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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒दं त॒ एकं॑ प॒र ऊ॑ त॒ एकं॑ तृ॒तीये॑न॒ ज्योति॑षा॒ सं वि॑शस्व । सं॒वेश॑ने त॒न्व१॒॑श्चारु॑रेधि प्रि॒यो दे॒वानां॑ पर॒मे ज॒नित्रे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ते॒ । एक॑म् । प॒रः । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । एक॑म् । तृ॒तीये॑न । ज्योति॑षा । सम् । वि॒श॒स्व॒ । स॒म्ऽवेश॑ने । त॒न्वः॑ । चारुः॑ । ए॒धि॒ । प्रि॒यः । दे॒वाना॑म् । प॒र॒मे । ज॒नित्रे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं त एकं पर ऊ त एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व । संवेशने तन्व१श्चारुरेधि प्रियो देवानां परमे जनित्रे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । ते । एकम् । परः । ऊँ इति । ते । एकम् । तृतीयेन । ज्योतिषा । सम् । विशस्व । सम्ऽवेशने । तन्वः । चारुः । एधि । प्रियः । देवानाम् । परमे । जनित्रे ॥ १०.५६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में ‘विश्वेदेवाः’ से पारिवारिक जन तथा विद्वान् गृहीत हैं। गुणकर्मानुसार विवाह, संयम से गृहस्थचालन, सन्तान की विद्यायोग्यता बनाना, आत्मा द्वारा परम्परा से जन्मधारण और मोक्षप्राप्ति आदि वर्णन है।

    पदार्थ

    (ते) हे आत्मन् ! तेरा (इदम्-एकम्) यह शरीर एक आश्रयस्थान है (ते परः-उ-एकम्) तेरा परजन्म-अगला जन्म दूसरा स्थान है, परन्तु (तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व) तृतीय स्थानभूत मोक्षस्थान को परमात्मज्योति से प्राप्त कर (तन्वः संवेशने चारुः-एधि) शरीर के लयस्थान मोक्ष में-तेरे तृतीय स्थान में तू अच्छी प्रकार रमणशील हो-स्वतन्त्र हो (परमे जनित्रे) उस अध्यात्म जन्म में-मोक्ष में (देवानां प्रियः) मुक्तों का प्रिय हो ॥१॥

    भावार्थ

    जीवात्मा का वर्त्तमान जन्म यह शरीर इस समय है। यही केवल नहीं, अपितु अगला जन्म भी इसका है। इस प्रकार बार-बार जन्म लेना इसका परम्परा से चला आता है। परन्तु जब ये परमात्मज्योति को अपने अन्दर समा लेता है, तो इन दोनों जन्मों को त्यागकर या जन्म-जन्मान्तर के क्रम को त्यागकर तीसरे अध्यात्मस्थान मोक्ष को प्राप्त होता है, जहाँ ये अव्याध गति से विचरता हुआ मुक्तों की श्रेणी में आ जाता है ॥१॥

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    विषय

    विश्वदेव। सर्वाश्रय प्रभु में रमण करते हुए सर्वोत्तम, ज्योतिर्मय प्रभु में मग्न होना।

    भावार्थ

    (इदं ते एकं) यह तेरे लिये एक ज्योति है। (ते एकं परः) तेरे लिये एक यह परम ज्योति है। तू (तृतीयेन) तृतीय, तृतीय, सर्वोत्कृष्ट (ज्योतिषा) ज्योति के साथ (संविशस्व) मग्न होकर रह। (तन्वः) आत्मा, देह के ओर तू (देवानां परमे जनित्रे) समस्त दिव्य शक्तियों, सूर्यादि लोकों और विद्वानों के उत्पादक (परमे) सर्वश्रेष्ठ (संवेशने) सेज के तुल्य सब को आश्रय देने वाले, प्रभु में (चारुः) सर्वत्र विचरण करता हुआ, (प्रियः) सर्वप्रिय होकर (तन्वः संविशस्व) नाना देहों और विस्तृत लोकों में भी प्रवेश कर और (एधि) रह।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहदुक्थो वामदेव्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती। ६ आर्ची भुरिंग् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    तीन ज्योतियाँ

    पदार्थ

    [१] प्रभु अपने स्तोता 'बृहदुक्थ' से कहते हैं कि (इदम्) = यह (ते) = तेरी (एकम्) = प्रथम ज्योति है। शरीर में यह ('वैश्वानर') = अग्नि [जाठराग्नि] के रूप से रहती है, यह ठीक से प्रज्वलित रहकर शरीर के स्वास्थ्य का कारण बनती है। स्वास्थ्य के तेज से यह बृहदुक्थ चमक उठता है। [२] (उ) = और (ते) = तेरी (एकम्) = एक ज्योति (परः) = और अधिक उत्कृष्ट है । यह हृदय की निर्मलता का कारण बनती है। इस ज्योति के कारण राग-द्वेष के अन्धकार से ऊपर उठकर तू प्रकाशमय व उल्लासमय हृदयवाला होता है। तू सब के साथ एकत्व के अनुभव से तेजस्वी बन जाता है। [३] अब तू मस्तिष्क में निवास करनेवाली (तृतीयेन) = तीसरी ज्ञानरूप (ज्योतिषा) = ज्योति के साथ (संविशस्व) = जीवन को आनन्दमय बनानेवाला हो। प्राज्ञ बनकर तू उत्कृष्ट आनन्द का अनुभव कर । [४] इस प्रकार (तन्व:) = शरीर के संवेशने इन तीन ज्योतियों से युक्त करने पर (चारु: एधि) = तू अत्यन्त सुन्दर जीवनवाला हो। वास्तव में इससे अधिक सुन्दर जीवन क्या हो सकता है कि शरीर स्वास्थ्य की ज्योति से चमकता हो, मन नैर्मल्य के कारण प्रसाद व उल्लासवाला हो और मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हो । तू इस (परमे जनित्रे) = सर्वोत्कृष्ट विकास के होने पर (देवानाम्) = सब देवों का (प्रियः) = प्रिय हो । सब देव तेरे साथ अनुकूलतावाले हों। बाह्य देवों का अन्दर के देवों के साथ आनुकूल्य ही शान्ति है । इस शान्ति में ही सुख है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर, मन व मस्तिष्क की ज्योतियों को सिद्ध करके हम परम विकास को सिद्ध करें और अपने जीवन को देवों की अनुकूलता में शान्त व सुखी बनाएँ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र ‘विश्वेदेवाः’ पारिवारिकजनास्तथा विद्वांसो गृह्यन्ते। गुणकर्मानुरूपो विवाहः, संयमेन गृहस्थचालनम्, सन्तानस्य विद्यायोग्यते सम्पादनीये आत्मनः परम्परातो जन्मधारणं मोक्षश्चोपदिश्यते।

    पदार्थः

    (ते) हे आत्मन् ! तव (इदम्-एकम्) इदं शरीरमेकं स्थानमाश्रयस्थानम् (ते परः-उ-एकम्) तव परोभूतं परजन्म खलु ह्येकं स्थानम्, परन्तु (तृतीयेन ज्योतिषा सम्-विशस्व) तृतीयस्थानभूतेन परमात्मज्योतिषा मोक्षस्थानं संविशस्व सम्प्राप्नुहि (तन्वः संवेशने चारुः-एधि) शरीरस्य संवेशने लयस्थाने यत्र शरीरं लीनं भवति तथाभूते मोक्षे तृतीयस्थाने त्वं चारुश्चरणशीलोऽबद्धः स्वतन्त्रो भव (परमे जनित्रे) तत् परमे जन्मनि-अध्यात्मजन्मनि मोक्षे (देवानां प्रियः) मुक्तानां प्रियो भव ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This (body, this life time) is one mode of your existence. The one next (mind and karma) is another such. By the third (spiritual and meditative life) join you with life eternal. On merging of the soul, happy and darling of the divinities, be free in the presence of the supreme creator of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्म्याचा वर्तमान जन्म हे शरीर यावेळी आहे एवढेच नव्हे, तर पुढचा जन्मही त्याचा आहे. वारंवार जन्म घेणे हे परंपरेने होत आहे; परंतु जेव्हा तो परमात्म ज्योतीला आपल्यामध्ये सामावून घेतो तेव्हा या दोन्ही जन्मांचा त्याग करून किंवा जन्मजन्मांतराचा क्रम त्यागून तिसरे अध्यात्मस्थान मोक्ष प्राप्त करतो जेथे तो अव्याध गतीने विचरण करून मुक्तांच्या श्रेणीत येतो. ॥१॥

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