ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 13
ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान्
देवता - अक्षकृषिप्रशंसा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒क्षैर्मा दी॑व्यः कृ॒षिमित्कृ॑षस्व वि॒त्ते र॑मस्व ब॒हु मन्य॑मानः । तत्र॒ गाव॑: कितव॒ तत्र॑ जा॒या तन्मे॒ वि च॑ष्टे सवि॒तायम॒र्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्षैः । मा । दी॒व्य॒ह् । कृ॒षिम् । इत् । कृ॒ष॒स्व॒ । वि॒त्ते । र॒म॒स्व॒ । ब॒हु । मन्य॑मानः । तत्त्र॑ । गावः॑ । कि॒त॒व॒ । तत्र॑ । जा॒या । तत् । मे॒ । वि । च॒ष्टे॒ । स॒वि॒ता । अ॒यम् । अ॒र्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः । तत्र गाव: कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षैः । मा । दीव्यह् । कृषिम् । इत् । कृषस्व । वित्ते । रमस्व । बहु । मन्यमानः । तत्त्र । गावः । कितव । तत्र । जाया । तत् । मे । वि । चष्टे । सविता । अयम् । अर्यः ॥ १०.३४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कितव) हे द्यूतव्यसनी ! (अक्षैः-मा दीव्यः) जुए के पाशों से मत खेल (कृषिम्-इत्-कृषस्व) कृषि को जोत-खेती कर-अन्न उपजा (वित्ते रमस्व) खेती से प्राप्त अन्न-धन-भोग से आनन्द ले (बहु मन्यमानः) अपने को धन्य मानता हुआ प्रसन्न रह, क्योंकि (तत्र गावः) उस कार्य में गौएँ सुरक्षित हैं-और रहेंगी (तत्र जाया) उसमें पत्नी सुरक्षित प्रसन्न व अनुकूल रहेगी (अयम्-अर्यः सविता तत्-मे वि चष्टे) यह उत्पादक जगदीश परमात्मा मुझ उपासक के लिये कहता है कि लोगों को ऐसा उपदेश दो ॥१३॥
भावार्थ
जुए जैसे विषम व्यवहार एवं पाप की कमाई से बचकर स्वश्रम से उपार्जित कृषि से प्राप्त अन्न और भोग श्रेष्ठ हैं। इससे पारिवारिक व्यवस्था और पशुओं का लाभ भी मिलता है, परमात्मा भी अनुकूल सुखदायक बनता है ॥१३॥
विषय
कृषि, न कि जुआ
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह (अर्य:) = सबके स्वामी (सविता) = सबके प्रेरक प्रभु मे मुझे (तत् विचष्टे) = उस बात को कहते हैं कि (अक्षैः) = पासों से (मा दीव्यः) = जुआ मत खेल । (इत्) = निश्चय से (कृषिं कृषस्व) = खेती को ही कर । कोई भी मार्ग, जिससे कि हम एक ही दिन में धनी होना चाहते हैं, ठीक नहीं है। ऐसे मार्गों का प्रतीक ही यहाँ जूआ है। इन मार्गों से न चलना ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर है । कृषि प्रधान जीवन ही जीवन है। श्रम से धनार्जन के मार्गों का कृषि प्रतीक है। मनुष्य को पुरुषार्थ से ही धन कमाना चाहिए, यूँ ही धन प्राप्त की कामना हमें पौरुषशून्य बनाती है । [२] प्रभु कहते हैं कि कृषि से प्राप्त होनेवाले (वित्ते) = धन में ही (रमस्व) = तू रमण कर, आनन्द का अनुभव कर। उसी धन को (बहु मन्यमान:) = बहुत मानता हुआ तू चित्त में सन्तोष को धारण कर । (तत्र) = उस कृषि कर्म में (गावः) = गौ आदि पशुओं की कमी नहीं। वो तेरे जीवन के लिये आवश्यक दूध आदि पदार्थों के प्राप्त करानेवाले होंगे। हे (कितव) = जुए में प्रसित व्यक्ति तू यह समझ ले कि (तत्र) = उस कृषि कर्म में ही (जाया) = तेरी पत्नी भी तेरे लिये उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली होती है, अर्थात् सब प्रकार से घर उत्तम बनाने के लिये आवश्यक है कि हम श्रम-प्रधान जीवन से धनार्जन की कामना करें।
भावार्थ
भावार्थ - अक्षों और कृषि में कृषि ही श्रेयस्कर है ।
विषय
द्यूत का निषेध और कृषि की प्रशंसा।
भावार्थ
हे (कितव) गर्वीले राजा ! तू अधिकार मद से आकर प्रजाको कह लेता है कि ‘किं तव’ तेरा क्या है, इसी से तू भी ‘कितव’ है। ‘क्या तेरा’ ऐसा कहने वाले हे गर्वीले शासक ! तू (अक्षैः मा दीव्यः) पासों से मत खेल, वा (अक्षैः मा दीव्यः) अपने इन्द्रियगण से काम-विलास की खेल मत कर और (अक्षैः मा दीव्यः) और अपने अध्यक्ष जनों से मत, खेल, उनसे बढ़ जाने का गर्व वा स्पर्धा मत कर, उनके साथ मद, नशा-विनोद तथा उनके साथ रहकर स्वयं स्वप्न, आलस्यादि मत कर। प्रत्युत (कृषिम् इत् कृषस्व) तू खेती किया कर, परिश्रम से भूमि में कृषि कर और परिश्रम से धन धान्य उत्पन्न कर। और उसी को (बहु मन्यमानः) बहुत मानता हुआ (वित्ते रमस्व) प्राप्त धन में आनन्द लाभ कर, सुखी रह। हे (कितव) उत्तम कर्म करने हारे ! (तत्र गावः) उसी कर्म में तेरी गौएं (तत्र जाया) उसी में स्त्री, अर्थात् गृहसुख प्राप्त होता है। (अयम् अर्यः सविता) यह सर्वप्रेरक स्वामी (मे तत् वि चष्टे) मुझे उसी का उपदेश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कितव) हे द्यूतव्यसनिन् ! (अक्षैः-मा दीव्यः) अक्षैर्द्यूतपाशैर्न क्रीड (कृषिम्-इत्-कृषस्व) कृषिकर्षयान्नमुत्पादय (वित्ते रमस्व) कृषिधने कृषिनिष्पन्न-भोगे त्वमानन्दं कुरु (बहु मन्यमानः) स्वात्मानं धन्यं मन्यमानः यतः (तत्र गावः) तत्कार्ये गावः सुरक्षिताः (तत्र जाया) तत्र खलु पत्नी सुरक्षिता प्रसन्नाऽनुकूला च (अयम्-अर्यः सविता तत्-मे वि चष्टे) एष उत्पादको जगदीशः परमात्मा मह्यमुपासकाय तद् विशिष्टतया कथयति यल्लोकानुपदिश ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Play not with dice. Till the land. Be happy with the land and wealth you produce. Take it that that much is enough and be content. There are the cows, O gambler, there your wife is happy. This is what Savita, lord of life and giver of light has revealed to me.
मराठी (1)
भावार्थ
जुगारासारखा विषम व्यवहार केलेले, व पापाच्या कमाईपासून बचाव करून स्वत:च्या परिश्रमाने उपार्जित कृषीने प्राप्त झालेले अन्न व भोग श्रेष्ठ आहेत. यामुळे पारिवारिक व्यवस्था व पशूंचा लाभही मिळतो. परमेश्वरही अनुकूल, सुखदायक बनतो. ॥१३॥
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