ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र ता॒र्यायु॑: प्रत॒रं नवी॑य॒ स्थाता॑रेव॒ क्रतु॑मता॒ रथ॑स्य । अध॒ च्यवा॑न॒ उत्त॑वी॒त्यर्थं॑ परात॒रं सु निॠ॑तिर्जिहीताम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ता॒रि॒ । आयुः॑ । प्र॒ऽत॒रम् । नवी॑यः । स्थाता॑राऽइव । क्रतु॑ऽमता । रथ॑स्य । अध॑ । च्यवा॑नः । उत् । त॒वी॒ति॒ । अर्थ॑म् । प॒रा॒ऽत॒रम् । सु । निःऽऋ॑तिः । जि॒ही॒ता॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तार्यायु: प्रतरं नवीय स्थातारेव क्रतुमता रथस्य । अध च्यवान उत्तवीत्यर्थं परातरं सु निॠतिर्जिहीताम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । तारि । आयुः । प्रऽतरम् । नवीयः । स्थाताराऽइव । क्रतुऽमता । रथस्य । अध । च्यवानः । उत् । तवीति । अर्थम् । पराऽतरम् । सु । निःऽऋतिः । जिहीताम् ॥ १०.५९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में भिन्न-भिन्न देवतावाचक शब्दों से अनेक प्रयोजन हैं−संयम से गृहस्थचालन, अन्नसंग्रह, शीघ्र बुढ़ापा और मौत न आए, इस प्रकार आचरण करना आदि-आदि।
पदार्थ
(क्रतुमता) गृहस्थ यज्ञवाले गृहस्थ जन के द्वारा (नवीयः प्रतरम्-आयुः प्र तारि) उत्पन्न हुए बालक की अतिनवीन बढ़ने योग्य आयु बढ़ानी चाहिए (रथस्य स्थातारा-इव) जैसे रथ के अन्दर बैठनेवाले शुभ यात्रा को करते हैं, उसी भाँति गृहस्थ रथ में स्थित अपनी शुभ यात्रा करें (अध) अनन्तर (च्यवानः परातरम्-अर्थम्-उत्तवीति) जैसे कोई यात्रा करता हुआ अत्यन्त दूर के स्वलक्ष्य को भी प्राप्त करता है (निर्ऋतिः सुजिहीताम्) जीवनयात्रा के मध्य आई कृच्छ्र आपत्ति भी सुगमता से उन्हें छोड़ दे अर्थात् गृहस्थ आश्रम में आये दुःख संकट को सुगमता से सहन कर सकें, ऐसे बरतें ॥१॥
भावार्थ
गृहस्थ आश्रम में रहते हुए स्त्री-पुरुष गृहस्थ को ऐसे चलाएँ, जैसे कि कोई रथस्थ यात्री अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। गृहस्थ का लक्ष्य है धर्माचरण करते हुए उत्तम सन्तान का उत्पन्न करना, उसकी आयु को बढ़ाना और उसे गुणवान् बनाना ॥१॥
विषय
निर्ऋतिः। गृहस्थ को सुखपूर्वक निभाने का उपदेश। बालक दीर्घायु हों।
भावार्थ
(नवीयः) अति नवीन, नवोत्पन्न बालक की (आयुः) आयु, जीवन, (प्र तारि) खूब बढ़े, (प्रतरं तारि) और भी खूब खूब बढ़े। (क्रतुमता) कर्म और ज्ञान से युक्त (रथस्य स्थातारा इव) रथ के ऊपर बैठने वाले रथी सारथी के समान गृहस्थ के स्त्री पुरुष दोनों (परातरम्) खूब दूर २ तक (सु-जिहीताम्) सुख से गमन किया करें। (अध) और (च्यवानः) रथ से जाने वाला पुरुष (अर्थम्) प्राप्त करने योग्य उद्देश्य को (उत्तवीति) उत्तम रीति से प्राप्त करे और (निर्ऋतिः) कष्ट-दशा (परातरम् जिहीताम्) खूब दूर होजाय। अथवा (निर्ऋतिः) अशेष आनन्द-सुखों को देने वाली भूमि (परातरां सुजिहीताम्) खूब दूर तक की हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बन्ध्वादयो गौपायनाः। देवता—१—३ निर्ऋतिः। ४ निर्ऋतिः सोमश्च। ५, ६ असुनीतिः। लिङ्गोक्ताः। ८, ९, १० द्यावापृथिव्यौ। १० द्यावापृथिव्याविन्द्रश्च॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४–६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
क्रतुमान् सारथि
पदार्थ
[१] गत सूक्त के अनुसार मनोनिरोध के होने पर (आयुः) = जीवन (प्रतरम्) = [ प्रवृद्धतरं] प्रवृद्धतर, दीर्घ व (नवीयः) = नवतर - यौवन से युक्त, न जीर्ण हुआ हुआ स्तुति के योग्य [ नु स्तुतौ ] (प्रतारि) = बढ़ता है । हमारा जीवन दीर्घ व स्तुत्य [प्रशस्त] होता है । हम उसी प्रकार जीवन में बढ़ते हैं (इव) = जैसे कि (रथस्य स्थातारः) = रथ पर स्थित होनेवाले पति-पत्नी क्रतुमता उत्तम प्रज्ञान व कर्मवाले सारथि से बढ़ते हैं । इस शरीर रथ में आत्मा रथी है, पति, बुद्धि उसकी पत्नी है और प्रभु सारथि हैं, वे पूर्ण प्रज्ञा व कर्मवाले हैं । [२] (अध) = अब प्रभु को रथ का सारथि बनाने पर, (च्यवानः) = सब अशुभों से पृथक् होता हुआ (अर्थम्) = वाञ्छनीय धर्म, अर्थ, काम व मोक्षरूप पुरुषार्थों को (उत्तवीति) = बढ़ाता है। और इस प्रार्थना के योग्य होता है कि (निर्ऋतिः) = दुर्गति (परातरम्) = बहुत ही दूर (सुजिहीताम्) = पूर्णतया चली जाए। दुर्गति से हम दूर हों । प्रभु जब हमारे रथ के सारथि होते हैं तब दुर्गति का वस्तुतः प्रश्न ही नहीं रहता। अहंकार-वश जब हमें रथ के स्वयं संचालन का गर्व हो जाता है तो हम भटक जाते हैं और दुर्गति का शिकार होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन दीर्घ व स्तुत्य हो । प्रभु हमारे रथ के सारथि हों और हम दुर्गति से दूर रहें।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते भिन्नभिन्नदेवतावाचकशब्देभ्योऽनेके लाभा ग्राह्याः, यथा संयमेन गृहस्थचालनं, स्थायित्वमन्नस्य, शीघ्रं जरामरणे न स्यातामिति वार्तिकम्।
पदार्थः
(क्रतुमता) गृहस्थयज्ञवता जनेन गृहस्थेन (नवीयः-प्रतरम्-आयुः प्रतारि) नवतरं जातस्य बालस्य प्रकृष्टतरं प्रवर्धनयोग्यमायुः प्रवर्धयितव्यम् (रथस्य स्थातारा-इव रथस्य स्थातारौ-यथा रथे तिष्ठन्तौशुभां यात्रां वहतस्तद्वद्गृहस्थे तिष्ठन्तौ स्त्रीपुरुषौ शुभयात्रां वहतः (अध) अथ-अनन्तरम् (च्यवानः परातरम्-अर्थम्-उत्तवीति) यथा कश्चिद् गच्छन् “च्यवानं गच्छन्तम्” [ऋ० १।११७।१३ दयानन्दः] दूरतरं स्वलक्ष्यं प्राप्नोति (निर्ऋतिः सुजिहीताम्) जीवनयात्राया मध्ये खल्वागता कृच्छ्रापत्तिः सुगमतया त्यजतु दूरं गच्छतु वा ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let new life and new initiative rise and advance higher and higher as the dynamic master of the chariot constantly moves forward and as the progressive pioneer achieves his goal and moves higher and higher. Let want and adversity fall off and depart far and farther.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थाश्रमात स्त्री-पुरुषांनी गृहस्थधर्म असा चालवावा, की जसा रथातून यात्रा करणारा यात्रेकरू आपले लक्ष्य प्राप्त करतो. धर्माचरण करत उत्तम संतान उत्पन्न करणे, त्याचे आयुष्य वाढविणे, त्याला गुणवान करणे हे गृहस्थाचे लक्ष्य आहे. ॥१॥
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