ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - मन आवर्त्तनम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यत्ते॑ य॒मं वै॑वस्व॒तं मनो॑ ज॒गाम॑ दूर॒कम् । तत्त॒ आ व॑र्तयामसी॒ह क्षया॑य जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । य॒मम् । वै॒व॒स्व॒तम् । मनः॑ । ज॒गाम॑ । दूर॒कम् । तत् । ते॒ । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । इ॒ह । क्षया॑य । जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । यमम् । वैवस्वतम् । मनः । जगाम । दूरकम् । तत् । ते । आ । वर्तयामसि । इह । क्षयाय । जीवसे ॥ १०.५८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में भ्रान्त मन का पुनः यथास्थिति में लौटाना, भ्रान्ति से मन विविधस्थानों में भटकता हुआ अव्यवस्थितरूप में जो दुःखों को पाता है, उसे विविध उपचार एवं आश्वासनों से स्वस्थ करना बताया है।
पदार्थ
(यत् ते मनः) हे मानसिक-रोगयुक्त जन ! जो तेरा मन (वैवस्वतं यमं दूरकं जगाम) विवस्वान्-सूर्य से सम्बन्ध रखनेवाले काल के प्रति कल्पना से दूर चला गया है, न जाने क्या होगा, इस चिन्ता में पड़ गया है (ते तत्-आ वर्तयामसि) उस तेरे मन को हम वापस ले आते हैं (इह क्षयाय जीवसे) इसी शरीर में रहने और दीर्घजीवन के लिए ॥१॥
भावार्थ
मानसिक रोग का रोगी कल्पना से अन्यथा विचार करता हो कि न जाने क्या होगा ! मरूँगा ! तो कुशल चिकित्सक आश्वासन-चिकित्सा-पद्धति से उसे आश्वासन दे कि तू नहीं मरेगा, तेरे मन को इसी देह में रहने के लिए-दीर्घजीवन के लिए हम स्थिर करते हैं, तू चिन्ता न कर ॥१॥
विषय
मनः-आवर्त्तन। इस लोक में पुनः आने, जन्म लेने आदि के निमित्त मन का पुनः २ आवर्तन।
भावार्थ
हे मनुष्य ! (यत् ते मनः) जो तेरा मन (दूरकम्) दूर तक (वैवस्वतं यमं) विविध लोकों और ऐश्वर्यों के स्वामी, सर्वनियन्ता प्रभु, को भी (जगाम) पहुंच जाता है (ते) तेरे (तत्) उसको भी हम लोग (इह क्षयाय जीवसे) यहां रहने और जीवन लाभ करने के लिये (आ वर्त्तयामसि) पुनः लौटता पाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। देवता-मन आवर्तनम्॥ निचृदनुष्टुप् छन्दः॥ द्वादशर्चं सूकम्॥
विषय
'यम वैवस्वत' की ओर
पदार्थ
[१] (यत्) = जो (ते मनः) = तेरा मन (वैवस्वतम्) = विवस्वान् सम्बन्धी (यमम्) = मृत्यु के देव की ओर (दूरकं जगाम) = दूर-दूर जाता है (ते) = तेरे (तत्) = उस मन को (आवर्तयामसि) = वापिस लौटाते हैं । (इह क्षयाय) = यहाँ ही [क्षि निवासगत्योः] निवास व गति के लिये । इसलिए मन को लौटाते हैं कि वह यहीं रहे, जिस कार्य को कर रहे हैं उससे दूर न हो जिससे (जीवसे) = हमारा जीवन उत्तम व दीर्घ हो, दीर्घ जीवन के लिये मन को न भटकने देना आवश्यक है। भटकता हुआ मन शक्तियों की विकीर्णता का कारण बनता है और इस प्रकार जीवन का ह्रास हो जाता है। [२] यहाँ यम को, मृत्यु की देवता को वैवस्वत कहा है। विवस्वान् 'सूर्य' है, सूर्य की गति से दिन- रात बनते हैं और एक-एक करके आयुष्य के दिन घटते जाते हैं। इसी कारण यम को यहाँ वैवस्वत कहा गया है। कभी-कभी हमारा मन मृत्यु की ओर चला जाता है, कुछ मृत्यु का भय लगने लगता है । हमारी सारी क्रियाएँ उदासी के कारण समाप्त हो जाती हैं। हम मृत्यु का ही राग अलापने लगते हैं, इससे जीवन का ह्रास हो जाता है। मृत्यु को भूलना नहीं चाहिये, परन्तु मृत्यु का ही राग अलापते रहना भी ठीक नहीं। हम अपने मन को इस 'यम' से वापिस लाते हैं। मृत्यु को न भूलना जहाँ हमें धर्म-प्रवण करता है वहाँ हर समय मौत का ही ध्यान करते रहना हमें निराश व अकर्मण्य बना देता है ।
भावार्थ
भावार्थ - मन में हर वक्त मौत का ही चिन्तन करते रहना ठीक नहीं।
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते भ्रान्तस्य मनसः आवर्तनमुच्यते। यद् भ्रान्त्या मनो विविधेषु स्थानेषु निरन्तरं यत्र तत्राव्यवस्थितं सद् दुःखमवाप्नोति। विविधैरुपचारैराश्वासनैश्च तस्य स्वस्थं करणं कथ्यते।
पदार्थः
(यत्-ते मनः) हे मानसिक-रोगयुक्त जन ! तव यत् खलु मनोऽन्तःकरणम् (वैवस्वतं यमं दूरकं जगाम) विवस्वान् सूर्यः, तत्सम्बन्धिनं यमयितारं स्वाधीनीकर्त्तारं कालं प्रति कल्पनया न जाने किं भविष्यतीति चिन्तयन् दूरं गतम् (ते तत्-आवर्तयामसि) तव तन्मनो वयं प्रत्यानयामः-स्थिरीकुर्मः (इह क्षयाय जीवसे) अत्रैव शरीरे स्थितिं प्रापणाय दीर्घजीवनाय ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The theme of this hymn is ‘Return of the mind’ from wandering and depression to normalcy for a healthy life.$O man, that mind of yours that wanders far to the sun and broods over time and death, that we restore to normalcy, here to stay at peace for the good life.
मराठी (1)
भावार्थ
मानसिक रोगाचा रोजी कल्पनेने विचित्र विचार करत असेल की काय होईल कुणास ठाऊक! मी मरून जाईन!, तेव्हा कुशल चिकित्सकाने चिकित्सा पद्धतीने त्याला आश्वासन द्यावे, की तू मरणार नाहीस. तुझ्या मनाला याच देहात राहण्यासाठी - दीर्घजीवनासाठी आम्ही स्थिर करतो. तू चिंता करू नकोस. ॥१॥
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