विषयों को प्राप्त करके अपने स्थान पर स्वस्थ हो जाओ (मा-अनुगात) अन्य का अनुगमन मत करोः (अस्मान् सिषक्त) हमें दुग्धादि पदार्थों से पुनः-पुनः सींचो, राज्याभिषेक के लिए वरो, भोगों से तृप्त करो (पुनर्वसू-अग्नीषोमा) पुनः-पुनः निरन्तर बसानेवालो हे प्राण-अपान ! (अस्मे) हमारे लिए (रयिं धारयतम्) पोषण को प्राप्त कराओ ॥१॥
भावार्थ
गौओं के स्वामी के लिए गौवें पुष्कल दूध देनेवाली हों, राजा के लिए प्रजाएँ धन और बल देनेवाली हों, इन्द्रियस्वामी आत्मा के लिए इन्द्रियाँ निर्दोष भोग देनेवाली हों और वे स्व-व्यापारों का सम्पादन करके स्वस्थान पर सदा स्वस्थ रहें। ऐसे ही प्राण-अपान भी प्रत्येक प्राणी को चिर-जीवन दायक होवें ॥१॥
विषय
अग्नि व सोम
पदार्थ
[१] गत सूक्त की समाप्ति पर ये शब्द थे कि जीभ को इस प्रकार वश में करो जिस प्रकार घोड़े को लगाम से वश में करते हैं। मनु ने इसी बात को इस प्रकार कहा है कि 'यच्छेद् वाङ् मनसिज प्राज्ञः प्राज्ञ व्यक्ति वाणी को मन में रोके । यहाँ वाणी अन्य इन्द्रियों का भी प्रतीक है। हमें सब इन्द्रियों को रोकने का प्रयत्न करना है। प्रार्थना करते हैं कि हे इन्द्रियो ! (निवर्तध्वम्) = तुम इन विषयों में विचरण से वापिस आओ। मा अनुगात इन विषयों के पीछे ही सदा मत भटकती फिरो । (रेवती:) = ज्ञान धन से सम्पन्न हुई हुई तुम (अस्मान् सिषक्त) = हमारा सेवन करो। अर्थात् तुम्हारे द्वारा हमें ज्ञान का दुग्ध पीने को मिले। ज्ञानेन्द्रियाँ गौवें हैं, ज्ञान उनका दुग्ध है। [२] इस ज्ञान के अनुसार आचरण करने से (अग्नीषोमा) = अग्नितत्त्व व सोम तत्त्व हमारे लिये (पुनर्वसू) = पुन:- पुनः अर्थात् प्रतिदिन उत्तम निवास को देनेवाले हों। अग्नितत्व 'शक्ति' का प्रतीक है तो सोमतत्त्व 'शान्ति' का। हम ज्ञानी बनकर अपने जीवनों में 'शक्ति व शान्ति' का समन्वय करनेवाले बनें। [३] ये 'शक्ति व शान्ति' के तत्त्व समन्वित होकर (अस्मे) = हमारे जीवनों में (रयिं धारयतम्) = रयि को धारण करनेवाले हों। हमारे जीवनों में शक्ति हो और शान्ति हो, इनके होने पर जीवन सचमुच विभूतिवाला 'श्रीमत् व ऊर्जित' प्रतीत होता है। ये सब उस प्रभु के तेजोंश के चिह्न होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ विषयों के पीछे न चली जाएँ। जिससे हमारा जीवन ज्ञानधनवाला, शक्ति व शान्ति से सम्पन्न - ऐश्वर्यमय हो ।
विषय
अग्नि, सोम, आप, गावः। तेजस्वी और धनवान् अध्यक्षों और उनके अधीन सम्पन्न प्रजांओं के परस्पर कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (रेवतीः) उत्तम धनसम्पन्न ! प्रजाओ ! (नि वर्त्तध्वं) बुरे मार्ग से तुम लौट जाओ। (मा अनु गात) उसका अनुगमन मत करो। (अस्मान् सिषक्त) हमें धन से पुष्ट करो। हे (अग्नि-सोमा) अग्नि और सोम के समान तेजस्वी और ओषधि के समान, बलदायक और प्रजाओं की वृद्धि करने में समर्थ जनो ! तुम दोनों (पुन-र्वसू) पुनः पुनः नये २ धन को कमाने वाले ! वा (पुनः-वसू) पुनः २ इस राष्ट्र में वसने वाले आप दोनों अब (अस्मे रयिम् धारयतम्) हमें धन-ऐश्वर्य धारण कराओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनो वा भार्गवः। देवताः ११, २—८ आपो गावो वा। १२ अग्नीषोमौ॥ छन्दः-१, ३-५ निचृदनुष्टुप्। २ विराडनुष्टुप् ७, ८ अनुष्टुप्। ६ गायत्री। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते प्राधान्येन गावः (इन्द्रियाणि) वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(रेवतीः) हे रेवत्यः-दुग्धादिपोषणपदार्थवत्यः-पोषणपदार्थप्रदात्र्यो गावः प्रजा इन्द्रियशक्तयो वा “रयिं देहि पोषं देहि” [काठ०१।७] “वीर्यं वै रयिः” [श०१३।४।२।१३] “रयेर्मतौ बहुलम्” [अष्टा०६।१।३७] छन्दसि सम्प्रसारणं मस्य वत्वं च। ‘गोपतौ’ (३) ‘गोपाः’ (४) (५) ‘गाः’ (६) मन्त्रेषु दर्शनात्प्राधान्येन गावो देवताः। ताश्चात्र पशवः, प्रजाः, इन्द्रियाणि लक्ष्यन्ते (निवर्तध्वम्) इतस्ततो वने चरित्वा प्रत्यागच्छत, यात्रां कृत्वा प्रत्यागच्छत, विषयान् लब्ध्वा स्वस्थाने स्वस्था भवत (मा-अनुगात) अन्यस्यानुगमनं मा कुरुत (अस्मान् सिषक्त) अस्मान् दुग्धादिभिः पुनः पुनः सेचयत, राज्याभिषेकाय वृणुत, भौगैस्तर्पयत (पुनर्वसू-अग्नीषोमा) पुनः पुनः निरन्तरं वासयितारौ प्राणापानौ। “प्राणापानावग्नीषोमौ” [ऐ०१।८] (अस्मे) अस्मभ्यम् (रयिं धारयतम्) पोषं धारयतं सम्पादयतम् ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O cows, fluent energies, flowing waters and radiant rays of light, O dynamic people, all treasure holds of wealth, go round and come, go not elsewhere, come bearing wealth of life. Bring us showers of abundant food and energy. Agni and Soma, fire and water energy, Punarvasu, wealth in circulation, bring in wealth for us from all round.
मराठी (1)
भावार्थ
गोपालकासाठी गायी पुष्कळ दूध देणाऱ्या असाव्यात. राजासाठी प्रजा धन व बल देणारी असावी. इंद्रियांचा स्वामी असलेल्या आत्म्यासाठी इंद्रिये निर्दोष भोग देणारी असावीत व आपापला व्यवहार करून आपापल्या स्थानी स्वस्थ असावीत, तसेच प्राण व अपान ही प्रत्येक प्राण्याला चिरजीवन देणारे असावेत. ॥१॥
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