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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
ऋषिः - सुहस्त्यो घौषेयः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
स॒मा॒नमु॒ त्यं पु॑रुहू॒तमु॒क्थ्यं१॒॑ रथं॑ त्रिच॒क्रं सव॑ना॒ गनि॑ग्मतम् । परि॑ज्मानं विद॒थ्यं॑ सुवृ॒क्तिभि॑र्व॒यं व्यु॑ष्टा उ॒षसो॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नम् । ऊँ॒ इति॑ । त्यम् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । उ॒क्थ्य॑म् । रथ॑म् । त्रि॒ऽच॒क्रम् । सव॑ना । गनि॑ग्मतम् । परि॑ऽज्मानम् । वि॒द॒थ्य॑म् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । व॒यम् । विऽउ॑ष्टौ । उ॒षसः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानमु त्यं पुरुहूतमुक्थ्यं१ रथं त्रिचक्रं सवना गनिग्मतम् । परिज्मानं विदथ्यं सुवृक्तिभिर्वयं व्युष्टा उषसो हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठसमानम् । ऊँ इति । त्यम् । पुरुऽहूतम् । उक्थ्यम् । रथम् । त्रिऽचक्रम् । सवना । गनिग्मतम् । परिऽज्मानम् । विदथ्यम् । सुवृक्तिऽभिः । वयम् । विऽउष्टौ । उषसः । हवामहे ॥ १०.४१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में ‘अश्विनौ’ शब्द से प्राण-अपान गृहीत हैं । उनका प्रातः प्राणायामरूप से चलाना स्वास्थ्यवर्धक तथा मन को एकाग्र करनेवाला है, यह वर्णन किया है ।
पदार्थ
(वयम्-उषसः-व्युष्टौ) हम प्रकाशमान वेला में प्रातःकाल (समानं त्यम्-उ) समान धर्मवाले उस ही (पुरुहूतम्) अतीव ह्वातव्य-ग्रहण करने योग्य (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (त्रिचक्रम्) तीन चक्र-स्तुति प्रार्थना उपासना, चक्रवत् वर्तमान तथा तृप्तिकर जिसके हैं, ऐसे (परिज्मानम्) सर्वतः पृथ्वीभूमि जिसकी है, ऐसे (विदथ्यम्) अनुभव करने योग्य (रथम्) रमणीय मोक्ष को (सुवृक्तिभिः) सुप्रवृत्तियों-निर्दोष क्रियाओं से (सवना गनिग्मतम्) अवसर पर प्राप्त करने योग्य को (हवामहे) निमन्त्रित करें-धारण करें ॥१॥
भावार्थ
प्रातःकाल उषा वेला में स्तुति प्रार्थना उपासना तृप्तिसाधन अङ्गोंवाले अनुभव करने योग्य मोक्ष को निर्दोष भावनाओं-क्रियाओं से जीवन में धारण करना चाहिए ॥१॥
विषय
उत्तम शरीर - रथ
पदार्थ
[१] गत सूक्तों की ऋषिका 'घोषा काक्षीवती' थी, प्रभु के नाम का उच्चारण करनेवाली तथा शत्रुसंहार के लिये कटिबद्ध । इस घोषा का पुत्र 'घौषेय' है। खूब ही प्रभु के नाम का उच्चारण करनेवाला । यह 'सुहस्त्य' है, उत्तम हाथोंवाला है, कार्यकुशल है । 'प्रभु स्मरण करनेवाला कार्यकुशल' व्यक्ति उत्तम शरीर-रथ की कामना करता है। कहता है कि (वयम्) = हम (उषसो व्युष्टौ) = प्रातः काल के होते ही (त्यं उ) = उस ही (रथम्) = रथ को (हवामहे) = पुकारते हैं, उस शरीररथ के लिये प्रार्थना करते हैं जो कि [क] (समानम्) = सार आनयति हमें सम्यक् उत्साहयुक्त करता है, जीवन वही ठीक है जो कि उत्साह - सम्पन्न हो । [ख] (पुरुहूतम्) = जो बहुतों से पुकारा जाता है अथवा जिसका पुकारना, पालन व पूरण करनेवाला है। जिस शरीर को प्राप्त करके हम अपनी न्यूनताओं को दूर करके उन्नतिपथ पर आगे बढ़ सकें। [ग] (उक्थ्यम्) = जो रथ उक्थों में उत्तम है, स्तोत्रों में उत्तम है । जीवन वही उत्तम है कि जो प्रभु-स्तवन से युक्त हो । [घ] (त्रिचक्रम्) = जो रथ त्रिचक्र है, ज्ञान, कर्म व उपासना ही इस रथ के तीन चक्र हैं। अथवा 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप तीन चक्रोंवाला यह रथ है । [ङ] (सवना गनिग्मतम्) = जो रथ तीनों सवनों तक चलनेवाला है। प्रातः सवन २४ वर्ष तक है, माध्यन्दिन सवन अगले ४४ वर्षों का है और तृतीय सवन अन्तिम ४८ वर्षों का है। इस प्रकार यह रथ ११६ वर्षों तक चलनेवाला हो। [च] (परिज्मानम्) = उस रथ को हम पुकारते हैं जो कि 'परितोगन्तारम्', अपने दैनिक कर्त्तव्यों को उत्तमता से निभानेवाला है । [छ] (विथ्यम्) = [विदथः यज्ञ नाम नि० ३ । १७, विदथानि वेदनानि नि० ६ । ७] यह रथ यज्ञों में उत्तम हो। हम जीवन में यज्ञों को करनेवाले हों। अथवा हम जीवन के लिये आवश्यक धनों को कमानेवाले हों। [२] 'ऐसे रथ को हम प्राप्त कैसे होंगे ?' इसका उत्तर 'सुवृक्तिभिः' शब्द से दिया गया है । सुष्ठु दोषवर्जन से हम ऐसे रथ को प्राप्त करेंगे। दोषों को दूर करते जाना ही अपने जीवन को उत्तम बनाने का मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा यह शरीररूप रथ दोषवर्जन के द्वारा उत्तम बने ।
विषय
दो अश्वी। त्रिकाल शक्तियुक्त प्रभु की स्तुति। उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(वयम्) हम लोग (उषसः व्युष्टा) प्रातः-प्रभात वेला के प्रकट हो जाने पर (त्यम् उ) उस परम (समानम्) सबके प्रति समान (पुरु-हूतम्) बहुतों से स्तुति प्रार्थना करने योग्य, (उक्थ्यं) वेद द्वारा उपदिष्ट, (त्रिचक्रं रथं) तीन चक्र वाले रथ के समान भूत, भवत्, भविष्यत् तीनों चक्रों वाले, वा तीनों लोक वा तीनों सत्व, रज, तमरूप तीन चक्रवत् तीन महान् शक्तियों से युक्त, वेगवान्, रसस्वरूप, (सवना) समस्त ऐश्वर्यों और लोकों को प्राप्त व्यापक (परिज्मानं) सर्वत्र व्यापक, (विदथ्यं) ज्ञानमय प्रभु को (सु-वृक्तिभिः) उत्तम स्तुतियों से (हवामहे) हम प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
३ सुहस्त्या धौषेयः ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती ॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते ‘अश्विनौ’ शब्देन प्राणापानौ गृह्येते । प्रातरेव तयोः प्राणायामविधिना चालनं स्वास्थ्यकरं तथा मनस एकाग्रत्वञ्च भवतीति प्रदर्शितम् ।
पदार्थः
(वयम्-उषसः-व्युष्टौ) वयं भासमानायां प्रकाशवेलायां प्रातः (समानं त्यम्-उ ) समानधर्माणं तमेव (पुरुहूतम्) अतीव ह्वातव्यं ग्राह्यम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (त्रिचक्रम्) त्रीणि चक्राणि-स्तुतिप्रार्थनो-पासनारूपाणि चक्रवदावर्तनीयानि तृप्तिकराणि वा यस्य तम् “चक तृप्तियोगे” [भ्वादिः] (परिज्मानम्) परितो ज्मा पृथिवी प्रथिता भूमिर्यस्य तथाभूतम् (विदथ्यम्) वेदनीयमनुभवनीयम् (रथम्) रमणीयं मोक्षम् (सुवृक्तिभिः) सुप्रवृत्तिभिर्निर्दोषक्रियाभिः (सवना-गनिग्मतम्) अवसरे प्रापणीयम् (हवामहे) निमन्त्रयामहे-धारयेम ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, harbingers of new light and energy, in the light of the dawn with holy chant of mantric formulae, we invoke and call for that constant and invariable, universally loved and invoked, venerable and purposefully specialised three stage three wheeled chariot which would be constantly on the move to reach yajnic programmes all over the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रात:काळी, उष:काळी स्तुती, प्रार्थना, उपासनेद्वारे तृप्ती देणाऱ्या अंगानी अनुभव घेण्यायोग्य मोक्षाला निर्दोष भावना-क्रियांनी जीवनात धारण केले पाहिजे. ॥१॥
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