ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
अ॒यं स यस्य॒ शर्म॒न्नवो॑भिर॒ग्नेरेध॑ते जरि॒ताभिष्टौ॑ । ज्येष्ठे॑भि॒र्यो भा॒नुभि॑ॠषू॒णां प॒र्येति॒ परि॑वीतो वि॒भावा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । सः । यस्य॑ । शर्म॑न् । अवः॑ऽभिः । अ॒ग्नेः । एध॑ते । ज॒रि॒ता । अ॒भिष्टौ॑ । ज्येष्ठे॑भिः । यः । भा॒नुऽभिः॑ । ऋ॒षू॒णाम् । प॒रि॒ऽएति॑ । परि॑ऽवीतः । वि॒भाऽवा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स यस्य शर्मन्नवोभिरग्नेरेधते जरिताभिष्टौ । ज्येष्ठेभिर्यो भानुभिॠषूणां पर्येति परिवीतो विभावा ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । सः । यस्य । शर्मन् । अवःऽभिः । अग्नेः । एधते । जरिता । अभिष्टौ । ज्येष्ठेभिः । यः । भानुऽभिः । ऋषूणाम् । परिऽएति । परिऽवीतः । विभाऽवा ॥ १०.६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य-अग्नेः-शर्मन्) जिस अग्रणायक परमात्मा के शरण में-उपासन में (अवोभिः) विविध रक्षणविधानों द्वारा (जरिता) स्तुतिकर्ता-उपासक जन (अभिष्टौ) निज अभिकाङ्क्षा-प्राप्ति हो जाने पर (एधते) समृद्ध हो जाता है अभ्युदय और मोक्ष पा लेता है, (सः-अयम्) वह यह परमात्मा (यः) जो (ज्येष्ठेभिः-भानुभिः) श्रेष्ठ भ्रान्तिराहित ज्ञानप्रकाशों से (परिवीतः) परिपूर्ण है, (विभावा) विशेष प्रकाशवान् (ऋषूणां पर्येति) मन्त्रसाक्षात्कर्ता अग्नि आदि परम ऋषियों को आरम्भ सृष्टि में सर्वभाव से प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा की उपासनारूप शरण में उपासक की रक्षा करनेवाले परमात्मा के बहुत से प्रकार हैं, जिनसे उसकी कार्यसिद्धि हो जाने पर उपासक समृद्ध हो जाता है, अभ्युदय और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में अग्नि आदि परम ऋषियों के अन्दर साक्षात् प्राप्त होकर उन्हें निर्भ्रान्त ज्ञान प्रकाश-वेद को देता है ॥१॥
विषय
प्रभु की शरण में
पदार्थ
(अयम्) = ये प्रभु (स) = वे हैं (यस्य अग्नेः) = जिस अग्रेणी प्रभु के (अवोभिः) = रक्षणों से (शर्मन्) = अपने गृह में अथवा आनन्द में [शर्म सुखानि] (एधते) = वृद्धि को प्राप्त करता है। प्रभु के रक्षण ही हमारा वर्धन करनेवाले हैं, प्रभु के रक्षण से दूर होते ही हम विनष्ट होते हैं । 'वृद्धि कौन प्राप्त करता है ?' इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (जरिता) = स्तोता । प्रभु के गुणों के स्तवन करनेवाला वृद्धि को प्राप्त करता है । यह गुणस्तवन उसके सामने सदा एक ऊँचे लक्ष्य को उपस्थित करता है । (अभिष्टौ) = [यागे कृते] यज्ञों के होने पर ही हम वृद्धि को प्राप्त करते हैं। प्रभु का स्तवन करते हुए, प्रभु के आदेशानुसार, जब हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं तभी हमारी वृद्धि होती है । वृद्धि को वह प्राप्त करता है (यः) = जो कि (ज्येष्ठेभिः भानुभिः) = उत्कृष्ट ज्ञानदीप्तियों को प्राप्त करने के हेतु से (ऋभूणां) = तत्त्व द्रष्टा ज्ञानियों को (पर्येति) = परिक्रमा करता है, उनको आदर देता हुआ उनके चरणों में उपस्थित होता है । एवं यह 'स्तोता, यज्ञशील, ज्ञानियों का उपासक' वृद्धि को प्राप्त करता है, और (परिवीतः) = ज्ञान से परिवृत हुआ हुआ, ज्ञानियों के सम्पर्क से खूब ज्ञान को प्राप्त हुआ- हुआ यह (विभावा) = विशिष्ट ही दीप्ति वाला होता है। इस ब्रह्मनिष्ठ पुरुष की भान्ति अद्भुत ही होती है, यह प्रभु के तेज के अंश से चमक रहा होता है, प्रभु-सा बन गया होता है [ब्रह्म इव] ।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्तोता - यज्ञशील ज्ञानियों के सम्पर्क में रहनेवाले, ज्ञान से परिवृत बनकर प्रभु के रक्षणों से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करते हैं ।
विषय
अग्नि आचार्य का वर्णन। उसके अधीन उपनीत शिष्य की प्राप्ति और वृद्धि।
भावार्थ
(अग्नेः) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञान के प्रकाशक के (शर्मन्) गृह या शरण या सुख में (अभिष्टौ) अभीष्ट फल प्राप्त करने के लिये (जरिता) स्तुति करने वाला पुरुष (यस्य अवोभिः) जिसके रक्षाओं, ज्ञानों और स्नेहों से (एधते) बढ़ता है, और (यः) जो (ज्येष्ठेभिः भानुभिः) उत्तम कान्तियों से (ऋषूणां पर्येति) ज्ञानदर्शी विद्वानों और विद्यार्थियों के बीच (परिवीतः) कान्ति युक्त सूर्यवत् तेजस्वी वा उपवीत होकर (परि एति) प्राप्त होता है (सः) वह ही (वि-भावा) विशेष कांति से उज्ज्वल (अयं सः) यह (अग्निः) तेजस्वी ‘अग्नि’ नाम से कहाने योग्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २ विराट् पंक्ति। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः। ६ पंक्तिः। ७ पादनिचृदत्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
पूर्ववत्।
पदार्थः
(यस्य-अग्नेः-शर्मन्-अवोभिः) यस्य ह्यग्ने परमात्मनः शरणे-उपासने सति विविधरक्षणप्रकारैः (जरिता) स्तुतिकर्त्ता जनः “जरिता स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] (अभिष्टौ) निजाभिकाङ्क्षाप्राप्तौ सत्याम् (एधते) समृद्धो भवति (सः-अयम्) सोऽयं परमात्माऽस्ति (यः) यश्च (ज्येष्ठेभिः-भानुभिः) श्रेष्ठैर्निर्भ्रान्तैर्ज्ञानप्रकाशैः “भानुभिः-विद्याप्रकाशैः” [यजु० १२।३२ दयानन्दः] (परिवीतः) परिपूर्णः (विभावा) विशिष्टप्रकाशवान् (ऋषूणां पर्येति) ऋषून्-ऋषीन्-अग्न्यादीन् परमर्षीन् “ऋषूणां मन्त्रार्थविदां व्यत्ययेन-इकारस्थान उत्वं षष्ठी च [ऋ० १।२५।१ दयानन्दः] सर्वभावेन प्राप्नोति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This is that Agni under whose shelter with all protection the celebrant rises towards the attainment of total fulfilment and who, self-refulgent and gracious, infinitely abundant, transcends all with the highest and most blazing lights of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराची उपासना करून शरण जाणाऱ्या उपासकाचे परमेश्वर विविध प्रकारे रक्षण करतो. ज्यामुळे कार्यसिद्धी झाल्यावर उपासक समृद्ध होतो. अभ्युदय व मोक्ष प्राप्त करतो. परमेश्वर सृष्टीच्या आरंभी अग्नी इत्यादी परम ऋषींमध्ये साक्षात प्राप्त होऊन त्यांना निर्भ्रान्त ज्ञानप्रकाश-वेद देतो. ॥१॥
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