ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
ये य॒ज्ञेन॒ दक्षि॑णया॒ सम॑क्ता॒ इन्द्र॑स्य स॒ख्यम॑मृत॒त्वमा॑न॒श । तेभ्यो॑ भ॒द्रम॑ङ्गिरसो वो अस्तु॒ प्रति॑ गृभ्णीत मान॒वं सु॑मेधसः ॥
स्वर सहित पद पाठये । य॒ज्ञेन॑ । दक्षि॑णया । सम्ऽअ॑क्ताः । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । अ॒मृत॒ऽत्वम् । आ॒न॒श । तेभ्यः॑ । भ॒द्रम् । अ॒ङ्गि॒र॒सः॒ । वः॒ । अ॒स्तु॒ । प्रति॑ । गृ॒भ्णी॒त॒ । मा॒न॒वम् । सु॒ऽमे॒ध॒सः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सख्यममृतत्वमानश । तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥
स्वर रहित पद पाठये । यज्ञेन । दक्षिणया । सम्ऽअक्ताः । इन्द्रस्य । सख्यम् । अमृतऽत्वम् । आनश । तेभ्यः । भद्रम् । अङ्गिरसः । वः । अस्तु । प्रति । गृभ्णीत । मानवम् । सुऽमेधसः ॥ १०.६२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर से परमर्षियों के अन्तःकरण में वेदों का प्रकाश तथा उनके द्वारा प्रचार, ज्ञानदान की महिमा आदि विषय हैं।
पदार्थ
(ये यज्ञेन दक्षिणाया समक्ताः) जो अध्यात्मयज्ञ से तथा स्वात्मदान से-स्वात्मसमर्पण से सम्यक् प्रसिद्ध-अलंकृत होते हुए (इन्द्रस्य सख्यम्) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के मित्रभाव को तथा (अमृतत्वम् आनशे) अमृतरूप को प्राप्त करते हैं (अङ्गिरसः) हे अङ्गियों ! अङ्गवाले आत्माओं के लिए ज्ञान सुख के देने वालों अथवा अङ्गों को प्रेरित करनेवाले संयमित जनों ! (तेभ्यः-वः-भद्रम्-अस्तु) उन तुम लोगों के लिए कल्याण हो (सुमेधसः-मानवं प्रति गृभ्णीत) अच्छे मेधावी लोगों ! शिष्य भाव से प्राप्त हुए मानव को स्वीकार करो ॥१॥
भावार्थ
जो अध्यात्मयज्ञ और आत्मसमर्पण द्वारा अपने को सिद्ध-सुसज्जित करते हैं, वे परमात्मा के मित्र भाव और अमृतस्वरूप को प्राप्त करते हैं। वे ऐसे अन्य आत्माओं को सुख देनेवाले तथा उत्तम प्रेरणा करनेवाले एवं योग्य मनुष्य को अपने ज्ञान की शिक्षा देनेवाले कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥१॥
विषय
विश्वेदेव और आङ्गिरस गण। ईश्वरोपासना से मोक्ष लाभ। विद्वानों के कल्याण की भावना। विद्वानों का कर्त्तव्य, मनुष्यों पर अनुग्रह करना।
भावार्थ
(ये) जो (यज्ञेन) यज्ञ से, ईश्वरोपासना से और (दक्षिणया) दक्षिणा वा उत्तम कर्म से (समक्ताः) सुप्रकाशित, विख्यात, और व्यक्त गुणों वाले होकर (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (सख्यम्) मित्रभाव, (अमृतत्वम्) मोक्षरूप, अमृत को (आनश) प्राप्त कर लेते हैं। हे (अंगिरसः) ज्ञानवान् तेजस्वी, पुरुषो ! वा प्राणो ! (तेभ्यः) उन के लिये (वः) आप लोगों का (भद्रम्) सर्वसुखकारी कल्याण (अस्तु) हो अथवा—(तेभ्यः वः भद्रम् अस्तु) उनसे आप लोगों को सदा कल्याण प्राप्त हो। हे (सु-मेधसः) उत्तम ज्ञान और बुद्धि वाले जनो ! आप लोग (मानवं) मनुष्यों को (प्रति गृभ्णीत) अपने तईं स्वीकार करो। उन पर अनुग्रह कर उनको अपना शिष्य बना कर उपदेश करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥
विषय
मानव धर्म [भद्र]
पदार्थ
[१] (तेभ्यः वः) = उन तुम्हारे लिये, हे (अंगिरसः) = अंग-अंग में रसवालो ! (भद्रं अस्तु) = कल्याण व सुख हो, (ये) = जो तुम (यज्ञेन) यज्ञ से व (दक्षिणया) = दान की वृत्ति से (समक्ताः) = संगत व युक्त हो। 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म' यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म हैं, ये कर्म लोकहित के कर्म हैं। इन कर्मों को व्यक्ति स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर ही कर पाता है । यज्ञात्मक कर्मों में ही दक्षिणा भी एक कर्म है। दान से ही मनुष्य लोकहित के कर्मों को कर पाता है। [२] ये यज्ञ व दक्षिणा से युक्त पुरुष धन के मित्र न बनकर के (इन्द्रस्य सख्यम्) = प्रभु की मित्रता को आनश प्राप्त करते हैं । इस प्रभु की मित्रता का परिणाम होता है कि ये (अमृतत्वम्) = अमृतत्व को, मोक्ष को प्राप्त करते हैं । प्रकृति में फँसे रहने पर ही जन्म-मरण का चक्र चलता है प्रकृति से ऊपर उठते ही यह चक्र समाप्त हो जाता है । अमृतत्व प्राप्ति का भाव यह भी है कि प्रभु की मित्रता के होने पर मनुष्य उस अद्भुत आनन्द को प्राप्त करता है जिसकी कि तुलना में ये लौकिक आनन्द अत्यन्त तुच्छ हो जाते हैं । उस परमानन्द को प्राप्त व्यक्ति इन चीजों के प्रति रसवाला नहीं रहता । भोगासक्ति के न होने के कारण शरीर में जीर्णता भी नहीं आती, ये अंगिरस् बने रहते हैं । [३] इन अंगिरसों को अब अपने लिये कुछ नहीं करना होता । प्रभु की मित्रता व प्रभु की प्राप्ति के बाद और कुछ प्राप्तव्य ही नहीं रहता । 'ऐसी स्थिति में ये व्यक्ति अब कर्म क्यों करें ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे (सुमेधसः) = उत्तम बुद्धिवाले अंगिरसो ! तुम (मानवं प्रति गृभ्णीत) = मानव धर्म का ग्रहण करो। तुम्हारा प्रत्येक कार्य मानवहित के लिये हो । लोकसंग्रह के उद्देश्य से तुम्हारे कर्म प्रवृत्त रहें । इन लोकहित के कर्मों को करने से ही नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्य यज्ञों व दान की वृत्ति को अपनाये, प्रभु की मित्रता को प्राप्त करें। अपने लिये कुछ करने को न होने पर भी मानवहित के लिये कर्म करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Brilliant divinities of light and wisdom, Angirasas, self-realised souls dear as breath of life, who, distinguished and beautified by performance of yajna, self-sacrifice and liberal giving, have won the love and friendship of Indra, lord almighty, and attained the freedom of immortality, may there be all round auspicious good fortune for you in life. O sagely divines, pray take man under your kind care for spiritual refinement.
मराठी (1)
भावार्थ
जे अध्यात्मयज्ञ व आत्मसमर्पणाद्वारे स्वत:ला सिद्ध-सुसज्जित करतात. ते परमेश्वराचा मित्रभाव व अमृतस्वरूप प्राप्त करतात. ते अशा इतर आत्म्यांना सुख देणारे, उत्तम प्रेरणा करणारे व योग्य माणसाला आपल्या ज्ञानाचे शिक्षण देणारे बनतात, त्यांचे कल्याण होते. ॥१॥
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