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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सप्तगुः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज॒गृ॒भ्मा ते॒ दक्षि॑णमिन्द्र॒ हस्तं॑ वसू॒यवो॑ वसुपते॒ वसू॑नाम् । वि॒द्मा हि त्वा॒ गोप॑तिं शूर॒ गोना॑म॒स्मभ्यं॑ चि॒त्रं वृष॑णं र॒यिं दा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒गृ॒भ्म । ते॒ । दक्षि॑णम् । इ॒न्द्र॒ । हस्त॑म् । व॒सु॒ऽयवः॑ । व॒सु॒ऽप॒ते॒ । वसू॑नाम् । वि॒द्म । हि । त्वा॒ । गोऽप॑तिम् । शू॒र॒ । गोना॑म् । अ॒स्मभ्य॑म् । चि॒त्रम् । वृष॑णम् । र॒यिम् । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जगृभ्मा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तं वसूयवो वसुपते वसूनाम् । विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जगृभ्म । ते । दक्षिणम् । इन्द्र । हस्तम् । वसुऽयवः । वसुऽपते । वसूनाम् । विद्म । हि । त्वा । गोऽपतिम् । शूर । गोनाम् । अस्मभ्यम् । चित्रम् । वृषणम् । रयिम् । दाः ॥ १०.४७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में ‘इन्द्र’ शब्द से परमात्मा कहा गया है और वह जगत् और मोक्ष का स्वामी होता हुआ यथायोग्य भोग का दाता, योग साधकों के लिए मोक्षदाता, आदि विषय वर्णित हैं।

    पदार्थ

    (वसूनां वसुपते शूर इन्द्र) हे धनों के धनस्वामिन् व्यापक परमात्मन् ! (वसूयवः) हम धन की कामना करनेवाले (ते दक्षिणं हस्तं जगृभ्म) तेरे देनेवाले हस्तरूप साधन को पकड़ते हैं-हाथ के समान आश्रय को ग्रहण करते हैं (त्वा गोनां गोपतिं विद्म हि) तुझ सुख प्राप्त करानेवाले पदार्थों के स्वामी को हम जानते हैं-मानते हैं-उपासना में लाते हैं (अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः) हमारे लिए दर्शनीय अपने स्वरूप को और सुखवर्षक आत्मपोषक धन को दे ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा समस्त धनों और सुखों को देनेवाले पदार्थों का स्वामी है, उसकी हम उपासना करें, तो वह हमें निश्चित धन और सुख से संपन्न कर सकता है ॥१॥

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    विषय

    वसुपति गोपति

    पदार्थ

    [१] हे (वसूनां) = वसुओं के (वसुपते) = उत्तम धनों के स्वामिन्! (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वसूयवः) = वसुओं की कामनावाले हम (ते) = आपके (दक्षिणं हस्तम्) = दाहिने हाथ को (जगृभ्मा) = ग्रहण करते हैं। आपका ही आश्रय करते हैं, आपका आश्रय ही हमें सब वसुओं का देनेवाला होगा। ये वसु हमारे इस जीवन के निवास को उत्तम बनायेंगे। [२] हे (शूर) = सब हमारे काम-क्रोधादि शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! हम (त्वा) = आपको (हि) = निश्चय से (गोनां गोपतिम्) = उत्तम गौवों के पति के रूप में (विद्मा) = जानते हैं। इन उत्तम गौवों को तो आप हमें प्राप्त कराते ही हैं । अध्यात्म में ये गौवें ‘इन्द्रियाँ' हैं। आपकी कृपा से हमें निर्दोष इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं । [३] इन निर्दोष इन्द्रियों को प्राप्त कराके आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं दाः) = उस धन को दीजिये जो (चित्रम्) = [चित् र] हमें ज्ञान को देनेवाला है और (वृषणम्) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला है। धन हमारे ज्ञान व बल का वर्धन करनेवाला हो । ज्ञान व शक्ति के प्रतिकूल न हो । धन जब हमारी वैषयिक वृत्ति के बढ़ने में सहायक होता है तो यह हमारे ज्ञान व बल का ह्रास करनेवाला हो जाता है। यह हमें निधन की ओर ले जा रहा होता है। ऐसा धन त्याज्य है, अर्थ न होकर अनर्थ है। ज्ञान व शक्ति का वर्धक धन हमारे जीवन को धन्य बना देता है। यही धन यह 'सप्तगु आंगिरस' चाहता है, वस्तुतः इस धन से ही वह 'सप्तगु आंगिरस'- ज्ञानी व सशक्त बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वसुपति प्रभु हमें वह वसु दें जिससे कि हम ज्ञान व शक्ति का वर्धन करके 'सप्तगु आंगिरस' बन पायें |

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    विषय

    इन्द्रो वैकुण्ठः। वसुपति परमेश्वर का अवलम्ब लेकर उसी से ऐश्वर्य की याचना करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! हे शत्रुनाशक राजन् ! हम लोग (ते) तेरे (दक्षिणम्) दानशील, बलवान् एवं दायें (हस्ते) हाथ को (जगृभ्म) ग्रहण करते हैं, उसका अवलम्ब लेते हैं। हे (वसूनां वसुपते) समस्त लोकों, जीवों और धनैश्वर्यों के मालिक ! हम (वसूयवः) नाना लोकों और ऐश्वर्यों को चाहने वाले, जीवगण हे (शूर) दुःखों और दुष्टों के नाश करने हारे प्रभो ! तुझको (गोनां गोपतिं विद्म) समस्त सूर्यो, वाणियों और भूमियों, रश्मियों और जीवों का गोपति, पालक, रक्षक करके जानते हैं। (अस्मभ्यं) हमें तू (चित्रं) अद्भुत, संग्राह्य, (वृषणं) सर्व सुखवर्षक (रयिं दाः) ऐश्वर्य प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सप्तगुः॥ देवता–इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:– १, ४, ७ त्रिष्टुप्। २ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सूक्तेऽत्र ‘इन्द्र’शब्देन परमात्मा कथ्यते स च जगतो मोक्षस्य स्वामी सन् यथायोग्यं भोगप्रदाता योगसाधकेभ्यो मोक्षस्य दाता चेत्येवमादयो विषया वर्तन्ते।

    पदार्थः

    (वसूनां वसुपते शूर-इन्द्र) हे धनानां धनस्वामिन् सर्वत्रगतिमन् व्यापकपरमात्मन् ! “शूरः शवतेर्गतिकर्मणः” [निरु० ३।१३] (वसूयवः) वयं धनकामाः (ते दक्षिणं हस्तं जगृभ्म) तव दश्यते दीयते येन तं दानसाधनन् “दक्षिणः……दशतेर्वा स्याद्दानकर्मणः” [निरु० १।७] हस्तमिवालम्बनमाश्रयं गृह्वीमः (त्वा गोनां गोपतिं विद्म हि) गवां सुखस्य गमयितॄणां पदार्थानां तथाभूतानाञ्च स्वामिनं त्वां जानीम मन्यामहे, अतः (अस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः) अस्मदर्थं चायनीयं दर्शनीयं स्वरूपभूतं सुखवर्षकं धनमात्मपोषं देहि ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord ruler, controller, promoter and giver of the world’s wealth, peace, comfort and joy, we, seekers of wealth, honours and excellence, hold on to your liberal hand of generosity. Lord of omnipotence, we know that you are the ruler and controller of the earths, stars, knowledge, wisdom and culture of life. Pray bless us with profuse and wondrous source wealth of the world with honours, excellence and happiness.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण धन व सुख देणाऱ्या पदार्थांचा स्वामी आहे. त्याची आम्ही उपासना करावी. तेव्हा तो आम्हाला निश्चित धन व सुख याद्वारे संपन्न करू शकतो. ॥१॥

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