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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    सो चि॒न्नु सख्या॒ नर्य॑ इ॒नः स्तु॒तश्च॒र्कृत्य॒ इन्द्रो॒ माव॑ते॒ नरे॑ । विश्वा॑सु धू॒र्षु वा॑ज॒कृत्ये॑षु सत्पते वृ॒त्रे वा॒प्स्व१॒॑भि शू॑र मन्दसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । चि॒त् । नु । सख्या॑ । नर्यः॑ । इ॒नः । स्तु॒तः । च॒र्कृत्यः॑ । इन्द्रः॑ । माऽव॑ते । नरे॑ । विश्वा॑सु । धूः॒ऽसु । वा॒ज॒ऽकृत्ये॑षु । स॒त्ऽप॒ते॒ । वृ॒त्रे । वा॒ । अ॒प्ऽसु । अ॒भि । शू॒र॒ । म॒न्द॒से॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो चिन्नु सख्या नर्य इनः स्तुतश्चर्कृत्य इन्द्रो मावते नरे । विश्वासु धूर्षु वाजकृत्येषु सत्पते वृत्रे वाप्स्व१भि शूर मन्दसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । चित् । नु । सख्या । नर्यः । इनः । स्तुतः । चर्कृत्यः । इन्द्रः । माऽवते । नरे । विश्वासु । धूःऽसु । वाजऽकृत्येषु । सत्ऽपते । वृत्रे । वा । अप्ऽसु । अभि । शूर । मन्दसे ॥ १०.५०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः-इन्द्रः-चित्-नु सख्या नर्यः-इनः) वह परमात्मा उपासना द्वारा मुमुक्षुओं का हितकर स्वामी होता है (स्तुतः-चर्कृत्यः) स्तोतव्य है और पुनः-पुनः या भली प्रकार सत्करणीय है (मावते नरे) मेरे सदृश मुमुक्षु के लिए है (विश्वासु धूःसु) सारी धारणीय वृत्तियों में-योजनाओं में (वाजकृत्येषु) बलकार्यों में (सत्पते शूर) हे सज्जनों के पालक ! ज्ञानवन् ! परमात्मन् ! (वृत्रे वा-अप्सु-अभि मन्दसे) पापी जनों में तथा आप्त जनों में सम्यक् स्तुति को प्राप्त होता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपासकों के लिए हितकर स्वामी है। वह सारी योजनाओं तथा बलकार्यों में स्तुत्य और सत्कार करने योग्य है ॥२॥

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    विषय

    सर्वस्वामी, सर्वसेव्य, सर्वसुखप्रद, निरञ्जन प्रभु।

    भावार्थ

    (सो चित् नु इन्द्रः) वह ही परमैश्वर्यवान प्रभु (नर्यः) समस्त जीवों, मनुष्यों का हितैषी, (इनः) सबका स्वामी, और (सख्या) सख्यभाव से (मावते नरे) मेरे जैसे मनुष्यों के लिये भी (स्तुतः) स्तुत होकर (चर्कृत्यः) सेवा करने योग्य है। हे (सत्-पते) समस्त सत्पदार्थों और सत्पुरुषों के पालक ! तू (वाज-कृत्येषु) ज्ञान, बल, वेगादि से करने योग्य कार्यों में और (विश्वासु धूर्षु) समस्त धारण करने योग्य पदों पर हे (शूर) शूरवीर (अप्सु वृत्रे वा) अन्तरिक्ष में चन्द्र वा मेघस्थ ज्योति, प्रकाश के तुल्य बढ़ते बल सैन्य के बीच, जल में कमल के तुल्य (अभि प्रमन्द से) सब ओर खूब प्रसन्न रहता और खिलता और सबको सुखी करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो वैकुण्ठ ऋषिः। देवता—इन्द्रो वैकुण्ठः॥ छन्द:- १ निचृज्जगती। २ आर्ची स्वराड् जगती। ६, ७ पादनिचृज्जगती। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    नर्य प्रभु का स्तवन

    पदार्थ

    [१] (स उ चित् नु) = वे प्रभु ही निश्चय से (सख्या) = सखित्व के कारण (नर्यः) = नरों का हित करनेवाले हैं। नर वह है जो कि उन्नतिपथ पर अपने को ले चलने के लिये यत्न करता है, प्रभु इन नरों का सदा हित करते हैं। प्रभु भी इनकी उन्नति में सहायक होते हैं। (इन:) = प्रभु ही तो स्वामी हैं। वे प्रभु ही (स्तुतः) = सदा स्तुति किये जाते हैं और (चर्कृत्यः) = [कर्तव्यैः पुनः पुनः परिचरणीयः सा० ] वे कर्त्तव्यपालन के द्वारा सदा पूजा के योग्य हैं। प्रभु का पूजन यही है कि हम अपने कर्त्तव्य कर्मों में प्रमाद न करें। [२] वे प्रभु (मा वते नरे) = लक्ष्मीवाले मनुष्य के लिये (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं । अर्थात् वस्तुतः लक्ष्मी के देनेवाले प्रभु ही हैं। लक्ष्मी का विजय करनेवाले प्रभु ही हैं। जैसे बुद्धिमानों की बुद्धि प्रभु हैं, बलवानों के बल व तेजस्वियों के तेज प्रभु हैं उसी प्रकार लक्ष्मीवानों की लक्ष्मी भी प्रभु ही हैं। [३] हे शूर- सब विघ्नों व शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले सत्पते सज्जनों के रक्षक प्रभो! आप (विश्वासु धूर्षु) = सब कार्यभारों में, (वाजकृत्येषु) = शक्तिशाली कर्मों में (वृत्रे) = ज्ञान को आवृत करनेवाले सर्वमहान् शत्रु काम के आक्रमण में (वा) = तथा (अप्सु) = रेतः कणों के रक्षण के प्रसंग में (अभिप्रमन्दसे) = [अभिष्टयसे] स्तुति किये जाते हो। आपका स्तवन करते हुए हम आपकी शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर उसे उस कार्यभार को उठा पाते हैं, शक्ति की अपेक्षा करनेवाले कार्यों में घबराते नहीं, वासना के आक्रमण को विफल कर पाते हैं और रेतः कणों के रक्षण में समर्थ होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के हम मित्र बनें, प्रभु हमारा कल्याण करेंगे। वे प्रभु कर्मों से स्तुत होते वे ही हमारे लिये लक्ष्मी का विजय करते हैं। उनका स्मरण ही हमें सब कार्यों की पूर्ति में, वासना के विध्वंस में तथा रेतः कणों के रक्षण में समर्थ करता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-इन्द्रः-चित्-नु सख्या नर्यः-इनः) सः-‘उत्वं विसर्गस्य छान्दसः’ अवश्यं परमात्मा सखित्वेन-उपासनया नराणां मुमुक्षूणां हितकरः स्वामी (स्तुतः-चर्कृत्यः) स्तोतव्यः पुनः पुनर्भृशं वा सत्करणीयः (मावते नरे) मादृशाय मुमुक्षवेऽस्ति (विश्वासु धूःसु) सर्वासु धारणासु धारणीयासु वृत्तिषु वा (वाजकृत्येषु) बलकार्येषु (सत्पते शूर) सतां पालक ! परमात्मन् ! शूर ज्ञानवन् ! (वृत्रे वा अप्सु-अभिमन्दसे) पापिजनेषु-आप्तजनेषु च-अभिस्तुतिं प्राप्नोषि ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He, Indra, Lord of heaven and earth, leader and master of humanity with love and friendship for all, loved and adored universally, is worthy of worship for all men like me. O lord omnipotent protector and promoter of the good and true, you rejoice, exhilarate and energise us in all top situations worth challenging in the world, in all battles of the brave worth winning, and in all states of darkness and showers of the clouds.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपासकांचा हितकर स्वामी आहे. तो संपूर्ण योजना व बल कार्यात स्तुत्य व सत्कार करण्यायोग्य आहे. ॥२॥

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