ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
उ॒षासा॒नक्ता॑ बृह॒ती सु॒पेश॑सा॒ द्यावा॒क्षामा॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । इन्द्रं॑ हुवे म॒रुत॒: पर्व॑ताँ अ॒प आ॑दि॒त्यान्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒पः स्व॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒षसा॒नक्ता॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । सु॒ऽपेश॑सा । द्यावा॒क्षामा॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । इन्द्र॑म् । हु॒वे॒ । म॒रुतः॑ । पर्व॑तान् । अ॒पः । आ॒दि॒त्यान् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒पः । स्वरिति॑ स्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषासानक्ता बृहती सुपेशसा द्यावाक्षामा वरुणो मित्रो अर्यमा । इन्द्रं हुवे मरुत: पर्वताँ अप आदित्यान्द्यावापृथिवी अपः स्व: ॥
स्वर रहित पद पाठउषसानक्ता । बृहती इति । सुऽपेशसा । द्यावाक्षामा । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । इन्द्रम् । हुवे । मरुतः । पर्वतान् । अपः । आदित्यान् । द्यावापृथिवी इति । अपः । स्व१रिति स्वः ॥ १०.३६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा ने समस्त दिव्य पदार्थ तथा प्राण आदि शरीर के उपयोगी भाग रचे हैं। उनसे लाभ लेना चाहिए, यह कहा है।
पदार्थ
(बृहती उषासानक्ता) महत्त्वपूर्ण दिन-रात या जीवन में अभ्युदय-निःश्रेयस (सुपेशसा द्यावाक्षामा) उत्तम प्रकार निरूपण करने योग्य द्युलोक पृथिवीलोक जीवन में ज्ञान कर्म (मित्रः-वरुणः-अर्यमा) अग्नि, मेघ, सूर्य या जीवन में श्वास-प्रश्वास मुख्य प्राण (हुवे) इसको आमन्त्रित करता हूँ या धारण करता हूँ (इन्द्रं मरुतः पर्वतान्) विद्युत् विविध वायुओं, पर्वतों को, जीवन में अन्तरात्मा नाडीगत प्राणों को जो पर्ववाले-जोड़ोंवाले अङ्गों को (अपः-आदित्यान् द्यावापृथिवी) जलकिरणों, प्रकाश, भूभाग, जीवन में रस लेनेवाले रक्ताशयों, तेज और धारणबल को (अपः-स्वः) अन्तरिक्ष प्रकाशलोक को या जीवन में शरीरान्तर्गत अवकाश और सम्यक् प्रेरणा करनेवाले मस्तिष्क को धारण करता हूँ ॥१॥
भावार्थ
महत्त्वपूर्ण दिन-रात, अग्नि, मेघ, सूर्य, वायु, पर्वत, जल, किरणें, प्रकाश, भूतल, अन्तरिक्ष, प्रकाशलोक, परमात्मा, नाडीगत प्राण, जोड़ोंवाले अङ्ग रस लेनेवाले रक्ताशय तेज और धारण बल अवकाश-रोम छिद्रादि और मस्तिष्क जीवन में धारण करने योग्य उपयोगी पदार्थ हैं ॥१॥
विषय
देवाह्वान व स्वर्ग
पदार्थ
[१] मैं (उषासानक्ता) = उषा व रात्रि को (हुवे) = पुकारता हूँ । उषा जैसे अन्धकार का दहन कर प्रकाश को फैलाती है, मैं भी इसी प्रकार अज्ञानान्धकार को दूर करके ज्ञान के प्रकाश को फैलानेवाला बनूँ। नक्त=अर्थात् रात्रि जिस प्रकार उचित लज्जावाली होती हुई अपने को अन्धकार में छिपा लेती है उसी प्रकार मैं भी उचित लज्जाशीलतावाला व 'ही' के बलवाला बोता हुआ अपने को अप्रसिद्धि [obseurity] में ही रखनेवाला बनूँ। [२] (बृहती) = खूब बढ़ी हुई विशाल (सुपेशसा) = उत्तम रूपवाली (द्यावाक्षामा) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (हुवे) = मैं पुकारता हूँ । द्युलोक व पृथिवीलोक विशाल व सुरूप हैं। मैं भी अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को अत्यन्त विशाल बनाने का प्रयत्न करता हूँ, मैं अपने ज्ञान को खूब ही बढ़ाता हूँ। साथ ही मैं अपने पृथिवी के समान शरीर को सुरूप बनाता हूँ। स्वास्थ्य के साधन से मेरा शरीर सौन्दर्यवाला होता है। [३] (वरुणः मित्रः अर्यमा) = 'वरुण, मित्र व अर्यमा' ये तीनों देव मेरे से पुकारे जाते हैं। मैं द्वेष का निवारण करनेवाला 'वरुण' बनता हूँ, सब के साथ स्नेह करता हुआ 'मित्र' होता हूँ और सदा काम-क्रोधादि शत्रुओं का नियमन करनेवाला 'अर्यमा' बनता हूँ 'अरीन् यच्छति' । [४] इस प्रकार सब शत्रुओं का नियमन करके मैं ('इन्द्रं') = इन्द्रियों के अधिष्ठाता को (हुवे) = पुकारता हूँ। सब असुरों का संहार करनेवाला इन्द्र है मैं भी अपने में असुरवृत्तियों का संहार करके 'इन्द्र' बनता हूँ । [५] इन्द्र बनने के लिये ही मैं ('मरुता') = प्राणों को (हुवे) = पुकारता हूँ । प्राणसाधना ही तो मुझे आसुर - वृत्तियों के संहार में समर्थ बनाती है। इसी से मरुत् इन्द्र के सैनिक कहलाते हैं । [६] (पर्वतान् हुवे) = मैं पर्वतों को पुकारता हूँ। आचार्य ने यजुर्वेद ३५, १५ में पर्वत का अर्थ ज्ञान व ब्रह्मचर्य किया है। 'अन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन' इस मन्त्र भाग में ब्रह्मचर्य अर्थ ही सुसंगत प्रतीत होता है- 'मृत्यु को ब्रह्मचर्य से अन्तर्हित करे' । मैं यही आराधना करता हूँ कि मेरे में ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठित हो, उस ब्रह्मचर्य से मैं ज्ञान को प्राप्त करनेवाला बनूँ। [७] (अपः) = जलों को मैं पुकारता हूँ। शरीर में ये जल रेतःकणों के रूप में निवास करते हैं। इन्हें मैं अपने में धारण करता हूँ। [८] इन रेतः कणों के धारण से (आदित्यान्) = मैं आदित्यों को पुकारता हूँ । इन आदित्यों की तरह उत्तम गुणों का आदान करनेवाला बनता हूँ। ये आदित्य भी तो सारे समुद्र में से मधुर जल को ही लेते हैं । [९] इस प्रकार आदित्य बनकर मैं 'द्यावापृथिवी अपः' द्युलोक, पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोक सभी को ही सुन्दर बनाता हूँ । द्युलोक मेरा मस्तिष्क है, इसे मैं ज्ञानोज्ज्वल करता हूँ । पृथिवीलोक मेरा शरीर है, इसे मैं दृढ़ बनाता हूँ । अन्तरिक्षलोक मेरा हृदय है, इसे मैं निर्मल रखने का प्रयत्न करता हूँ । [१०] इस प्रकार त्रिलोकी को सुन्दर बनाकर मैं ('स्वः') = स्वर्गलोक को, प्रकाशमय लोक को पुकारता हूँ। त्रिलोकी का सौन्दर्य मुझे स्वर्ग में आसीन करता है। मुझे सुख ही सुख प्राप्त होता है, मेरे दुःखों व नरक का अन्त हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- मैं सब देवताओं का अनुकरण करता हुआ अपने जीवन को स्वर्ग-तुल्य बनाता हूँ।
विषय
विश्वेदेव। दिन रात्रिवत् कर्मनिष्ठ स्त्री पुरुषों तथा आदरणीय पुरुषों का सत्कार।
भावार्थ
(उषासा नक्ता) प्रभातवेला या दिन-रात्रिकाल के समान ज्ञान और कर्मनिष्ठ स्त्री पुरुष, (बृहती) बड़े (सु-पेशसा) उत्तम रूपवान्, सुन्दर, ऐश्वर्ययुक्त, (द्यावा क्षामा) सूर्य, भूमि के तुल्य सर्वोपकारक, तेजस्वी सर्वाश्रय और (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, (मित्रः) स्नेहवान्, (अर्यमा) दुष्ट पुरुषों के नियन्ता, न्यायाधीश, इनको और (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता, (मरुतः) वायुवत् बलवान्, (पर्वतान्) पर्वतों के समान अचल, मेघों के समान सर्वपालक, (अपः) जलों के समान शीतल, (द्यावा पृथिवी) सूर्य और भूमिवत् तेजस्वी, सर्वाश्रय और (स्वः) आकाशवत् सुखप्रद, (अपः) अन्तरिक्ष के समान विशाल, इन सब जनों के मैं (हुवे), आदर से बुलाऊं। इसी प्रकार उन सब दिव्य पदार्थों को (हुवे) मैं अपने उपयोग में लूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते समस्तदिव्यपदार्थाः कल्याणनिमित्ताः परमात्मना रचिताः शरीरे च विविधाः प्राणादयोऽप्यवयवा जीवनहितसाधका रचिताः सन्तीति प्रोक्तम्।
पदार्थः
(बृहती उषासानक्ता) महत्त्वपूर्णे अहोरात्रे “अहोरात्रे वा उषासानक्तौ [ऐ० २।४] उषासानक्ता रात्रिदिने [यजु० २७।१७ दयानन्दः] जीवनेऽभ्युदयनिःश्रेयसौ (सुपेशसा द्यावाक्षामा सुरूपौ सुनिरूपणीयौ द्युलोकभूलोकौ “इमे वै द्यावापृथिवी द्यावाक्षामा” [श० ६।७।२।३] जीवनस्य सुनिरूपणीये ज्ञानकर्मणी (मित्रः-वरुणः-अर्यमा) अग्निः-मेघः सूर्यः-जीवने श्वासप्रश्वासौ मुख्यप्राणश्च (हुवे) इत्येतान् आमन्त्रये-धारयामि (इन्द्रं मरुतः पर्वतान्) विद्युतं विविध-वायून् पर्वतान् तथा जीवनेऽन्तरात्मानं नाडीगतप्राणान् पर्ववतोऽवयवान् (अपः-आदित्यान् द्यावापृथिवी) जलम्-किरणान् प्रकाशभूभागौ जीवने रसं रसादातॄन्-आशयान् रक्ताशयान् तेजोधारणबले (अपः स्वः) अन्तरिक्षम् “आपोऽन्तरिक्षनाम” [निघं०१।३] प्रकाशलोकं च जीवने शरीरान्तर्गतमवकाशं स्वीरयितारं मस्तिष्कं च हुवे-सम्यग्धारयामि ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I invoke the rising dawn of the light of day and the soothing darkness of restful night, the radiant illuminative heaven and the vast sheltering stabilising earth, both great and expansive, beautiful and beatific, I invoke Varuna, oceans of earth and spatial vapours, Mitra, friendly warmth of the sun, Aryama, refreshing breezes, Indra, infinite energy and power of nature, Maruts, stormy forces of the winds, clouds and mountains, sun rays, zodiacs of the sun, radiative energy of the sun and magnetic and gravitational energy of earth, the middle regions of space for expansion and the highest regions of light for illumination.
मराठी (1)
भावार्थ
महत्त्वपूर्ण दिवस-रात्र, अग्नी, मेघ, सूर्य, विद्युत, वायू, पर्वत, जल, किरणे, प्रकाश, भूतल, अंतरिक्ष, प्रकाशलोक, परमेश्वराने माणसांच्या लाभासाठी रचलेले आहे. त्यांच्यापासून लाभ घेतला पाहिजे व अभ्युदय नि:श्रेयस श्वास प्रश्वास प्राणी, अंतरात्मा नाडीतील प्राण, सांधेयुक्त अवयव, रस घेणारे रक्ताशय, तेज व धारण बल अवकाश-रोम छिद्र इत्यादी व मस्तिष्क जीवनात धारण करण्यायोग्य उपयोगी पदार्थ आहेत. ॥१॥
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