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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवाः देवता - अग्निः सौचीकः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒हत्तदुल्बं॒ स्थवि॑रं॒ तदा॑सी॒द्येनावि॑ष्टितः प्रवि॒वेशि॑था॒पः । विश्वा॑ अपश्यद्बहु॒धा ते॑ अग्ने॒ जात॑वेदस्त॒न्वो॑ दे॒व एक॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । तत् । उल्ब॑म् । स्थवि॑रम् । तत् । आ॒सी॒त् । येन॑ । आऽवि॑ष्टितः । प्र॒ऽवि॒वेशि॑थ । अ॒पः । विश्वाः॑ । अ॒प॒श्य॒त् । ब॒हु॒धा । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । जात॑ऽवेदः । त॒न्वः॑ । दे॒वः । एकः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महत्तदुल्बं स्थविरं तदासीद्येनाविष्टितः प्रविवेशिथापः । विश्वा अपश्यद्बहुधा ते अग्ने जातवेदस्तन्वो देव एक: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत् । तत् । उल्बम् । स्थविरम् । तत् । आसीत् । येन । आऽविष्टितः । प्रऽविवेशिथ । अपः । विश्वाः । अपश्यत् । बहुधा । ते । अग्ने । जातऽवेदः । तन्वः । देवः । एकः ॥ १०.५१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में ‘अग्नि’ शब्द से आत्मा और विद्युदग्नि गृहीत हैं। आत्मा का जन्मधारण, अन्नपान, कल्याण और मोक्ष को देनेवाला विषयग्रहण तथा विद्युत् का ऐसा प्रयोग जिससे सुव्यवस्थित यन्त्रचालन हो, आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (जातवेदः-अग्ने) हे शरीर के साथ ही उत्पन्न होनेवाले जाने जानेवाले आत्मन् ! तथा उत्पन्न होते ही ज्ञान में आनेवाली विद्युद्रूप अग्ने ! (तत्-उल्बं महत् स्थविरम्) गर्भ में उल्ब-आच्छादक वस्त्र के समान, मेघजल में वैद्युत तरङ्गमण्डल आकाश में विद्यमान महत्त्वपूर्ण पुरातन जन्म-जन्मान्तर से प्राप्त अथवा सृष्टि के आरम्भ से प्रवर्त्तमान (तत्-आसीत्) वह है (येन-आविष्टितः-अपः-प्रविवेशिथ) जिसके साथ सर्वतोरक्षित हुआ प्राणों को या मेघरूप जलों को पार्थिव नदी स्रोतों को प्रविष्ट है (ते विश्वा बहुधा तन्वः-एकः-देवः-अपश्यत्) तेरे बहुत प्रकार के सारे अङ्ग या व्याप्तियाँ, विस्तृत तरङ्गें, एक नियन्ता क्रमानुसार प्रवेश करानेवाला, वह सुखदाता परमात्मा या विद्वान् जानता है या प्रकाशित करता है ॥१॥

    भावार्थ

    आत्मा शरीर के उत्पन्न होते ही जाना जानेवाला, जो परम्परा से जन्म धारण करता हुआ आ रहा है, वह प्राणों को धारण करता है।  उसे कर्मानुसार परमात्मदेव गर्भ को प्राप्त कराता है। तथा-आकाश में पुरातन काल से मेघों में उत्पन्न होते ही ज्ञान में आनेवाला विद्युत् अग्नि है। वह मेघजलों में ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होता है और मेघजलों को गिराता है ॥१॥

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    विषय

    सौचीक अग्नि और देवगण। देह में प्रविष्ट आत्मा और अध्यक्ष सर्वसाक्षी प्रभु का वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप, हे (जातवेदः) प्रत्येक उत्पन्न देह में विद्यमान ! (तत्) वह (उल्वं) आवरण (महत् स्थविरम्) बड़ा ही स्थूल होता है (येन आवेष्टितः) जिससे घिरकर तू (अपः) जलों में स्थित बालकवत्, देहिक प्राणों के बीच (प्र विवेशिथ) प्रवेश किये हुए है। (ते तन्वः) तेरी देह की (विश्वाः) समस्त क्रियाओं को अथवा (ते विश्वाः तन्वः) तेरे समस्त देहों को (एकः देवः) एक देव प्रभु जिसने ये सब तुझ को दी हैं वही (बहुधा) बहुत प्रकार से (अपश्यत्) देखा करता है। देहों के द्रष्टा का वर्णन अगले मन्त्र में है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'योगमाया-समावृतः' [नाहं प्रकाशः सर्वस्य]

    पदार्थ

    [१] प्रभु संसार में सर्वत्र हैं, सब पदार्थों में व्याप्त हैं । परन्तु इस गुणमयी योगमाया [प्रकृति] आवृत होने के कारण सामान्य मनुष्य के दर्शन का वे विषय नहीं बनते। 'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ' इस मन्त्र भाग में यही बात इस रूप में कही गई है कि हिरण्मय पात्र से सत्य का स्वरूप छिपा हुआ है। यह ठीक है कि विज्ञान प्रधान जीवन होने पर एक व्यक्ति को प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की महिमा का दर्शन होता है। वे प्रभु प्रत्येक पदार्थ से सूचित हो रहे हैं, इसलिए प्रभु को यहाँ 'सौचीको अग्निः' कहा है। प्रभु का दर्शन करनेवाले 'देवा:' हैं। इनके संवाद के रूप में प्रस्तुत सूक्तों में विषय का प्रतिपादन एक सुन्दर काव्यमय भाषा में हुआ है। देव कहते हैं कि हे अग्ने प्रकाशमय ! (जातवेदः) = [जाते जाते विद्यते] सर्वव्यापक प्रभो ! (तत्) = वह (उल्बम्) = आवेष्टन [coher] (महत्) = महान् (तत् स्थविरम्) = वह बड़ा दृढ़ आसीत् है, (येन) = जिससे (आविष्टितः) = संवृत हुए हुए आप (अप:) = प्रजाओं में (प्रविवेशिथ) = प्रविष्ट हो रहे हैं । प्रभु सब पदार्थों में हैं, परन्तु इस माया रूप महान् स्थविर उल्ब [जरायु = आवेष्टन] से आवृत होने के कारण उनका हमें दर्शन नहीं हो पाता। [२] जो कोई विरल व्यक्ति इस माया की चमक से न चुंधयाई हुई आँखोंवाला होकर इस माया को तैर जाता है वह (एकः देवः) = एक आध विरल देव पुरुष ही हे जातवेदः अग्ने सर्वव्यापक प्रकाशमय प्रभो! (ते) = आपके (बहुधा) = बहुत प्रकार के इन (विश्वाः) = सब (तन्वः) = शरीरों को अपश्यत् - देखता है । 'भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश मन, बुद्धि व अहंकार' ये आठ आपके शरीर ही तो हैं। इनमें आपकी ही शक्ति काम करती है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकृति का अध्ययन करनेवाले देव पुरुष को प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की सत्ता दृष्टिगोचर होती है। उसको इन पृथिवी, जल इत्यादि पदार्थों में उस महान् प्रभु की शक्ति कार्य करती हुई दृष्टिगोचर होती है, मानो ये शरीर हों और प्रभु इनकी अन्तरात्मा हो। इस प्रकार इन सबको वह प्रभु के शरीरों के रूप में ही देखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - योगमाया से आवृत उस पुरुष की महिमा को कोई विरल देव ही सब पदार्थों में देखता है।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते ‘अग्नि’शब्देन आत्मा विद्युदग्निश्च गृह्येते । तत्रात्मनो जन्मधारणमन्नपानं च विषयग्रहणं चैव कार्यं यथा कल्याणं मोक्षं च भवेत्। विद्युतः प्रयोगश्चैवं कर्त्तव्यो यथा यन्त्रचालनं सुव्यवस्थितं भवेदेवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (जातवेदः-अग्ने) जातः सन् वेद्यते जनैर्विद्युदग्ने वा-इति तद्धर्मवन् शरीरेण जातेन सह वेद्यतेऽस्तीति जनैर्वेद्यतेऽनुभूयतेऽस्त्यात्मा-ऽग्निर्हात्मा तथाभूत अग्ने-आत्मन् (तत्-उल्बं महत् स्थविरम्) गर्भे तत् खलूल्बमाच्छादकं वस्त्रमिव जलं विद्युततरङ्गमण्डलं वाकाशे विद्यमानं महत्त्वपूर्णं बृहद्वा पुरातनं जन्मजन्मान्तरपरम्परया प्राप्तं यद्वा पुरातनं सृष्टेरारम्भतः प्रवर्तमानम् (तत् आसीत्) तदस्ति प्रवर्तते (येन-आविष्टितः-अपः-प्रविवेशिथ) येन सह-आवेष्टितः सर्वतो रक्षितः सन् “वेष्ट वेष्टने” [भ्वादिः] ‘ह्रस्वत्वं छान्दसम्’ प्राणान् “आपो वै प्राणाः” [श. ३।८।२।४] जलानि-आकाशीयमेघरूपजलानि पार्थिवनदीस्रोतःप्रभृति जलानि च प्रविष्टो भवसि (ते विश्वा बहुधा तन्वः-एकः-देवः-अपश्यत्) तव बहुविधानि सर्वाण्यङ्गानि बहुविधा व्याप्तयो वा “तनूः-व्याप्तिः” [यजु० ५।८ दयानन्दः] विस्तृतास्तरङ्गाः, एको यमः-नियन्ता कर्मानुसारतः प्रवेशयिता, एकः सुखदाता प्रकाशयिता परमात्मा विद्वान् वा जानाति प्रकाशयति वा ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This sukta is a dialogue between the Devas such as Mitra, Varuna, pranic energies such as prana and udana and Agni. Agni here means many forms of energy of the world of existence: earthly agni that is fire, middle regions’ agni that is electricity, and self-refulgent agni that is light of the solar region. In Vedic literature, it means energy not only in these forms but also in many more forms, that is, the vital heat of life, the passion for living, the spirit of life, the body heat, the vital virility, life itself, the soul and the cosmic spirit. This wide context is relevant to the present sukta.$O Agni, Jataveda, cognizable in existential forms, great is that form, that cover, that medium, fine and firm, clothed in which you enter upon the course of life in existence. There is one Divinity which watches all your body forms existent in nature in various media in the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा शरीरात येताच त्याला जाणता येते. तो परंपरेने जन्म धारण करत आलेला आहे. तो प्राण धारण करतो. त्याला कर्मानुसार परमात्मदेव गर्भात नेतो. आकाशात प्राचीन काळापासून मेघ उत्पन्न होताच विद्युत अग्नी जाणता येतो. तो मेघजलात ईश्वराच्या व्यवस्थेनुसार प्राप्त होतो व मेघजलाचा वर्षाव करतो. ॥१॥

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