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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र मा॑ युयुज्रे प्र॒युजो॒ जना॑नां॒ वहा॑मि स्म पू॒षण॒मन्त॑रेण । विश्वे॑ दे॒वासो॒ अध॒ माम॑रक्षन्दु॒:शासु॒रागा॒दिति॒ घोष॑ आसीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मा॒ । यु॒यु॒ज्रे॒ । प्र॒ऽयुजः॑ । जना॑नाम् । वहा॑मि । स्म॒ । पू॒षण॑म् । अन्त॑रेण । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अध॑ । माम् । अ॒र॒क्ष॒न् । दुः॒ऽशासुः॑ । आ । अ॒गा॒त् । इति॑ । घोषः॑ । आ॒सी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मा युयुज्रे प्रयुजो जनानां वहामि स्म पूषणमन्तरेण । विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दु:शासुरागादिति घोष आसीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मा । युयुज्रे । प्रऽयुजः । जनानाम् । वहामि । स्म । पूषणम् । अन्तरेण । विश्वे । देवासः । अध । माम् । अरक्षन् । दुःऽशासुः । आ । अगात् । इति । घोषः । आसीत् ॥ १०.३३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में गर्भदुःख और संसार में मरणत्रास के निवारणार्थ परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करनी चाहिये, इस विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (जनानां प्रयुजः) ज्ञान द्वारा मनुष्यों को प्रेरित करनेवाले विद्वान् (मा प्र युयुज्रे) मुझे ज्ञान देकर प्रेरित करें या करते हैं, ततः (अन्तरेण पूषणं वहामि स्म) अन्तःकरण-मन से पोषण करनेवाले परमात्मा को मैं धारण करता हूँ-मैं अनुभव करता हूँ (अध) पुनः (विश्वे देवासः-माम्-अरक्षन्) मेरे प्राण भी मेरी रक्षा करते हैं (दुःशासुः-आ-अगात्-इति घोषः-आसीत्) दुःख से पीड़ित करनेवाला मृत्यु या कठिन रोग मुझे आ दबाता है, ऐसा प्रत्येक मनुष्य का घोष चिल्लाना पुकारना होता है ॥१॥

    भावार्थ

    विद्वान् गुरुजन ज्ञान देकर मनुष्यों को सत्कर्म में प्रेरित करते हैं तथा परमात्मा की ओर प्रवृत्त करते हैं, जिससे कि वे परमात्मा को आन्तरिक भाव से अनुभव करते हैं। संसार में वे अधिक काल तक जीवन धारण करते हैं, अन्यथा मृत्यु या कठिन रोग के भारी दुःख को भोगते हैं ॥१॥

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    विषय

    लोकहित के कार्यों में लगे रहना

    पदार्थ

    [१] मा = मुझे जनानां प्रयुजः = लोगों के कार्य [प्रयुज् - जिनमें लगा रहा जाता है] प्रयुयुज्रे प्रकर्षेण कार्य में लगाये रहते हैं । गत मन्त्र के अनुसार लोकहित के लिये दान देनेवाले लोग यही चाहते हैं कि हमें लोकहित के कार्य सदा व्यस्त रखें। हमें नाममात्र भी अवकाश न हो, हमारा सारा समय कार्यों में लगा रहे और मैं अन्तरेण - हृदय मध्य में पूषणं वहामि स्म उस पोषक परमात्मा को धारण करता हूँ । लोकहित के कार्यों में तो लगता हूँ, परन्तु उन सब कार्यों को उस हृदयस्थ प्रभु की शक्ति से ही होता हुआ जानता हूँ, उन कर्मों का मैं किसी प्रकार भी गर्व नहीं करता। सबका पोषण वे प्रभु ही करते हैं, मैंने क्या पोषण करना ? [२] अध= इस प्रकार लोकहित के इन कार्यों का गर्व न करने पर विश्वेदेवासः - सब देव मां अरक्षन्-मुझे सुरक्षित करते हैं। वस्तुतः ये लोकहित के कार्य ही यज्ञ कहलाते हैं, यज्ञों से देववृत्ति का रक्षण होता है । [३] इस प्रकार देवरक्षण प्राप्त होने पर जब कभी अशुभवृत्ति हृदय में उठती हैं तो 'दु:शासुः आगात्'=यह कठिनता से शासन करने योग्य वृत्ति आई इति - इस प्रकार घोष:- अन्दर की वाणी आसीत्-होती है । अन्तःस्थित प्रभु से यह प्रेरणा मिलती है कि यह वृत्ति अशुभ है इससे बचने का पूर्ण प्रयत्न करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम लोकहित के कार्यों में लगें, इन कार्यों को प्रभु की ओर से होता हुआ जानें। देवों से होनेवाली रक्षा का पात्र बनें। समय-समय पर प्रभु से दी जानेवाली प्रेरणाओं को सुनें ।

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    विषय

    विश्वेदेव। प्रभु की शरण याचना।

    भावार्थ

    (प्र-युजः) मनुष्यों को सन्मार्ग में प्रेरित करने वाले, उत्तम २ फलों को प्राप्त करने वाले लोग (मा प्र युयुज्रे) मुझे भी उत्तम मार्ग पर प्रेरित करें। मैं (जनानां पूषणम्) समस्त मनुष्यों के पोषक प्रभु को (अन्तरेण) अपने भीतर (वहामि) धारण करूं। (देवासः) विद्वान् और वीरजन भी (माम् अरक्षन्) मेरी रक्षा करें। (दुःशासुः आगात्) बड़ी कठिनता से शासन करने योग्य, वा जिसके विषय में कुछ भी कहा न जासके, अवर्णनीय एवं (दु:शासुः) अन्यों से वश न करने योग्य राजावत् प्रभु (आगात्) हमें प्राप्त हो, (इति घोषः आसीत्) इसी कारण उसके बतलाने के लिये घोष, वेदवाणी का उपदेश हमें प्राप्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ देवताः- १ विश्वे देवाः। २,३ इन्द्रः। ४, ५ कुरुश्रवणस्य त्रासदस्यवस्य दानस्तुतिः ६-९ उपमश्र व मित्रातिथिपुत्राः॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् २ निचृद् बृहती। ३ भुरिग् बृहती। ४–७, ९ गायत्री। ८ पादनिचृद् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते गर्भदुःखस्य संसारे मरणत्रासस्यापवारणाय परमात्मनः स्तुतिप्रार्थनोपासना ज्ञानपूर्विका अनुष्ठेया इति वर्णनम्।

    पदार्थः

    (जनानां प्रयुजः) ज्ञानं प्रदाय मनुष्याणां प्रेरयितारो विद्वांसो गुरवः (मा प्रयुयुज्रे) मां ज्ञानदानेन प्रेरितवन्तः प्रेरयन्ति वा, अत एव (अन्तरेण पूषणं वहामि स्म) अन्तःस्थेन-अन्तःकरणेनाहं पोषयितारं परमात्मानं धारयामि-अनुभवामि (अध) अनन्तरं तस्मादेव (विश्वे देवासः-माम् अरक्षन्) प्राणाः “प्राणा वै विश्वेदेवाः” [तै०५।२।२।१] मां रक्षन्ति (दुःशासुः-आ-अगात्-इति घोषः-आसीत्) दुःखेन यः शसति हिनस्ति स मृत्युः कठिनरोगो वा “शसु हिंसायाम्” [भ्वादि०] ततः-उण् बाहुलकात् स मारको मृत्युः-आगमिष्यति-इति जनघोषोऽस्ति हि ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the divine givers of knowledge and enlightenment to the people inspire and enlighten me too, so I hold the lord giver of life and nourishment dear to my heart in the soul. May the divinities of heaven and earth in nature and humanity protect and promote me. The indomitable is come: this is the declaration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान गुरुजन ज्ञान देऊन माणसांना सत्कर्मात प्रेरित करतात व परमात्म्याकडे प्रेरित करतात ज्यामुळे ते परमात्म्याला आंतरिक भावाने अनुभवतात. जगात ते अधिक काळ जिवंत राहतात; अन्यथा मृत्यू किंवा असाध्य रोगामुळे भयंकर दु:ख भोगतात. ॥१॥

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