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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् देवता - अक्षकृषिप्रशंसा छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒क्षास॒ इद॑ङ्कु॒शिनो॑ नितो॒दिनो॑ नि॒कृत्वा॑न॒स्तप॑नास्तापयि॒ष्णव॑: । कु॒मा॒रदे॑ष्णा॒ जय॑तः पुन॒र्हणो॒ मध्वा॒ सम्पृ॑क्ताः कित॒वस्य॑ ब॒र्हणा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒क्षासः॑ । इत् । अ॒ङ्कु॒शिनः॑ । नि॒ऽतो॒दिनः॑ । नि॒ऽकृत्वा॑नः । तप॑नाः । ता॒प॒यि॒ष्णवः॑ । कु॒मा॒रऽदे॑ष्णाः । जय॑तः । पु॒नः॒ऽहनः॑ । मध्वा॑ । सम्ऽपृ॑क्ताः । कि॒त॒वस्य॑ । ब॒र्हणा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षास इदङ्कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णव: । कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ताः कितवस्य बर्हणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षासः । इत् । अङ्कुशिनः । निऽतोदिनः । निऽकृत्वानः । तपनाः । तापयिष्णवः । कुमारऽदेष्णाः । जयतः । पुनःऽहनः । मध्वा । सम्ऽपृक्ताः । कितवस्य । बर्हणा ॥ १०.३४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अक्षासः-इत्) पाशे अवश्य (अङ्कुशिनः-नितोदिनः) अङ्कुशधारी पीड़ा देनेवालों के समान (निकृत्वानः) वंशच्छेदक (तपनाः-तापयिष्णवः) सन्ताप ताप स्वभाववाले (कुमारदेष्णाः) बुरी तरह मृत्यु देनेवाले (जयतः कितवस्य पुनर्हणः) जीतते हुए जुआरी के पुनः-पुनः घातक (मध्वा बर्हणा सम्पृक्ताः) मधु से युक्त विष के समान हैं ॥७॥

    भावार्थ

    जुए के पाशे जीतते हुए के लिये पीड़ा देनेवाले, बुरी तरह मृत्यु करानेवाले, मिठाई से लिप्त विषान्न के समान हैं, इनसे सदा बचना ही चाहिए ॥७॥

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    विषय

    मधुर परन्तु विनाशकारी

    पदार्थ

    [१] (अक्षासः) = ये जुए के पासे (इत्) = निश्चय से (अंकुशिनः) = अंकुशवाले हैं, जैसे अंकुश हाथी को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करता है वैसे ही ये पासे जुवारी को द्यूत सभा की ओर धकेलते हैं । (नितोदिन:) = जैसे एक चाबुक घोड़े को मार्ग पर तेजी से दौड़ने के लिये प्रेरित करता है, उसी प्रकार ये पासे जुवारी को सभास्थल की ओर तेजी से पग उठवाते हैं । [२] (निकृत्वान:) = वहाँ सभास्थल में हारने पर यह जुवारी का कर्तन करनेवाले हैं। (तपनाः) = उसके हृदय को संतप्त करनेवाले हैं। (तायिष्णवः) = इन पासों का स्वभाव ऐसा है कि ये इसके परिवार के अन्य सदस्यों को भी सतत संतप्त करते हैं। [३] (कुमारदेष्णाः) = अन्ततः ये बड़ी बुरी मार को देनेवाले हैं। (जयतः) = जीतते हुए के (पुनः हण:) = फिर मारनेवाले हैं। एक दाव सीधा पड़ा और कुछ जीत हुई, परन्तु अगला ही दाव उलटा पड़ जाता है और फिर हार की हार हो जाती है, सब जीत हार में परिवर्तित हो जाती है । [३] (मध्वा संपृक्ताः) = ऊपर से मधु से सम्पृक्त हैं, बड़े मीठे प्रतीत होते हैं, परन्तु (कितवस्य वर्हणा) = ये पासे जुवारी की जड़ को ही उखाड़ डालनेवाले हैं [बर्हयति = destroy ] । विजय की आशा से ये बड़े मीठे प्रतीत होते हैं, परन्तु पराजय के होने पर ये समूल विनाश कर डालते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ये पासे ऊपर से मधुर हैं, परन्तु परिणाम में विनाशकारी हैं।

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    विषय

    उत्तम अध्यक्षों का वर्णन।

    भावार्थ

    उत्तम अध्यक्षों का वर्णन। ये (अक्षासः) अध्यक्षजन (इत्) ही (अंकुशिनः) अंकुश, अर्थात् हाथी जैसे २ बड़े पशुओं के तुल्य बड़ों बड़ों को भी सन्मार्ग पर चलाने वाले, वशीकरण साधनों से सम्पन्न (नि-तोदिनः) अश्व, बैल आदि के समान कार्य-भार वहन करके चलाने वाले शासकों को भी व्यथित कर सन्मार्ग में प्रेरित करने के साधनों को सारथि के तुल्य रखने वाले, (नि-कृत्वानः) दुष्टों को जड़मूल से छेदन करने वाले, (तपनाः) सूर्य की किरणों के तुल्य तपाने वाले, तेजस्वी, और (तापयिष्णवः) दुष्टों को संतापित करने वाले, (कुमार-देष्णाः) कुत्सित भावों के नाशक शिष्यों को ज्ञान देनेवाले गुरुजनों के समान कुत्सित व्यवहार वालों के नाशक, वा युद्धक्रीड़ा करने वाले वीरों को धन पुरस्कारादि देने वाले और (जयतः) विजय करने वाले (कितवस्य) “तेरा क्या २” इस प्रकार ललकारने वाले को (पुनर्-हणः) फिर से या बार २ दण्डित करने या मारने वाले, (मध्वा) मधुर वचन और शत्रु को कंपा देने वाले बल से (सम्पृक्ताः) युक्त वा (मध्वा सम्पृक्ताः) मधु अर्थात् अन्न के द्वारा अपने स्वामी से सम्बद्ध, वेतनबद्ध, (बर्हणा) स्वामी को बढ़ाने और शत्रु के नाश करने वाले हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अक्षासः-इत्) अक्षाः खलु हि (अङ्कुशिनः-नितोदिनः) अङ्कुशवन्तः-अङ्कुशधारिण इव नितोदकाः-व्यथाकारिणः (निकृत्वानः) वंशच्छेदकाः (तपनाः-तापयिष्णवः) सन्तापकास्तापशीलाः (कुमारदेष्णाः) कुत्सितमृत्युदेयं येषां तथाभूता अतिकष्टमृत्युहेतुकाः “देष्णं दातुं योग्यम्” [ऋ०२।९।४ दयानन्दः] (जयतः कितवस्य पुनर्हणः) जयं कुर्वतः कितवस्य पुनर्घातकाः (मध्वा बर्हणा सम्पृक्ताः) परिवृद्धेन मधुना संयुक्ता विषवत् सन्ति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The dice hold the gambler by the hook, pierce like a dagger, hew down the man and even his family from the root, as a hatchet, burn like fire and torture like incessant pain. For the winner, they bring joyous gifts for the time but later in turn they destroy, and though soaked in honey for the moment, they tear the gambler to pieces at the end.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जुगाराचे फासे जिंकणाऱ्यासाठीही ते कष्ट देणारे, वाईट तऱ्हेने मृत्यू करविणाऱ्या मिठाईतील विषान्नाप्रमाणे आहेत. त्यांच्यापासून बचाव केला पाहिजे. ॥७॥

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