ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तां सु ते॑ की॒र्तिं म॑घवन्महि॒त्वा यत्त्वा॑ भी॒ते रोद॑सी॒ अह्व॑येताम् । प्रावो॑ दे॒वाँ आति॑रो॒ दास॒मोज॑: प्र॒जायै॑ त्वस्यै॒ यदशि॑क्ष इन्द्र ॥
स्वर सहित पद पाठताम् । सु । ते॒ । की॒र्तिम् । म॒घ॒ऽव॒न् । म॒हि॒ऽत्वा । यत् । त्वा॒ । भी॒ते इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अह्व॑येताम् । प्र । आ॒वः॒ । दे॒वान् । आ । अ॒ति॒रः॒ । दास॑म् । ओजः॑ । प्र॒ऽजायै॑ । त्व॒स्यै॒ । यत् । अशि॑क्षः । इन्द्र ॥
स्वर रहित मन्त्र
तां सु ते कीर्तिं मघवन्महित्वा यत्त्वा भीते रोदसी अह्वयेताम् । प्रावो देवाँ आतिरो दासमोज: प्रजायै त्वस्यै यदशिक्ष इन्द्र ॥
स्वर रहित पद पाठताम् । सु । ते । कीर्तिम् । मघऽवन् । महिऽत्वा । यत् । त्वा । भीते इति । रोदसी इति । अह्वयेताम् । प्र । आवः । देवान् । आ । अतिरः । दासम् । ओजः । प्रऽजायै । त्वस्यै । यत् । अशिक्षः । इन्द्र ॥ १०.५४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में ‘इन्द्र’ शब्द से परमात्मा गृहीत है। उसका स्वाभाविक नाम ‘ओ३म्’ ज्योतिर्पिण्डों को ज्योति प्रदान करता है। मानव-कल्याणार्थ वेदज्ञान का उपदेश देता है, यह प्रमुख विषय है।
पदार्थ
(मघवन्) हे सब ऐश्वर्यों के स्वामी ! (ते महित्वा) तेरे महत्त्व से सिद्ध (तां सु कीर्तिम्) उस शोभन गुणकीर्ति को वर्णन करता हूँ (यत्) जिससे कि (भीते रोदसी त्वा-अह्वयेताम्) भय को प्राप्त द्यावापृथ्वी के समान ज्ञान प्रकाशवाले और अज्ञान अन्धकारवाले जन या राजप्रजा तुझे आह्वान करते हैं-बुलाते हैं (देवान् प्र-अवः-यत्) जिससे कि तू दिव्यगुणवाले आस्तिकों की रक्षा करता है (दासम् अतिरः) उपक्षयकर्त्ता दुष्ट जन को तू नष्ट करता है (इन्द्र यत्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! जो तू (त्वस्यै प्रजायै-ओजः-अशिक्षः) देव और दास प्रजाओं में से एक देवप्रजा के लिए अध्यात्मबल को देता है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा का महत्त्व महान् है। उसकी गुणकीर्ति स्वतः सिद्ध है। ज्ञानी अज्ञानी दोनों वर्ग उसकी सता को अनुभव करते हुए भय करते हैं। वह सदाचारी ज्ञानियों की पूर्ण रक्षा करता है और असदाचरण करनेवाले दुष्ट जन को दण्ड देता है। अपितु देवश्रेणी की मनुष्यप्रजा को अपना अध्यात्मलाभ प्रदान करता है ॥१॥
विषय
इन्द्र। राजा और प्रभु का वर्णन। पृथिवी आकाशवत् राजा प्रजावर्ग की स्थिति। उन दोनों पर राजा का शासन। राजा के कर्त्तव्य, प्रजारक्षण, प्रजाशिक्षण, प्रजा का पोषण।
भावार्थ
हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! (ते) तेरी (ताम्) उस अलौकिक (महित्वा) महान् सामर्थ्य से प्राप्त कीर्त्ति को जानूं (यम्) जो (भीते रोदसी) भयभीत आकाश और पृथिवीवत् राजा और प्रजा दोनों वर्ग (त्वा अह्वयेताम्) तुझे अपनी रक्षार्थ बुलाते हैं। और तू (यत्) जो (देवान् प्र आवः) विद्वान्, ज्ञानार्थी, धनार्थी और शरणार्थी की अच्छी प्रकार रक्षा करता, और (दासम् आ अतिरः) विनाशकारी प्रजाघातक का सब प्रकार से नाश करता और (त्वस्मै प्रजायै) एक मात्र प्रजा को (ओजः अशिक्षः) बल-पराक्रम प्रदान करता और उसकी उसको शिक्षा भी करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
दिव्यता का प्रादुर्भाव
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते) = आपकी (तां सुकीर्तिम्) = उस उत्तम कीर्ति को मैं करता हूँ (यत्) = कि (महित्वा) = आपकी महिमा के कारण (भीते रोदसी) = भयभीत हुए हुए द्युलोक व पृथिवीलोक (त्वा अह्वयेताम्) = आपको पुकारते हैं। 'रोदसी' शब्द संसार के सब व्यक्तियों का यहाँ वाचक है । सब व्यक्ति प्रभु को चाहे भूले रहें, पर कष्ट आने पर विवशता में प्रभु का ही स्मरण करते हैं, सुख में सभी साथी होते हैं, पर दुःख में आपके अतिरिक्त और कोई साथी नहीं होता। [२] जब लोग आपकी ओर झुकते हैं तो आप (देवान् प्रावः) = दिव्यगुणों का रक्षण करते हैं। (दासम्) = दस्युपन को, दास्यव वृत्ति को, आसुरी भावनाओं को (आतिरः) = पराभूत करते हैं । [३] हे (इन्द्र) = सब आसुर भावनाओं का संहार करनेवाले प्रभो ! आप (यत्) = जब (त्वस्यै) = किसी एक धीर (प्रजायै) = विकास की प्रवृत्तिवाले पुरुष के लिये (ओजः) = ओजस्विता व शक्ति को (अशिक्षः) = [प्रायच्छ: सा०] देते हैं तो उसे दिव्यगुणों के वर्धन व आसुर भावों के क्षयवाला बनाते हैं। बस, बात यह है कि विषयों की आपात रमणीयता मनुष्य को उलझाये रखती है, मनुष्य इन सांसारिक चहल- पहलों में प्रभु को भूले रहता है । इस स्थिति में उसमें दिव्यगुणों का ह्रास व आसुर वृत्तियों का प्राबल्य हो जाता है। एक समय वह आता है जब कि वह अपने को कष्टों में उलझा हुआ पाता है। अब वह प्रभु की ओर झुकता है । प्रभु इसमें दिव्यगुणों का विकास करते हैं, उसकी आसुर भावनाओं का क्षय करते हैं । उसे ओजस्वी बनाते हैं कि वह उन्नतिपथ पर आगे बढ़ सके ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की मित्रता में [क] दिव्यगुणों का वर्धन होता है, [ख] आसुर भावनाओं का क्षय होता है, [ग] और ओजस्विता प्राप्त होती है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते ‘इन्द्र’शब्देन परमात्मा गृह्यते। तस्य स्वाभाविकनाम ‘ओ३म्’ प्रत्येकज्योतिष्मति पिण्डे ज्योतिर्ददाति मानवकल्याणाय वेदज्ञानमुपदिशति, इति प्रमुखविषयाः।
पदार्थः
(मघवन्) हे सर्वैश्वर्यस्वामिन् ! (ते महित्वा) तव महत्त्वेन सिद्धाम् (तां सु कीर्तिम्) तां शोभनां कीर्तिं गुणगीतिं वर्णयामि (यत्) यतः (भीते रोदसी त्वा-अह्वयेताम्) भयप्राप्तौ द्यावापृथिव्याविव ज्ञानप्रकाशवदज्ञानान्धकारवन्तौ जनौ राजाप्रजाजनौ वा “रोदसी द्यावापृथिव्याविव राजाप्रजाव्यवहारौ” [ऋ० ३।३८।८ दयानन्दः] त्वामाह्वयतः (देवान् प्रावः-यत्) यतस्त्वं देवान् दिव्यगुणयुक्ता नास्तिकान् रक्षसि (दासम्-अतिरः) उपक्षयकर्त्तारं दुष्टं जनं नाशयसि “अतिरः-हंसि” [ऋ० ४।३०।७ दयानन्दः] (इन्द्र यत्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! यत् त्वम् (त्वस्यै प्रजायै-ओजः-अशिक्षः) अपि तु देवदासयोर्मध्ये वर्तमानायै-एकस्यै देवप्रजायै बलमध्या-त्मबलं च ददासि “शिक्षति दानकर्मा” [निघ० ३।२०] ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of glory, I celebrate that renown of yours by the greatness of which the earth and heaven, both struck with awe, call upon you and glorify, by which you protect the holy and generous brilliancies, subdue the unholy negatives and destroyers, and by which you award the strength and lustre of life to your people.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा महान आहे. त्याची गुणकीर्ती स्वत: सिद्ध आहे. ज्ञानी अज्ञानी दोन्ही त्याच्या सत्तेचा अनुभव घेत भयभीत होतात. तो सदाचारी ज्ञानींचे पूर्ण रक्षण करतो व असदाचारी दुष्ट लोकांना दंड देतो. देवश्रेणीच्या माणसांना आपले अध्यात्मबल देतो. ॥१॥
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