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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - भुरिगार्चीजगती स्वरः - निषादः

    अ॒हं दां॑ गृण॒ते पूर्व्यं॒ वस्व॒हं ब्रह्म॑ कृणवं॒ मह्यं॒ वर्ध॑नम् । अ॒हं भु॑वं॒ यज॑मानस्य चोदि॒ताय॑ज्वनः साक्षि॒ विश्व॑स्मि॒न्भरे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । दा॒म् । गृ॒ण॒ते । पूर्व्य॑म् । वसु॑ । अ॒हम् । ब्रह्म॑ । कृ॒ण॒व॒म् । मह्य॑म् । वर्ध॑नम् । अ॒हम् । भु॒व॒म् । यज॑मानस्य । चो॒दि॒ता । अय॑ज्वनः । सा॒क्षि॒ । विश्व॑स्मिन् । भरे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् । अहं भुवं यजमानस्य चोदितायज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । दाम् । गृणते । पूर्व्यम् । वसु । अहम् । ब्रह्म । कृणवम् । मह्यम् । वर्धनम् । अहम् । भुवम् । यजमानस्य । चोदिता । अयज्वनः । साक्षि । विश्वस्मिन् । भरे ॥ १०.४९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में ‘इन्द्र’ शब्द से परमात्मा गृहीत है। उसकी उपासना से व्यसन कामवासनादि दोष दूर हो जाते हैं और उपासक मोक्ष को प्राप्त करते हैं इत्यादि विषय वर्णित हैं ।

    पदार्थ

    (अहं गृणते पूर्व्यं वसु दाम्) मैं परमात्मा स्तुतिकर्त्ता के लिए शाश्वतिक मोक्ष-बसानेवाले धन को देता हूँ (अहं ब्रह्म मह्यं वर्धनं कृणवम्) मैं वेदज्ञान जो मेरे लिए वृद्धि का कारण मेरे गुण जनानेवाला है, उसे मैं प्रकाशित करता हूँ (अहं यजमानस्य चोदिता) मैं परमात्मा  अध्यात्मयाजी यजमान का प्रेरक हूँ (अयज्वनः-भरे विश्वस्मिन् साक्षि) अध्यात्मयज्ञ न करनेवाले नास्तिक जनों को पोषणीय संसार में अभिभूत करता हूँ-दण्डित करता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की स्तुति  करनेवाला शाश्वतिक सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। परमात्मा के गुणों का वर्णन करनेवाले वेद का परमात्मा प्रकाश करता है, तदनुसार अध्यात्मयाजी को वह प्रेरणा देता है, नास्तिक जनों को संसार में दण्ड देता है ॥१॥

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    विषय

    सर्वेश्वर्यप्रद प्रभु का आत्म-वर्णन। सर्वजगत्-उत्पादक, बलप्रद, सर्वप्रेरक, दुष्ट-दण्डक प्रभु।

    भावार्थ

    (अहं) मैं (गृणते) स्तुति करने हारे को (पूर्व्यं वसु दाम्) सनातन ऐश्वर्य, और निवास के योग्य लोक मोक्ष वा ज्ञान प्रदान करता हूं। (अहं ब्रह्म कृणवम्) मैं परम ब्रह्मज्ञान, वेद और इस महान् जगत् को उत्पन्न करता हूं। (मह्यं वर्धनम्) यह समस्त वेद मेरी ही महिमा वा वृद्धि करने वाला है। (अहं यजमानस्य चोदिता) यज्ञ और दान, सत्संग करने वाले को सन्मार्ग में आदेश करने वाला मैं ही हूं। मैं (विश्वस्मिन भरे) समस्त युद्ध में (अयज्वनः) न देने वाले, कुसंगी, अयज्ञशील जनों को ही (साक्षि) पराजित करता, उनको दण्डित करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्र वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—वैकुण्ठः। छन्द:- १ आर्ची भुरिग् जगती। ३, ९ विराड् जगती। ४ जगती। ५, ६, ८ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड् जगती। १० पादनिचृज्जगती। २ विराट् त्रिष्टुप्। ११ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उत्कृष्ट वसु की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं ही (गृणते) = स्तवन करनेवाले के लिए (पूर्व्यं वसु) = उत्कृष्ट धन को अथवा पालन व पूरण करनेवाले धन को (दाम्) = देता हूँ । प्रभु भक्त सदा क्रियाशील होता है । उसकी क्रिया केवल अपने हित के लिये न होकर लोकहित के दृष्टिकोण से होती है। इसे आवश्यक साधनों की प्रभु कमी नहीं होने देते। [२] मैं इस स्तोता के लिये ब्रह्म उस ज्ञान को भी (कृणवम्) = करता हूँ, जो ज्ञान की (मह्यम्) = मेरे लिये ही (वर्धनम्) = वर्धन का कारण होता है । ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य प्रभु-भक्त बनता है और प्रभु का स्तवन करता हुआ प्रभु की महिमा को सर्वत्र फैलाता है। [३] (अहम्) = मैं ही (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुषों का (चोदिता भुवम्) = प्रेरक होता हूँ । इन्हें उत्तम कर्मों की प्रेरणा मेरे से ही प्राप्त होती है। इसी यज्ञशीलता की वृद्धि के लिये (विश्वस्मिन् भरे) = सम्पूर्ण संग्रामों में (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (साक्षि) = मैं अभिभूत करता हूँ । अयज्ञशील पुरुष के उभयलोक विनष्ट होते हैं। यज्ञ से ही मनुष्य फलता-फूलता है । इस यज्ञ से ही सच्चा प्रभु - पूजन होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु भक्तों को उत्कृष्ट वसु प्राप्त कराते हैं व यज्ञ की प्रेरणा देते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते ‘इन्द्र’शब्देन परमात्मा गृह्यते। तस्योपासनेनो-पासकानां कामवासनादयो दोषा दूरीभवन्ति ते मोक्षं च प्राप्नुवन्तीत्येवमादयो विषया वर्ण्यन्ते ।

    पदार्थः

    (अहं गृणते पूर्व्यं वसु दाम्) अहं परमात्मा स्तुतिकर्त्रे शाश्वतिकं मोक्षं वसु-वासधनं ददामि (अहं ब्रह्म मह्यं वर्धनं कृणवम्) अहं खलु वेदज्ञानं यद् हि मह्यं मदर्थं वर्धनकारणं गुणप्रज्ञापनं मदीयं यद् गुणजातं वर्णयति तत् करोमि (अहं यजमानस्य चोदिता) अहमेव परमात्मा यजमानस्य-अध्यात्मयाजिनः प्रेरयिताऽस्मि (अयज्वनः-भरे विश्वस्मिन् साक्षि) अध्यात्मयजनं न कुर्वतो नास्तिकान् भरणीये संसारेऽभिभवामि ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I give to the celebrant of divinity eternal peace and freedom of the soul, the highest value of life across the world of existence. I create the eternal song of existence for self celebration in joyous exaltation. I am the giver of inspiration to the yajnic performer and partner in cosmic evolution, and I subdue the negationist and uncreative soul in the entire struggle of life for evolution.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याची स्तुती करणारा शाश्वतिक सुखमय मोक्ष प्राप्त करतो. परमात्म्याच्या गुणांचे वर्णन करणाऱ्या वेदाचा परमात्मा प्रकाश करतो. त्यानुसार अध्यात्मयाजीला तो प्रेरणा देतो. नास्तिक जनांना जगात दंड देतो. ॥१॥

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