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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒द्मा ते॑ अग्ने त्रे॒धा त्र॒याणि॑ वि॒द्मा ते॒ धाम॒ विभृ॑ता पुरु॒त्रा । वि॒द्मा ते॒ नाम॑ पर॒मं गुहा॒ यद्वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ आज॒गन्थ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । त्रे॒धा । त्र॒याणि॑ । वि॒द्म । ते॒ । धाम॑ । विऽभृ॑ता । पु॒रु॒ऽत्रा । वि॒द्म । ते॒ । नाम॑ । प॒र॒मम् । गुहा॑ । यत् । वि॒द्म । तम् । उत्स॑म् । यतः॑ । आ॒ऽज॒गन्थ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्मा ते अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृता पुरुत्रा । विद्मा ते नाम परमं गुहा यद्विद्मा तमुत्सं यत आजगन्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । ते । अग्ने । त्रेधा । त्रयाणि । विद्म । ते । धाम । विऽभृता । पुरुऽत्रा । विद्म । ते । नाम । परमम् । गुहा । यत् । विद्म । तम् । उत्सम् । यतः । आऽजगन्थ ॥ १०.४५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (ते त्रेधा त्रयाणि विद्म) तेरे तीन प्रकार के तीन स्वरूपों को हम जानें (ते पुरुत्रा विभृता धाम विद्म) तेरे बहुत प्रकार से फैले हुए स्थानों को, खनिज वस्तुओं को जानें-जानते हैं (ते परमं नाम यत्-गुहा विद्म) तेरे अत्यन्त अभीष्ट प्रशंसनीय स्वरूप को जो विज्ञान क्रिया में है, उसे हम जानें (तम्-उत्सं यतः-आजगन्थ विद्म) उस स्रोत को भी हम जानें, जहाँ से तू उत्पन्न होता है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य जैसे अन्य-अन्य विज्ञानों में कुशलता प्राप्त करता है, वैसे-वैसे उसे अग्निविज्ञान में भी कुशलता प्राप्त करनी चाहिए। अर्थात् अग्नि के भिन्न-भिन्न रूप और उसके भिन्न-भिन्न उत्पत्तिस्थान तथा खनिज पदार्थ जिनसे अग्नि उत्पन्न होती है, उन्हें भी जानना चाहिए ॥२॥

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    विषय

    तीनों अग्नियों का स्रोत

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = त्रिलोकी में भिन्न-भिन्न रूपों में स्थित होनेवाली अग्नि ! (ते) = तेरे (त्रेधा) = तीन प्रकार के (त्रयाणि) = तीनों रूपों को (विद्या) = हम जानते हैं। मस्तिष्करूप द्युलोक में तू ज्ञानाग्नि के रूप से है, शरीर में जाठराग्नि के रूप से तथा हृदय में लोकानुग्रहात्मक अग्नि के रूप में । (पुरुत्रा) = बहुत प्रकार से (विभृता) = धारण किये गये (ते धाम) = [धामानि] तेरे तेजों को (विद्मा) = हम जानते हैं। ज्ञानाग्नि के रूप में तेरा तेज कर्मदोष को दूर करता है, जाठराग्नि के रूप में यह रोग-दोष का दूर करनेवाला है और 'नृमणा' अग्नि के रूप में यह स्वार्थ-दोष को भस्म करता है । [२] हम (ते परमं नाम) = तेरे उत्कृष्ट यश को (यत्) = जो (गुहा) = सामान्य लोगों से छिपा हुआ है, उनकी अनुभूति का विषय नहीं है, उसे विद्मा जानते हैं । इन अग्नियों को धारण करने के कारण इनका लाभ जीवन में अनुभव होता है, उसी समय इनका यश हमारे सामने प्रकट होता है । [३] हम (तम्) = उस (उत्सम्) = स्रोत को भी (विद्मा) = जानते हैं (यतः) = जहाँ से कि (आजगन्थ) = तुम प्रकट होते हो । वस्तुतः इन सब अग्नियों के प्रादुर्भाव का स्रोत वह प्रभु रूप महान् अग्नि ही है । सम्पूर्ण ज्ञान को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु ही देते हैं, जाठराग्नि की स्थापना करनेवाले वे ही हैं, हृदय में 'नृमणा' अग्नि का उदय प्रभु की कृपा से ही होता है। प्रभु का उपासन ही हमें स्वार्थ से ऊपर उठाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानाग्नि, जाठराग्नि व हृदयस्थ 'नृमणा' अग्नि प्रभु कृपा से ही प्रज्वलित होती हैं ।

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    विषय

    तीन लोकों में विद्यमान् उसके तीन रूप। उसका एक निगूढ़ रूप।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! (ते) तेरे हम (त्रेधा) तीन स्थानों में (त्रयाणि) तीन रूपों को (विद्म) जानें। (ते धाम) तेरे तेजों, नामों, जन्मों को भी (पुरुत्रा बिभृता विद्म) बहुत से बहुत प्रकार से, बहुत स्थानों में विविध प्रकार से धारित रूपों को भी जानें। (गुहा ते यत् परमं नाम विद्म) बुद्धिस्थ जो निगूढ़ तेरा परम स्वरूप है उसको भी हम जानें। हम (तम् उत्सं विद्म) उस कारणरूप निकास को जानें (यतः आ जगन्थ) जहां से तू हमें प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्ने ! (ते त्रेधा त्रयाणि विद्म) तव त्रिविधानि त्रीणि स्वरूपाणि सम्यगुपयोगतो जानीयाम (ते पुरुत्रा विभृता धाम विद्म) तव बहुत्र विधृतानि धामानि स्थानानि खनिजानि वस्तूनि जानीयाम (ते परमं नाम यत् गुहा विद्म) तव परममभीष्टतमं नाम प्रशंसनीयं स्वरूपं यद् विज्ञानक्रियायां तज्जानीयाम “गुहा बुद्धौ विज्ञाने” [ऋ० १।६७।४ दयानन्दः] (तम्-उत्सं यतः-आजगन्थ विद्म) तमुत्स्यन्दयितारमाशयं जानीयाम यत आगच्छसि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, universal vital energy, we know the three modes in which you menifest in three different forms, structures, properties and functions. All pervasive energy, we know the three regions in which you abide. For sure we know the deepest secret cave where your abode is since we know the infinite source from where you arise and manifest as Agni, Vayu and Aditya on earth, in sky and in heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस जसा इतर विज्ञानात कुशलता प्राप्त करतो तशी त्याने अग्निविज्ञानातही कुशलता प्राप्त केली पाहिजे. अग्नीचे भिन्न भिन्न रूप व त्याचे भिन्न भिन्न उत्पत्तिस्थान व खनिज पदार्थ, ज्यांच्यापासून अग्नी उत्पन्न होतो, त्यांनाही जाणले पाहिजे. ॥२॥

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