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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒मु॒द्रे त्वा॑ नृ॒मणा॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तर्नृ॒चक्षा॑ ईधे दि॒वो अ॑ग्न॒ ऊध॑न् । तृ॒तीये॑ त्वा॒ रज॑सि तस्थि॒वांस॑म॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षा अ॑वर्धन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रे । त्वा॒ । नृ॒ऽमनाः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । नृ॒ऽचक्षाः॑ । ई॒धे॒ । दि॒वः । अ॒ग्ने॒ । ऊध॑न् । तृ॒तीये॑ । त्वा॒ । रज॑सि । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । म॒हि॒षाः । अ॒व॒र्ध॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रे त्वा नृमणा अप्स्व१न्तर्नृचक्षा ईधे दिवो अग्न ऊधन् । तृतीये त्वा रजसि तस्थिवांसमपामुपस्थे महिषा अवर्धन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रे । त्वा । नृऽमनाः । अप्ऽसु । अन्तः । नृऽचक्षाः । ईधे । दिवः । अग्ने । ऊधन् । तृतीये । त्वा । रजसि । तस्थिऽवांसम् । अपाम् । उपऽस्थे । महिषाः । अवर्धन् ॥ १०.४५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (त्वा) तुझे (नृमणाः-नृचक्षाः) मनुष्यों में मननबल का प्रेरक तथा मनुष्यों के कर्म का द्रष्टा परमात्मा (दिवः-ऊधन्) द्युलोक के ज्योतिमण्डल में सूर्यरूप से, तथा (समुद्रे-अप्सु-अन्तः ईधे) अन्तरिक्ष में मेघों के अन्दर विद्युद्रूप में दीप्त करता है (तृतीये रजसि तस्थिवांसम्) तीसरे पृथिवीलोक में स्थित ओषधियों में कोष्ठों में वर्त्तमान, तथा (अपाम्-उपस्थे) जलप्रवाहों के मध्य में वर्तमान (महिषाः-अवर्धन्) ऋत्विज् विद्वान प्रकट करते हैं-बढ़ाते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा आग्नेय तत्त्व को द्युलोक में सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से, पृथिवी पर पार्थिव अग्नि के रूप में उत्पन्न करता है, पुनः ऋत्विक् लोग य विद्वान् उसे अपने विविध कार्यों में प्रकट करके उपयोग में लाते हैं ॥३॥

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    विषय

    'नृमणाः, नृचक्षाः, महिषः '

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्नि ! (त्वा) = तुझे (समुद्रे) = [ स मुद्] आनन्द की वृत्ति से युक्त (अप्सु अन्तः) = हृदयान्तरिक्ष के अन्दर (नृमणाः) = मनुष्यों के प्रति अनुग्रह युक्त मनवाला व्यक्ति (ईधे) = दीप्त करता है । लोकहित की वृत्तिवाला पुरुष 'नृमणाः ' है, यह अपने हृदय में एक अद्भुत उत्साह की अग्नि को जगाता है, वह अग्नि भी 'नृमणा: ' नामवाली से कही जाती है । [२] (नृचक्षाः) = मनुष्यों को ज्ञान का प्रकाश देनेवाला व्यक्ति (दिवः ऊधन्) = द्युलोक की छाती में, अर्थात् मस्तिष्क में (ईधे) = ज्ञानाग्नि को समिद्ध करता है । इसे समिद्ध करके ही तो वह औरों को प्रकाश देनेवाला होता है। [३] (तृतीये रजसि) = कर्मों की गोद में, अर्थात् क्रियामय जीवन बिताते हुए (महिषा:) = प्रभु के उपासक (अवर्धन्) = बढ़ाते हैं । जाठराग्नि को ठीक रखने के लिये दोनों ही बातें आवश्यक हैं । क्रियाशीलता भी आवश्यक है, इससे शरीर के रुधिराभिसरण में न्यूनता नहीं आती । उपासना भी आवश्यक है, इससे वृत्ति-वैषयिक नहीं बनती और हम अतिभोजनादि में पड़कर जाठराग्नि को बुझा नहीं लेते।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'नृमणा' बनकर हृदय की अग्नि को प्रज्वलित करें, 'नृचक्षा' बनकर ज्ञानाग्नि को तथा 'महिष' उपासक बनकर जाठराग्नि को ।

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    विषय

    ज्ञानद्रष्टा अग्नि। पक्षान्तर में राजा रूप अग्नि।

    भावार्थ

    (नृ-मणाः) मनुष्यों में मननशील, और (नृ-चक्षाः) मनुष्यों में सत्य ज्ञान का द्रष्टा हे (अग्ने) अग्ने ! (त्वा) तुझे, समुद्र में (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर से और (दिवः ऊधन्) आकाशस्थ मेघ में से प्राप्त करके प्रदीप्त कर लेता है। और (तृतीये रजसि तस्थिवांसम्) तीसरे लोक में स्थित सूर्यरूप (त्वा) तुझको (अपाम् उपस्थे) जलों के भी ऊपर (महिषाः) भूमि पर आने वाले किरण (अवर्धन्) तुझे अधिक शक्तिशाली बनाते हैं। वे तेरे ही महान् सामर्थ्य को बतलाते हैं। (२) उसी प्रकार राजारूप अग्नि को साक्षी रूप से जनसमूह और राज सभा में, और उत्तम पद पर विराजते हुए को वीर पुरुष बढ़ावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्ने ! (त्वा) त्वाम् (नृमणाः-नृचक्षाः) नृषु मननबलं प्रेरकः प्रजापतिः परमात्मा “प्रजापतिर्वै नृमणाः” [श० ६।७।४।३] स एव नृणां द्रष्टा तेषां कर्मव्यवहारस्य ज्ञाता परमात्मा “प्रजापतिर्वै नृचक्षाः” [श० ६।७।४।५] (दिवः-ऊधन्) द्युलोकस्य ज्योतिर्मण्डले सूर्यरूपेण, तथा (समुद्रे-अप्सु-अन्तः-ईधे) अन्तरिक्षे मेघरूपेषु जलेषु विद्युद्रूपेण दीपयति (तृतीये रजसि तस्थिवांसम्) तृतीये पृथिवीलोके स्थितं वर्तमानौषधिषु काष्ठेषु वर्तमानम् तथा (अपाम्-उपस्थे) जलप्रवाहाणां मध्ये वर्तमानम् (महिषाः-अवर्धन्) ऋत्विजो विद्वांसो “ऋत्विजो वै महिषाः” [श० १२।१।८।२] वर्धयन्ति प्रकटीकरणेन ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, the fluid energy excites and kindles you in the currents in the depths of the waters; in the region of light, the sun that illuminates the world of humanity produces and radiates you; and in the third region of the skies, the energy of the winds produces and augments you as you abide in the depths of the cloud.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आग्नेय तत्त्वाला द्युमंडळात सूर्यरूपाने, अंतरिक्षात विद्युतरूपाने, पृथ्वीवर पार्थिव अग्निरूपात उत्पन्न करतो. पुन्हा ऋत्विक् लोक किंवा विद्वान त्याला आपल्या विविध कार्यांत प्रकट करून उपयोगात आणतात. ॥३॥

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