ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
अक्र॑न्दद॒ग्निः स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद्वी॒रुध॑: सम॒ञ्जन् । स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धो अख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥
स्वर सहित पद पाठअक्र॑न्दत् । अ॒ग्निः । स्त॒नय॑न्ऽइव । द्यौः । क्षाम॑ । रेरि॑हत् । वी॒रुधः॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । स॒द्यः । ज॒ज्ञा॒नः । वि । हि । ई॒म् । इ॒द्धः । अख्य॑त् । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । भा॒नुना॑ । भा॒ति॒ । अ॒न्तरिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्रन्ददग्निः स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुध: समञ्जन् । सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धो अख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः ॥
स्वर रहित पद पाठअक्रन्दत् । अग्निः । स्तनयन्ऽइव । द्यौः । क्षाम । रेरिहत् । वीरुधः । सम्ऽअञ्जन् । सद्यः । जज्ञानः । वि । हि । ईम् । इद्धः । अख्यत् । आ । रोदसी इति । भानुना । भाति । अन्तरिति ॥ १०.४५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(द्यौः) द्युलोक में दीप्त विद्युदग्नि (स्तनयन्-इव यथा) शब्द करता हुआ चमकता है, तथा (अग्निः) यह पार्थिव अग्नि (क्षाम) पृथिवी के प्रति (अक्रन्दत्) जलता हुआ शब्द करता है (वीरुधः-समञ्जन् रेरिहत्) ओषधियों को काष्ठों को संसक्त हुआ-जलता हुआ भस्मी करने के लिए बार-बार चाटता है-स्पर्श करता है (सद्यः-जज्ञानः) तुरन्त प्रकट हुआ (हि-ईम्-इद्धः) इस प्रकार प्रज्वलित हुआ (अख्यत्) प्रत्यक्ष होता है (रोदसी-अन्तः-भानुना वि भाति) द्युलोक पृथिवीलोक के मध्य में दीप्ति से विशिष्टरूप से प्रकाशित होता है ॥४॥
भावार्थ
द्युलोक में सूर्यरूप से अग्नि प्रकाशमान होता है, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से और पृथ्वी पर काष्ठ इन्धन द्वारा पार्थिव अग्नि के रूप में प्रकाशित होता है, इस प्रकार अग्नितत्त्व द्यावापृथ्वीमय जगत् में प्रसिद्ध हुआ अन्य प्रदार्थों का प्रकाशक है ॥४॥
विषय
प्रकाशमय जीवन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार जब हम त्रिलोकी की इन अग्नियों को अपने में प्रज्ज्वलित करते हैं तो वे महान् (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (अक्रन्दत्) = हमारे हृदयों में हमारे कर्मों की प्रतिपादिका वाणियों का उच्चारण करते हैं। हमारे कर्त्तव्य का ज्ञान देते हैं, स्वं प्रभु (स्तनयन् इव द्यौ:) = गर्जना हुए द्युलोक के समान होते हैं। वे प्रभु (क्षामा) = हमारे इस पृथिवीरूप शरीर को (रेरिहत्) = आस्वादयुक्त बना देते हैं। प्रभु कृपा से 'भूयासं मधु सन्दृशः' इस मन्त्र भाग को हम अपने जीवन में घटा हुआ देखते हैं। हमारे इस शरीर के द्वारा होनेवाली सब क्रियाएँ माधुर्य को लिये हुए होती हैं । [२] वे प्रभु (वीरुधः) = [वि- रुह] विशिष्ट रोहणों, उत्त्थानों व उन्नतियों को (समञ्जन्) = हमारे जीवन में व्यक्त करते हैं । (सद्यः) = शीघ्र ही (जज्ञान:) = प्रादुर्भूत होते हुए वे प्रभु (हि) = निश्चय से (इद्ध:) = दीप्त हुए- हुए (वि अख्यद्) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनाते हैं। (अन्तः) = अन्तःस्थित हुए हुए वे प्रभु (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (भानुना) = दीप्ति से (आभाति) = समन्तात् प्रकाशित करते हैं। हमारा मस्तिष्क ज्ञान ज्योति से चमकने लगता है, तो यह शरीर स्वास्थ्य के तेज से दीप्त करते हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ – अग्निरूप प्रभु की प्रेरणा को सुनने पर हमारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है ।
विषय
आकाश रथ विद्युद् अग्नि। उसके समान राजा का वर्णन। उसके तुल्य विद्वान्। सूर्यवत् राजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार (द्यौः) आकाशगत तेजस्वी विद्युत् (स्तन-यन्) गर्जती हुई (क्षामा रेरिहित्) भूमि तक पहुंचती है और जिस प्रकार (अग्निः) आग (वीरुधः) नाना वनस्पतियों को (सम् अञ्जन्) जलाता, चमकाता हुआ (अक्रन्दत्) गर्जता, या शब्द करता है। उसी प्रकार (अग्निः) अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञानवान्, वीर और विद्वान् पुरुष (क्षामा रेरिहित्) भूमियों को, वा निर्बल शत्रु सेनाओं को प्राप्त करता हुआ और (वीरुधः) विपरीत रोक करने वाली बाधक सेनाओं का (सम् अञ्जन्) सान्मुख्य करता हुआ, उनको दग्ध या तेजस्वी करता हुआ वा (वीरुधः) विशेष वा विविध रूप से उत्पन्न होने वाली प्रजाओं को (सम्-अंजन) प्राप्त होता और उनको प्रकाशित करता हुआ (स्तनयन्-इव अक्रन्दत्) गर्जते मेघ के समान गर्जे, और विद्वान् भी उपदेश करे। और सूर्य जिस प्रकार (जज्ञानः) उत्पन्न होता हुआ (इदः) अग्निवत् प्रदीप्त होकर (भानुना) अपने प्रकाश से (रोदसी अन्तः) भूमि और आकाश के बीच क्षितिज पर (भाति) चमकता है और (सद्यः वि अख्यत्) एक साथ विशेष रूप से प्रकाशित करता है उसी प्रकार वह भी (इद्धः) चमक कर (रोदसी अन्तः) शास्य-शासकों के बीच (भाति) प्रकाशित हो और (वि अख्यत्) विशेष आज्ञा, घोषणा, उपदेश आदि करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(द्यौः) द्युलोकं प्रति दीप्तो विद्युदग्निः (स्तनयन् इव यथा) शब्दयन् प्रकाशते, तथा (अग्निः) एषः पार्थिवोऽग्निः (क्षाम) पृथिवीं प्रति “क्षाम क्षामा पृथिवीनाम” [निघ० १।१] (अक्रन्दत्) क्रन्दति ज्वलन् सन् शब्दं करोति (वीरुधः-समञ्जन् रेरिहत्) ओषधीः काष्ठानि संसक्तः सन् प्रज्वलयन् पुनः पुनः लेढि भस्मीकरणाय (सद्यः-जज्ञानः) प्रकटीभूतस्तत्काले तदैव (हि-ईम्-इद्धः) एवं खलु दीप्तः प्रज्वलितः (अख्यन्) प्रत्यक्षं भवति (रोदसी-अन्तः भानुना विभाति) द्यावापृथिव्योरन्तर्मध्ये “रोदसी द्यावापृथिवीनाम” [निघ० ३।३०] द्युलोकपृथिवीलोकयोर्मध्ये विशिष्टं प्रकाशते ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni roars as if thundering and shaking the skies, at the same time reaching and kissing the earth and beautifying the greenery. Always present, instantly rising, it proclaims itself, shines, and fills the heaven and earth with its light.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोकात सूर्यरूपाने अग्नी प्रकाशमान असतो. अंतरिक्षात विद्युतरूपाने व पृथ्वीवर काष्ठ इंधनाद्वारे पार्थिव रूपाने प्रकाशित होतो. या प्रकारे अग्नितत्त्व द्यावापृथ्वीमय जगात प्रसिद्ध झालेल्या पदार्थांचा प्रकाशक असतो. ॥४॥
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