ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
विश्वे॑ देवाः शा॒स्तन॑ मा॒ यथे॒ह होता॑ वृ॒तो म॒नवै॒ यन्नि॒षद्य॑ । प्र मे॑ ब्रूत भाग॒धेयं॒ यथा॑ वो॒ येन॑ प॒था ह॒व्यमा वो॒ वहा॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑ । दे॒वाः॒ । शा॒स्तन॑ । मा॒ । यथा॑ । इ॒ह । होता॑ । वृ॒तः । म॒नवै॑ । यत् । नि॒ऽसद्य॑ । प्र । मे॒ । ब्रू॒त॒ । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । यथा॑ । वः॒ । येन॑ । प॒था । ह॒व्यम् । आ । वः॒ । वहा॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे देवाः शास्तन मा यथेह होता वृतो मनवै यन्निषद्य । प्र मे ब्रूत भागधेयं यथा वो येन पथा हव्यमा वो वहानि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वे । देवाः । शास्तन । मा । यथा । इह । होता । वृतः । मनवै । यत् । निऽसद्य । प्र । मे । ब्रूत । भागऽधेयम् । यथा । वः । येन । पथा । हव्यम् । आ । वः । वहानि ॥ १०.५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में ‘विश्वेदेवा’ स्वसम्बन्धी वृद्धजन तथा विद्वान् गृहीत हैं। कठिन ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त कर गृहस्थ बन कल्याणार्थ उनकी सेवा करना, उनसे गृहस्थ चालन के लिए ज्ञान ग्रहण करना आदि वर्णित है।
पदार्थ
(विश्वे देवाः-मा शास्तन) हे मेरे सम्बन्धी वृद्ध मान्य जनों ! मैं आपके वंश में जन्म प्राप्त करके सेवा के योग्य हो गया, अतः मुझे आदेश दो (यथा-इह होता वृतः) जिस कारण इस वंश में गृहस्थ यज्ञ के चलाने में होता-योग्य मुझे आपने बनाया (यत्-निषद्य-मनवै) तुम्हारे बीच में स्थित होकर जिससे कि गृहस्थ के अभिप्राय-उद्देश्य को जान सकूँ (यथा वः-भागधेयं मे प्रब्रूत) तुम्हारे द्वारा जो निश्चित मेरे प्रति योग्यतानुरूप ज्ञानभाग है, उसका प्रवचन करो (येन पथा वः-हव्यम्-आवहानि) जिस मार्ग-प्रकार या रीति से तुम्हारे लिए ग्राह्य वस्तु को भेंट कर सकूँ ॥१॥
भावार्थ
नवयुवक जब विवाहित हो जाएँ, तो अपने वृद्ध माता पिता आदि से गृहस्थ चलाने का उपदेश लें और उसकी भिन्न-भिन्न रीतियों पद्धतियों पर चलते हुए अपने जीवन को ढालें तथा उनके लिए उनकी यथोचित आवश्यकताओं को पूरा करें ॥१॥
विषय
देवगण। ज्ञानार्थी की गुरु जनों के प्रति प्रार्थना।
भावार्थ
(विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् पुरुषो ! (मा शास्तन) मुझे ऐसी रीति से शासन करो (यथा) जिससे (इह) इस लोक में (होता) ज्ञान ग्रहण करने वाला, शिष्य रूप से (वृतः) वरण किया जाकर भी (यत्) जो मैं (नि-सद्य) गुरु के समीप बैठकर (मनवै) ज्ञान प्राप्त कर सकूं। (यथा वः भागधेयम्) जिस प्रकार आप लोगों का भजन या सेवन करने योग्य, शिष्यों द्वारा धारण करने योग्य ज्ञान है वह (मे प्र ब्रवीत) मुझे प्रवचन द्वारा उपदेश करो। और मुझे यह भी बतलाओ (येन पथा) जिस मार्ग से (वः हव्यम्) आप लोगों के उपादेय ज्ञान-राशि को मैं (आ वहानि) सब प्रकार से धारण कर सकूं॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीक ऋषिः। देवा देवताः॥ छन्द:- १ त्रिष्टुप्। २–४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु का होतृरूपेण वरण
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में देवताओं ने यह निश्चय किया कि 'हम सारे जीवन को ही यज्ञ बनाकर प्रभु के प्रति अर्पण कर दें, तो उनके इस निश्चय को जानकर प्रभु कहते हैं कि हे (विश्वेदेवाः) = देवो! (मा शास्तन) = मुझे कहो [ पुकारा करो] (यथा) = जिससे (इह) = यहाँ होता देने के वाले के रूप में (वृतः) = वरण किया हुआ मैं (निषद्य) = तुम्हारे हृदयों में आसीन होकर (यत्) = जो (मनवै) = तुम्हारे लिये देने का विचार करूँ । [२] (मे ब्रूत) = मुझे अच्छी तरह बतलाओ (यथा वः) = जिस प्रकार तुम्हारा (भागधेयम्) = भाग व हिस्सा है। (येन पथा) = जिस मार्ग से (वः) = तुम्हारे लिये (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को (आवहानि) = प्राप्त कराऊँ । [३] जिस प्रकार पिता सन्तानों से प्रसन्न होकर कहता है कि 'अच्छा, फिर कहो ना, किसे क्या-क्या चाहिये ? तुम्हें क्या-क्या दूँ ?' इसी प्रकार यहाँ प्रभु प्रसन्न होकर देवों से कहते हैं कि 'कहो, तुम्हें क्या-क्या चाहिए ? तुम्हें किस-किस हव्यपदार्थ को किस-किस तरह मैं दूँ, किस रूप में तुम्हें वह धन चाहिए ?'
भावार्थ
भावार्थ- देव प्रभु का होतृरूपेण वरण करते हैं । प्रभु उन्हें उस-उस हव्य पदार्थ को प्राप्त कराते हैं ।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते ‘विश्वेदेवाः’ स्वसम्बन्धिनो वृद्धजना विद्वांसश्च गृह्यन्ते। कठिनं ब्रह्मचर्यव्रतं समाप्य गृहस्थो भूत्वा तेषां कल्याणार्थं सेवां कुर्यात्, ज्ञानं च तेभ्यो गृहस्थचालनस्य ज्ञानं गृह्णीयादित्यादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(विश्वे देवाः-मा शास्तन) हे मम सम्बन्धिनो वृद्धा मान्या जनाः “मनुष्या वै विश्वेदेवाः” [काठ० १९।१२] अहं भवद्वंशे जन्म प्राप्य सेवायोग्यो जातः-अतो मामादिशत (यथा-इह होता वृतः) येन हेतुनाऽत्र वंशे गृहस्थयज्ञस्य चालने होतृरूपेणाऽहं युष्माभिः स्वीकृतः (यत्-निषद्य मनवै) युष्माकं मध्ये स्थित्वा यदहमभिप्रायं जानीयाम् (यथा वः-भागधेयं मे प्रब्रूत) युष्माभिः ‘विभक्तिव्यत्ययः’ यथा निश्चितं ममयोग्यतारूपं ज्ञानभागं यदस्ति मह्यं तत् प्रवदत (येन पथा वः हव्यम्-आवहानि) येन च मार्गेण प्रकारेण युष्मभ्यं ग्राह्यं द्रव्यमानयामि ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vishvedevas, generous brilliancies of nature and humanity, instruct me that, selected, elected, appointed and seated in my position as organiser and high priest of the yajnic social system, how I should think and act and how and in what way or ways I shall carry out my responsibilities and fulfil my obligations to you in the social system to offer you your share of sustenance.
मराठी (1)
भावार्थ
नवयुवक जेव्हा विवाहित होतो तेव्हा त्याने आपल्या वृद्ध माता पिता इत्यादीकडून गृहस्थी चालविण्याचा उपदेश घ्यावा. भिन्न भिन्न प्रकारे वागून आपले जीवन चालवावे व त्यांच्या आवश्यकता पूर्ण कराव्यात. ॥१॥
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