ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
अस॒त्सु मे॑ जरित॒: साभि॑वे॒गो यत्सु॑न्व॒ते यज॑मानाय॒ शिक्ष॑म् । अना॑शीर्दाम॒हम॑स्मि प्रह॒न्ता स॑त्य॒ध्वृतं॑ वृजिना॒यन्त॑मा॒भुम् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑त् । सु । मे॒ । ज॒रि॒त॒रिति॑ । सः । अ॒भि॒ऽवे॒गः । यत् । सु॒न्व॒ते । यज॑मानाय । शिक्ष॑म् । अना॑शीःऽदाम् । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । प्र॒ऽह॒न्ता । स॒त्य॒ऽध्वृत॑म् । वृ॒जि॒न॒ऽयन्त॑म् । आ॒भुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असत्सु मे जरित: साभिवेगो यत्सुन्वते यजमानाय शिक्षम् । अनाशीर्दामहमस्मि प्रहन्ता सत्यध्वृतं वृजिनायन्तमाभुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसत् । सु । मे । जरितरिति । सः । अभिऽवेगः । यत् । सुन्वते । यजमानाय । शिक्षम् । अनाशीःऽदाम् । अहम् । अस्मि । प्रऽहन्ता । सत्यऽध्वृतम् । वृजिनऽयन्तम् । आभुम् ॥ १०.२७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा जीवात्मा के गुण, सृष्टिरचना, शरीररचना आदि का उपदेश है।
पदार्थ
(जरितः) हे स्तुति करनेवाले उपासक ! (मे) मेरा (सः-अभिवेगः) वह शाश्वतिक स्वभाव (सु-असत्) कल्याणकारी है, (यत्) कि जो (सुन्वते यजमानाय शिक्षम्) उपासनारस निष्पादन करनेवाले-अपने आत्मा को समर्पित करनेवाले आत्मयाजी के लिये निज आनन्द को मैं देता हूँ (अनाशीर्दाम्) प्रार्थना न करनेवाले-नास्तिक (सत्यध्वृतं वृजिनायन्तम्-आभुम्) एवं सत्यविनाशक पापाचरण करनेवाले आक्रमणकारी को (अहं-प्रहन्ता-अस्मि) मैं नष्ट करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा का यह शाश्वतिक स्वभाव है कि वह अपने प्रति समर्पणकर्त्ता उपासक को अपना आनन्द प्रदान करता है और नास्तिक, पापाचरण, अन्यथा पीडक मनुष्य को नष्ट करता है ॥१॥
विषय
'सुन्वन् यजमान
पदार्थ
[१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'वसुक्र ऐन्द्रः ' है । उत्तम पदार्थों को निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को 'वसु' कहते हैं, जो इन वसुओं का श्रवण करता है, वह 'वसुक्र' कहलाता है। यह 'ऐन्द्रः ' इन्द्र की ओर चलनेवाला होता है। यदि हमारा झुकाव 'इन्द्र'- प्रभु की ओर न रहकर प्रकृति की ओर हो जाए तो हम 'वसुक्र' ही न रहें। प्रकृति में फँसना 'निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों के ह्रास' का कारण होता है । [२] इस वसुक्र से प्रभु कहते हैं कि हे (जरितः) = स्तोत: ! (मे) = मेरा (स) = वह (सु) = शोभन (अभिवेग) = मन का प्रबल भाव (असत्) = है (यत्) = कि (सुन्वते) = अपने शरीर में (सोम) = वीर्य का सम्पादन करनेवाले तथा (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (शिक्षम्) = सब उत्तम वसुओं को दूँ। प्रभु ही सब वसुओं के स्वामी है। ये वसु उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो 'सुन्वन् व यजमान' बनते हैं। 'सुन्वन्' अपने अन्दर शक्ति का सम्पादन करनेवाला है, 'यजमान' लोकहित के लिये यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाला है । [३] जहाँ प्रभु 'सुन्वन् यजमान' को सब उत्तम वस्तुएँ प्राप्त कराते हैं वहाँ वे प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (प्रहन्ता) = प्रकर्षेण मारनेवाला (अस्मि) = हूँ । किसको ? [क] (अनाशीर्दाम्) = जो इच्छापूर्वक, दिलखोलकर दान नहीं करता। जिसकी देने की वृत्ति नहीं है, देव न होकर जो असुर है, देता नहीं, अपने मुँह में ही डालता है। [ख] (सत्यध्वृतम्) = जो सत्य की हिंसा करता है, अनृत भाषण करता है। [ग] (वृजिनायन्तम्) = [पापं कर्तुम् इच्छन्तम्] जो पाप करने की इच्छा करता है, जो पाप की वृत्तिवाला है, जिसका झुकाव धर्म की ओर न होकर अधर्म की ओर है और जो [घ] (आभुम्) = [ आ-भवति] सब चीजों का मालिक होना चाहता है, 'ये भी मुझे मिल जाये, ये भी मुझे मिल जाये' यही जो सदा चाहता रहता है। जो सारी चीजों को व्याप्त करके जबर्दस्त परिग्रही बन जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु 'सुन्वन् यजमान' को सब कुछ देते हैं तथा 'अनाशीर्दा, सत्यध्वृत्, वृजिनायन्, आभु' को नष्ट करते हैं।
विषय
इन्द्र। ऐश्वर्यवान् प्रभु का स्वात्म-वर्णन। ऐश्वर्यवान् के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (जरितः) विद्वान् उपदेष्टः ! (मे सः अभि-वेगः सु असत्) मेरा वह उत्तम उत्साह और वेग बल सदा भली प्रकार बना रहे (यत्) कि मैं (सुन्वते यजमानाय शिक्षम्) यज्ञशील, देवोपासक को सदा दान दिया करूं, उसकी इच्छापूर्त्ति करूं। मैं ईश्वर, राजा, (अनाशीः-दाम्) आशा और कामनाओं के अनुरूप न देने वालों को (प्र-हन्ता अस्मि) अच्छी प्रकार नाश करने वाला हूं। और मैं (सत्य-ध्वृतं) सत्य के विनाशक और (वृजिनयन्तम्) पापाचरण करने वाले (आभुम्) शक्तिशाली को भी (प्र-हन्ता अस्मि) खूब अच्छी प्रकार नाश कर देता हूं।
टिप्पणी
(‘वसुक्रः’ वसु करोति तादृशः इन्द्र एव ऐन्द्रः, सोऽस्य सूक्तस्य ऋषिः)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मजीवात्मगुणाः सृष्टिरचना शरीररचनादयो विविधा विषयाः प्रदर्श्यन्ते।
पदार्थः
(जरितः) हे स्तोतः ! “जरिता स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] (मे) मम (सः अभिवेगः) ‘मन्त्रे सन्धिश्छान्दसः’ “सुपां सुलुक्० [अष्टा० ७।१।९] इति सोर्लुकि कृते” स खल्वभिवेगः शाश्वतिकः स्वभावः (सु-असत्) शोभनोऽस्ति (यत्) यतः (सुन्वते यजमानाय शिक्षम्) उपासनारसं निष्पादयते स्वात्मानं समर्पयतेऽध्यात्मयाजिने निजानन्तानन्दं ददामि “शिक्षतिर्दानकर्मा” [निघं० ३।२०] (अनाशीर्दाम्) आशीः प्रार्थना “बह्वी वै यजुः स्वाशीः” [श० १।२।१।७] “अथेयमितराशीराशास्ते” [निरु० ६।८] अनाशीर्दाः अस्तुतिप्रार्थनाकर्त्ता सामर्थ्यात्-अस्तोता नास्तिकस्तम् (अहं प्रहन्ता अस्मि) अहं प्रहन्मीति शीलवानस्मि (सत्यध्वृतं वृजिनायन्तम्-आभुम्) सत्यविनाशकं पापमाचरन्तम् आक्रमणकारिणं जनं च प्रहन्मि ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O dedicated celebrant, the divine nature and power is good and true, it is this: I grant the prayer and give the desired object to the dedicated creative Soma yajaka. But I punish and strike down the ungenerous, selfish violator of eternal truth and law persistently addicted to sin, evil and falsehood.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा हा शाश्वतिक स्वभाव आहे, की तो आपल्याला समर्पित असलेल्या उपासकाला आपला आनंद प्रदान करतो व नास्तिक पापाचरण व त्रास देणाऱ्या आक्रमण करणाऱ्यांना नष्ट करतो. ॥१॥
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