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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - आप अपान्नपाद्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र दे॑व॒त्रा ब्रह्म॑णे गा॒तुरे॑त्व॒पो अच्छा॒ मन॑सो॒ न प्रयु॑क्ति । म॒हीं मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य धा॒सिं पृ॑थु॒ज्रय॑से रीरधा सुवृ॒क्तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । दे॒व॒ऽत्रा । ब्रह्म॑णे । गा॒तुः । ए॒तु॒ । अ॒पः । अच्छ॑ । मन॑सः । न । प्रऽयु॑क्ति । म॒हीम् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धा॒सिम् । पृ॒थु॒ऽज्रय॑से । री॒र॒ध॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र देवत्रा ब्रह्मणे गातुरेत्वपो अच्छा मनसो न प्रयुक्ति । महीं मित्रस्य वरुणस्य धासिं पृथुज्रयसे रीरधा सुवृक्तिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । देवऽत्रा । ब्रह्मणे । गातुः । एतु । अपः । अच्छ । मनसः । न । प्रऽयुक्ति । महीम् । मित्रस्य । वरुणस्य । धासिम् । पृथुऽज्रयसे । रीरध । सुऽवृक्तिम् ॥ १०.३०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में राजा और प्रजा के धर्मों का उपदेश किया गया है।

    पदार्थ

    (ब्रह्मणे) प्रजापति के लिये प्रजापालक पदप्राप्ति के लिये-राजपद-प्राप्ति के लिये नवीन राजा (गातुः) प्रगतिशील (अपां नपात्) प्रजाओं को न गिरानेवाला-प्रजाओं का रक्षक (देवत्रा-अपः-अच्छ प्र-एतु) देवभाववाली मनुष्यप्रजाओं को साक्षात् प्राप्त हो (मनसः-न प्रयुक्ति) जैसे मन का प्रजोजन-अभीष्ट प्राप्त होता है, सामने आता है (मित्रस्य वरुणस्य महीं धासिं सुवृक्तिम्) संसार में कर्म करने के लिये तथा मोक्ष में वरनेवाले परमात्मा की विधान की हुई महती धारण करने योग्य राजभुक्ति-भोगसामग्री तथा सुगमता से त्यागने योग्य दुःखप्रवृत्ति जिससे हो अर्थात् मुक्ति को (पृथुज्रयसे रीरध) विस्तृत ज्ञान वेगवाले नवीन राजा के लिये हे पुरोहित ! तू घोषित कर समझा, बतला ॥१॥

    भावार्थ

    राजा राजपद पर विराजमान होकर प्रजाओं के रक्षणहेतु उनसे सम्पर्क बनाये रखे और पुरोहित को चाहिये कि वह राजा को ऐश्वर्यभोग के साथ-साथ मुक्तिप्राप्ति के साधनों का उपदेश देता रहे ॥१॥

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    विषय

    यात्रापूर्ति क्रम

    पदार्थ

    [१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'कवष ऐलूष' है। 'कवष' शब्द का अर्थ है 'ढाल'। जैसे एक योद्धा ढाल से अपने पर होनेवाले वार की रक्षा करता है इसी प्रकार यह अपने पर होनेवाले वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाता है। ढाल का संकेत 'ऐलूष' शब्द में मिलता है। 'इडा' स्तुति को कहते हैं । स्तुति के द्वारा 'स्पति' अपने पापों का अन्त करता है, सो ऐडूष - ऐलूष कहलाता है । यह कवष ऐलूष (गातुः) = इस जीवन में यात्री बनता हुआ (ब्रह्मणे) = ब्रह्म की प्राप्ति के लिये (देवत्रा) = देवों में (प्र एतु) = प्रकर्षेण आये । ब्रह्म की प्राप्ति के लिये यही तो चाहिये कि हम अपने में दैवी सम्पत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करें। जितना हम अपने में दिव्यगुणों का वर्धन करेंगे उतना ही उस परमदेव के समीप पहुँचते जाएँगे। [२] इन दिव्यगुणों के वर्धन के लिये यह कवष ऐलूष (अपः) = रेतः कणों की अच्छा और (प्र एतु) = प्रकर्षेण आये। शरीर में रेतः कणों की रक्षा के लिये पूर्ण प्रयत्न करे। इन रेतः कणों के रक्षण से ही इसका शरीर नीरोग होता है और मन वासनाओं से शून्य । [३] रेतःकणों की रक्षा के लिये आवश्यक है कि मन सांसारिक विषयों की ओर न जाये । इसी बात को मन्त्र में इस तरह कहते हैं कि (मनसो न प्रयुक्ति) = मन के किसी भी विषय में प्रयुक्ति = आसक्त न होने के द्वारा। मन को विषयों से ऊपर उठाकर ही हम रेतःकणों के रक्षण में समर्थ होते हैं। ये सुरक्षित रेतः कण हमारे मनों को सद्गुणों से अलंकृत करते हैं। [४] मन को विषयों में आसक्त न होने देने के लिये (मित्रस्य) = मित्र देवता के और (वरुणस्य) = वरुणदेव के (महीं धासिम्) = महनीय अन्न को [एतु] प्राप्त हो। हम उस अन्न का प्रयोग करें, जो हमें सबके साथ स्नेह करनेवाला तथा द्वेष के निवारण करनेवाला बनाये [मित्र - वरुण] । अन्न से ही तो मन का निर्माण होता है जैसा अन्न खायेंगे वैसा ही मन बनेगा। सात्त्विक अन्न के सेवन से मन सात्त्विक होगा। तभी हम वासनाओं से न आक्रान्त होने पर सोम का रक्षण कर पायेंगे। [५] इस सात्त्विक अन्न के सेवन के द्वारा मनो निरोध करते हुए 'कवष ऐलूष' को चाहिए कि वह (पृथुजयसे) = विशाल वेगवाले उस प्रभु के लिये, मन से भी अधिक वेगवान् उस प्रभु के लिये (सुवृक्तिम्) = उत्तमता से दोषवर्जनरूप स्तुति को (रीरधा) = सिद्ध करे। यह प्रभु स्तवन भी उसे लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाला होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस प्रस्तुत मन्त्र में एक बड़ा सुन्दर कार्यकारणभाव का क्रम देखते हैं कि—[क] हम अपने को यात्री समझते हुए ब्रह्म को अपना लक्ष्य स्थान जानें, [२] इसके लिये अपने में दिव्य गुणों का वर्धन करें, [ख] दिव्यगुणों के वर्धन के लिये रेतःकणों का रक्षण करें, [ग] उसके लिये मन को विषयों में आसक्त न होने दें, [घ] इसके लिये सात्त्विक भोजन करें और उस प्रभु के लिये दोषवर्जनरूप स्तुति को सिद्ध करें।

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    विषय

    आपः, अपां नपात्। प्रभु वाणी की कामना, उससे महान् ऐश्वर्य की याचना।

    भावार्थ

    (मनसः प्रयुक्ति न) मन के उत्तम योग के समान (ब्रह्मणे गातुः) ‘ब्रह्म’ ब्राह्मण वा परमेश्वर की वाणी, (अपः) आप्त प्रजाजनों को (देव-त्रा) विद्वान् अभिलाषी जनों द्वारा, (अच्छ प्र एतु) साक्षात् अच्छी प्रकार आवे, प्राप्त हो। (मित्रस्य वरुणस्य) सर्वस्नेही सर्वदुःखवारक प्रभु की (सुवृक्तिम् महीं धासिं) सुखप्रद, महती, पूज्य अन्नवत् धारक-पोषक शक्ति को (पृथुज्रयसे) बड़े बलशाली के लिये हा (रीरधः) अपने वश कर। मित्रतापूर्वक दिये प्रभु के अन्नादि ऐश्वर्य का प्रयोग उसी के सत्कार्य में कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- आप अपान्नपाद्वा ॥ छन्दः— १, ३, ९, ११, १२, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ६, ८, १४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ७, १०, १३ त्रिष्टुप्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते राजप्रजाधर्मा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    (ब्रह्मणे) प्रजापतये प्रजापतित्वाय प्रजापतिपदप्राप्तये प्रजापालकराजपदाय “प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [काठ०-१४।७] सोमः सोम्यो नवराजः (गातुः) प्रगतिशीलः (अपां नपात्) प्रजा न पातयिता-प्रजारक्षकः (देवत्रा-अपः अच्छ प्र-एतु) देवभाववतीः “देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्यो-र्बहुलम्” [अष्टा० ५।४।५६] इति द्वितीयायाः त्राप्रत्ययः मनुष्यप्रजाः “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] “आपः आप्ताः प्रजाः” [यजु० ६।२७ दयानन्दः] आभिमुख्येन साक्षात् प्रगच्छतु (मनसः न प्रयुक्ति) यथा मनसः प्रयोजनं स्वाभीष्टं प्रगच्छति (मित्रस्य वरुणस्य महीं धासिं सुवृक्तिम्) संसारे कर्मकरणाय प्रेरकस्य मोक्षे वरयितुः परमात्मन-स्तद्विहितां महतीं धारणीयां भुक्तिं राज्यभुक्तिं तथा सुगमतया वर्जनयोग्या दुःखप्रवृत्तिर्यया तां मुक्तिं च “सुवृक्तिं सुष्ठु वर्जयन्ति दुःखानि यया ताम्” [ऋ० ७।३६।२ दयानन्दः] (पृथुज्रयसे रीरध) विस्तृतो ज्ञानवेगो यस्य तस्मै नवराजाय राजपदप्रतिष्ठिताय “पृथुज्रयाः पृथुजवः” [निरु० ५।१०] हे पुरोहित ! राधय घोषय-उपदिश च ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let our voice of thanks and praise, our acts of yajnic creation and self-sacrifice in service of the cosmic sustainer, reach all the divine energies and powers of nature and humanity which are ever on the move and sustain life, and let this expression be the very symbol of the total dedication of our mind and soul. O celebrant, O high priest of yajna, proclaim and realise this our will to live as a mighty gift of the lord of love and judgement, and proclaim as well our vision of the ultimate freedom from selfish attachment, which we would realise in dedication to our own spirit, to the social order, and to the infinite lord of cosmic dynamics with the same love and judgement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने राजपदावर विराजमान होऊन प्रजेच्या रक्षणासाठी त्यांच्याशी संपर्क ठेवावा. पुरोहिताने राजाला ऐश्वर्यभोगाबरोबर मुक्तिप्राप्तीच्या साधनाचाही उपदेश करावा. ॥१॥

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