ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
प्र सु ग्मन्ता॑ धियसा॒नस्य॑ स॒क्षणि॑ व॒रेभि॑र्व॒राँ अ॒भि षु प्र॒सीद॑तः । अ॒स्माक॒मिन्द्र॑ उ॒भयं॑ जुजोषति॒ यत्सो॒म्यस्यान्ध॑सो॒ बुबो॑धति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । ग्मन्ता॑ । धि॒य॒सा॒नस्य॑ । स॒क्षणि॑ । व॒रेभिः॑ । व॒रान् । अ॒भि । सु । प्र॒ऽसीद॑तः । अ॒स्माक॑म् । इन्द्रः॑ । उ॒भय॑म् । जु॒जो॒ष॒ति॒ । यत् । सो॒म्यस्य॑ । अन्ध॑सः । बुबो॑धति ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सु ग्मन्ता धियसानस्य सक्षणि वरेभिर्वराँ अभि षु प्रसीदतः । अस्माकमिन्द्र उभयं जुजोषति यत्सोम्यस्यान्धसो बुबोधति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सु । ग्मन्ता । धियसानस्य । सक्षणि । वरेभिः । वरान् । अभि । सु । प्रऽसीदतः । अस्माकम् । इन्द्रः । उभयम् । जुजोषति । यत् । सोम्यस्य । अन्धसः । बुबोधति ॥ १०.३२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में आदर्श गृहस्थ का वर्णन है और परमात्मा के आदेशानुसार चलते हुए जरावस्था को सुख से व्यतीत करता है।
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अस्माकम्-उभयं जुजोषति) हमारे दोनों श्रेष्ठ कर्म और ज्ञान को पसन्द करता है (सोम्यस्य-अन्धसः-यत् बुबोधति) उपासना से निष्पन्न अच्छे ध्याये हुए स्वरूप के फल को प्राप्त कराता है (धियसानस्य) ध्यान में आये हुए (वरेभिः-वरान् अभि प्रसीदतः) उत्तम सुखों से उत्तम महानुभावों को प्रसन्न करे (सक्षणि) उनके सङ्ग में (प्र ग्मन्ता) गृहस्थ जीवन को प्रगति देते हुए स्त्री पुरुष ! (प्र सु०) प्रकृष्टरूप से सुसम्पन्न होवें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा हमारे श्रेष्ठ कर्म और श्रेष्ठ ज्ञान को पसन्द कराता है। उपासना द्वारा ध्यान करने योग्य अपने स्वरूप को प्राप्त कराता है। उसकी सङ्गति में गृहस्थजन गृहस्थ को उन्नत करते हुए प्रसन्न रहते हैं ॥१॥
विषय
उत्तमोत्तम मार्ग की ओर
पदार्थ
[१] पति पत्नी को सम्बोधन करके कहते हैं कि (धियसानस्य) = ध्यान करने के स्वभाववाले के (सक्षणि) = सेवन में, सम्पर्क में (प्र) = प्रकर्षेण (सुग्मन्ता) = अच्छी तरह से आप जानेवाले होवो । आपका सम्पर्क ध्यान की वृत्तिवाले लोगों के साथ हो, भोग प्रधान वृत्तिवालों का सम्पर्क आपको भी भोग-प्रवण ही तो बना देगा। [२] इस प्रकार ध्यान- प्रवण लोगों के सम्पर्क में रहकर (वरेभिः वरान्) = अच्छे से भी अच्छे मार्गों के (अभि) = ओर (सु) = उत्तमत्ता से (प्रसीदत:) = [ proceed ] आप आगे बढ़ो। प्रभु ध्यान करनेवाले लोगों का सम्पर्क हमें उत्तम मार्ग पर आगे बढ़ायेगा, जबकि भोग- प्रवण लोगों का सम्पर्क हमारे ह्रास का ही कारण बनेगा। [३] प्रभु कहते हैं कि (इन्द्रः) = ध्यान वृत्ति के लोगों के सम्पर्क में रहनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष (अस्माकम्) = हमारा (उभयम्) = दोनों सन्ध्या कालों में प्रातः-सायं निरन्तर (जुजोषति) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता है । इसकी भी रुचि ध्यान की बनती है और इस ध्यान में यह कभी भी विच्छेद नहीं होने देता। [४] यह कर ऐसा तभी पाता है (यत्) = जब कि (सोम्यस्य अन्धसः) = सोम के लिये, वीर्य शक्ति के लिये हितकर (अन्धसः) = अन्न को ही यह (बुबोधति) = जानता है। यह सोम्य अन्नों के सिवाय अन्य अन्नों का पदार्थों का यह कभी प्रयोग नहीं करता । इसीका परिणाम है कि इसकी मनोवृत्ति सुन्दर बनी रहती है।
भावार्थ
भावार्थ - ध्यानवृत्ति पुरुषों के सम्पर्क से हम उत्तमोत्तम मार्गों का आक्रमण करनेवाले हैं। दोनों संधिवेलाओं में प्रभु का ध्यान करें। सोम्य अन्नों का ही सेवन करें।
विषय
विश्वेदेव। उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य। सत्संग
भावार्थ
(धियसानस्य) ज्ञान और कर्म सम्पादन करने वाले पुरुष (सक्षणि) संग में (रमन्ता) जाते हुए स्त्री पुरुष दोनों को (इन्द्रः प्र जुजोषति) ऐश्वर्यवान् पुरुष अच्छी प्रकार प्रेम करता है और (प्र-सीदतः) प्रसन्न हुए विद्वान् के (वरेभिः) श्रेष्ठ कर्मों द्वारा वे दोनों स्त्री पुरुष (वरान् अभि सु) उत्तम सुखों को प्राप्त करें। (इन्द्रः) वह विद्वान् गुरु, राजा (अस्माकम्) हमारे (उभयं) हित और अहित, पाप और पुण्य दोनों को (जुजोषति) प्राप्त करता है। क्योंकि वह (सोम्यस्य-अन्धसः) ऐश्वर्य युक्त अन्न को (बुबोधति) अच्छी प्रकार जानता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् खल्वादर्शगृहस्थस्य वर्णनं तत्र च परमात्मन आदेशमनुसरन् जरावस्थाञ्च सुखेन वाहयति।
पदार्थः
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अस्माकम्-उभयं जुजोषति) अस्माकं खलूभयं श्रेष्ठं कर्म तथा ज्ञानं च प्रीणाति (सोम्यस्य अन्धसः यत्-बुबोधति) उपासनानिष्पन्नस्य आध्यानीयस्वरूपस्य यत् फलं बोधयति प्रापयति “जुजोषति बुबोधति” इत्युभयत्र श्लुश्छान्दसः तस्य (धियसानस्य) ध्यायमानस्य “ध्यै धातोः सिपि सम्प्रसारणं छान्दसम्” (वरेभिः-वरान् अभि प्रसीदतः) श्रेष्ठैः सुखैः श्रेष्ठान् जनान् प्रसादय, अन्तर्गतणिजर्थः (सक्षणि) सङ्गमे (प्र ग्मन्ता) गार्हस्थ्यप्रगतिं कुर्वन्तौ स्त्रीपुरुषौ (प्र सु०) प्रकृष्टं सु प्रसीदतः सुप्रसन्नौ भवतः ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May Indra, omnificent spirit and highest presence of the universe, cherished object of the meditative seeker, move to accept the best of the seeker’s acts of homage and surrender and bless him in his state of clairvoyant ecstasy with the objects of his love and desire. Indeed Indra, who acknowledges the homage and service of the man dedicated to search for divinity, loves, joins and rewards our search for knowledge and action with fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आमचे श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ ज्ञान पसंत करतो. उपासना व ध्यानाद्वारे आपले स्वरूप प्राप्त करवितो. त्याच्या संगतीत गृहस्थ लोक गृहस्थाश्रमाला उन्नत करून प्रसन्न राहतात. ॥१॥
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