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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अबु॑ध्रमु॒ त्य इन्द्र॑वन्तो अ॒ग्नयो॒ ज्योति॒र्भर॑न्त उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु । म॒ही द्यावा॑पृथि॒वी चे॑तता॒मपो॒ऽद्या दे॒वाना॒मव॒ आ वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अबु॑ध्रम् । ऊँ॒ इति॑ । त्ये । इन्द्र॑ऽवन्तः । अ॒ग्नयः॑ । ज्योतिः॑ । भर॑न्तः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टिषु । म॒ही इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । चे॒त॒ता॒म् । अपः॑ । अ॒द्य । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अबुध्रमु त्य इन्द्रवन्तो अग्नयो ज्योतिर्भरन्त उषसो व्युष्टिषु । मही द्यावापृथिवी चेततामपोऽद्या देवानामव आ वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अबुध्रम् । ऊँ इति । त्ये । इन्द्रऽवन्तः । अग्नयः । ज्योतिः । भरन्तः । उषसः । विऽउष्टिषु । मही इति । द्यावापृथिवी इति । चेतताम् । अपः । अद्य । देवानाम् । अवः । आ । वृणीमहे ॥ १०.३५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में सूर्य, उषा, द्युलोक, पृथिवीलोकों से उपयोग लेना, योगी विद्वानों से योगशिक्षा और पारिवारिक जनों का परस्पर वर्तना दिखलाया है।

    पदार्थ

    (उषसः-व्युष्टिषु) उषोवेला-प्रातर्वेला के अन्धकार दूर होनेवाले अवसरों में (त्ये-इन्द्रवन्तः-अग्नयः) वे सूर्यवाले-सूर्य सूर्य के आश्रित रहनेवाले किरण या परमात्मावाले-परमात्मा के आश्रित रहनेवाले उपासक विद्वान् जन (ज्योतिः-भरन्तः) प्रकाश धारण करनेवाले या ज्ञानज्योति धारण करनेवाले (अबुध्रम्) प्रादुर्भूत होते हैं या प्रबुद्ध हो जाते हैं (मही द्यावापृथिवी-अपः-चेतताम्) महत्त्वपूर्ण द्युलोक पृथ्वीलोक या स्त्री-पुरुष अपना कर्म प्रारम्भ कर देते हैं (देवानाम्-अवः-अद्य-आ वृणीमहे) उन किरणों या उपासक विद्वानों के रक्षण को हम माँगते हैं-चाहते हैं, निज जीवन में धारण करने को ॥१॥

    भावार्थ

    प्रातःकाल होते ही अन्धकार को हटानेवाली सूर्य की किरणें द्युलोक पृथिवीलोक को प्रकाशित कर देती हैं। उन पर कार्य प्रारम्भ हो जाने के लिये जीवनरक्षा के निमित्त उनको सेवन करना चाहिए तथा प्रातः होते ही अज्ञानान्धकार मिटानेवाले परमात्मा के उपासक विद्वान् जाग जाते हैं, स्त्री-पुरुषों को कार्य-व्यवहार चलाने को ज्ञानप्रकाश देते हैं, उनके रक्षण में जीवन उन्नत करना चाहिए ॥१॥

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    विषय

    इन्द्रवान् अग्नियों का उद्बोधन

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रवन्तः) = प्रभु की उपासनावाली, अर्थात् प्रभु की उपासना से युक्त (त्ये) = वे (अग्नयः) = यज्ञाग्नियाँ (अबुधम्) = हमारे गृहों में उबुद्ध हों। हम इन्द्र का उपासन करें और घरों में अग्निहोत्र के करनेवाले हों। [२] हम (उषसः व्युष्टिषु) = उषःकालों के निकलने पर, जब उषाएँ अन्धकार को दूर करें, उस समय (ज्योतिः भरन्तः) = स्वाध्याय द्वारा अपने अन्दर ज्ञान की ज्योति को भरनेवाले हों। [३] (मही) = 'मह पूजायाम् ' प्रभु की पूजा में लगे हुए (द्यावापृथिवी) = हमारे लोक व पृथ्वीलोक, अर्थात् मस्तिष्क और शरीर (अपः) = अपने कर्त्तव्य कर्मों को (चेतताम्) = जाननेवाले हों । हमारे मस्तिष्क में ज्ञान हो तथा शरीर में शक्ति हो। इस प्रकार हम समझदारी से अपने कर्त्तव्य कर्मों का पालन कर सकें। [४] इस प्रकार ज्ञान व शक्ति से अपने कर्त्तव्यों में पवित्र व सफल होते हुए हम (अद्य) = आज (देवानाम्) = देवों के (अवः) = रक्षण की (वृणीमहे) = याचना करते हैं । हम सब देवों से रक्षणीय हों। हम अपने जीवनों में दैवी सम्पत्ति के रक्षण करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। हमारे घरों में अग्निहोत्र हो । स्वाध्याय के द्वारा हम अपने में ज्योति को भरनेवाले हों।

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    विषय

    विश्वेदेव। शिष्यों, जिज्ञासुओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (त्ये) वे (अग्नयः) अग्नियों के समान तेजस्वी, ज्ञानवान् वा किरणों के समान विद्वान् जन (इन्द्र-वन्तः) उत्तम प्रभु वा गुरु को अपने बीच में रखते हुए, (उषसः व्युष्टिषु) प्रभात वेलाओं के प्रकट होने पर (ज्योतिः भरन्तः) अपने में तेज प्रकाश और ज्ञान को धारण करते हुए (अब्रुधम् उ) बोधवान् होजाते हैं। (मही) पूज्य (द्यावा पृथिवी) सूर्य भूमिवत् माता पिता जन भी (अपः चेतताम्) कर्मों का ज्ञान करें, करावें। (अद्य) आज हम (देवानाम् अवः आवृणीमहे) विद्वान् पुरुषों का ज्ञान सत्संग उनकी रक्षा, प्रेम आदि प्राप्त करें वा विद्याभिलाषी शिष्यों का अपने पास आगमन चाहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः- १, ६, ९, ११ विराड्जगती। २ भुरिग् जगती। ३, ७, १०, १२ पादनिचृज्जगती। ४, ८ आर्चीस्वराड् जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। १३ निचृत् त्रिष्टुप्। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते सूर्योषोद्युलोकपृथिवीलोकपदार्थेभ्य उपयोगग्रहणम्, विदुषां योगिनां सङ्गत्या योगशिक्षणम्, पारिवारिकजनानां पारस्परिकवर्तनं च वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (उषसः व्युष्टिषु) उषोवेलायास्तमोव्युदसनावसरेषु (त्ये इन्द्रवन्तः-अग्नयः) ते सूर्यवन्तः सूर्याश्रिताः किरणाः परमात्मवन्तः परमात्मोपासका विद्वांसो वा (ज्योतिः-भरन्तः) प्रकाशं धारयन्तो ज्ञानज्योतिर्धारयन्तो वा (अबुध्रम्) प्रादुर्भवन्ति प्रबुद्धा भवन्ति वा (मही द्यावापृथिवीअपः-चेतताम्) महत्यौ द्यावापृथिव्यौ महत्त्वपूर्णौ द्युलोकपृथिवीलोकौ स्त्रीपुरुषौ वा स्वकीयं कर्म प्रारभेते (देवानाम्-अवः-अद्य-आ वृणीमहे) तेषां रश्मिरूपदेवानां विदुषामुपासकानां वा रक्षणं वयं याचामहे निजजीवने धारयितुम् ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In the early hours of the dawn, those flames of morning fire bearing light and energy of the sun awake and awaken the great heaven and earth, dispelling the darkness, and arouse the people to the karmic business of the day. In this very morning hour of the day, we pray for the protection and promotive energy of the divinities of nature and humanity for enlightenment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रात:काळी अंधार नष्ट करणारी सूर्याची किरणे द्युलोक पृथ्वीलोक प्रकाशित करतात. त्यांचे कार्य प्रारंभ होण्यासाठी जीवन रक्षणानिमित्त त्यांचे सेवन केले पाहिजे व प्रात:काळ होताच अज्ञानांधकार मिटविणाऱ्या परमात्म्याचे उपासक विद्वान जागे होतात व स्त्री-पुरुषांना कार्य-व्यवहार चालविण्यासाठी ज्ञानप्रकाश देतात. त्यांच्या रक्षणासाठी जीवन उन्नत केले पाहिजे. ॥१॥

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