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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    दे॒वान्हु॑वे बृ॒हच्छ्र॑वसः स्व॒स्तये॑ ज्योति॒ष्कृतो॑ अध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसः । ये वा॑वृ॒धुः प्र॑त॒रं वि॒श्ववे॑दस॒ इन्द्र॑ज्येष्ठासो अ॒मृता॑ ऋता॒वृध॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वान् । हु॒वे॒ । बृ॒हत्ऽश्र॑वसः । स्व॒स्तये॑ । ज्यो॒तिः॒ऽकृतः॑ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्रऽचे॑तसः । ये । व॒वृ॒धुः । प्र॒ऽत॒रम् । वि॒श्वऽवे॑दसः । इन्द्र॑ऽज्येष्ठासः । अ॒मृताः॑ । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवान्हुवे बृहच्छ्रवसः स्वस्तये ज्योतिष्कृतो अध्वरस्य प्रचेतसः । ये वावृधुः प्रतरं विश्ववेदस इन्द्रज्येष्ठासो अमृता ऋतावृध: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवान् । हुवे । बृहत्ऽश्रवसः । स्वस्तये । ज्योतिःऽकृतः । अध्वरस्य । प्रऽचेतसः । ये । ववृधुः । प्रऽतरम् । विश्वऽवेदसः । इन्द्रऽज्येष्ठासः । अमृताः । ऋतऽवृधः ॥ १०.६६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में ब्रह्मचारी, विद्वान्, जीवन्मुक्त, वैज्ञानिक हों, उनसे ज्ञानकला का प्रसार हो तथा किरणों वायु आदि पदार्थों के ज्ञान से प्रजाजन सुख को प्राप्त करें, यह वर्णन है।

    पदार्थ

    (बृहच्छ्रवसः) बहुत ज्ञान का श्रवण किये हुए (ज्योतिष्कृतः) संसार में ज्ञानज्योति के फैलानेवाले (अध्वरस्य प्रचेतसः) अध्यात्मयज्ञ के प्रकृष्टरूप में प्रसिद्ध करनेवाले (देवान् हुवे) विद्वानों को आमन्त्रित करता हूँ, (ये) जो (विश्ववेदसः) सब धनोंवाले-सब ऐश्वर्योंवाले (इन्द्र ज्येष्ठासः) परमात्मा जिनका ज्येष्ठ इष्टदेव है, ऐसे (अमृताः) जीवन्मुक्त (ऋता-वृधः) सत्य को बढ़ानेवाले (पितरं वावृधुः) मुझे भलीभाँति बढ़ाएँ ॥१॥

    भावार्थ

    बहुश्रुत, ज्ञानज्योति का प्रसार करनेवाले, आध्यात्मिक, परमात्मा को श्रेष्ठ उपास्य माननेवाले महाविद्वानों को समय-समय पर आमन्त्रित करके ज्ञानलाभ लेना चाहिए, जो जीवन को उत्तरोत्तर उन्नतिपथ पर ले जावें ॥१॥

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    विषय

    विश्वेदेव। राजा गुरु आदि पूज्यों की उपासना और सत्संग का उपदेश।

    भावार्थ

    मैं (स्वस्तये) कल्याण के लिये (बृहत् श्रवसः) बड़े ज्ञान वाले यशस्वी, (ज्योतिः-कृतः) प्रकाशवान् सूर्य के समान ज्ञान का सम्पादन करने वाले, और (अध्वरस्य प्र-चेतसः) हिंसारहित जगत् पालन के कार्य को जानने वाले जनों को (हुवे) आदरपूर्वक बुलाता हूं। (ये) जो (विश्व-वेदसः) सब प्रकार का ज्ञान जानने वाले और समस्त धनों के स्वामी (इन्द्र-ज्येष्ठासः) इन्द्र, राजा और इन्द्र गुरु को अपने में सर्वश्रेष्ठ, प्रधान मानने वाले (अमृताः) दीर्घायु, चिरंजीव (ऋत-वृधः) सत्य ज्ञान, तेज, न्याय और ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाले होकर (प्रतरं ववृधुः) खूब वृद्धि को प्राप्त करते हैं वा सब को तराने वाले स्वामी प्रभु की महिमा को बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    [धनी परन्तु प्रभुभक्त] देवों के लक्षण

    पदार्थ

    [१] मैं (स्वस्तये) = जीवन में उत्तम स्थिति के लिये (देवान्) = देवों को (हुवे) = पुकारता हूँ, इन देवों के सान्निध्य से मेरा भी जीवन उन जैसा ही बनता है और मैं कल्याण को प्राप्त करनेवाला होता हूँ। देवों के सम्पर्क में देव ही बन जाता हूँ । किन देवों को ? [क] (बृहत् श्रवसः) = खूब उत्कृष्ट ज्ञानवाले देवों को। इनके प्रति प्रणिपात परि प्रश्न व सेवन से मैं भी उत्कृष्ट ज्ञानवाला क्यों न बनूँगा ? [ख] (ज्योतिष्कृतः) = ज्ञान की ज्योति को चारों ओर फैलानेवालों को । ऐसे ही देवों से मैं ज्ञान - ज्योति को प्राप्त कर सकूँगा। [ग] (अध्वरस्य प्रचेतसः) = यज्ञों को खूब अच्छी प्रकार समझनेवालों को । इन से यज्ञों को समझकर मैं भी निर्दोष यज्ञों को करनेवाला बनूँगा । जिस समय मेरे यज्ञ में सेरों घृत की आहुतियाँ पड़ रही होती हैं, उस समय उस यज्ञभूमि के समीप ही एक व्यक्ति भूख से पीड़ित हुआ हुआ अन्न को नहीं प्राप्त करता तो यह यज्ञ निर्दोष नहीं कहा जा सकता। [घ] (ये) = जो देव (प्रतरम्) = खूब ही (वावृधुः) = वृद्धि के मार्ग का आक्रमण करते हैं। इनका उपासक बन मैं भी वृद्धि के मार्ग पर आगे बढूँगा ही। [ङ] (विश्ववेदसः) = जो सम्पूर्ण धनोंवाले हैं, परन्तु साथ ही (इन्द्रज्येष्ठासः) = जिनके जीवने में प्रभु की प्रधानता है । धनवाले होते हुए भी जो धन को ही प्रथम स्थान नहीं दे देते। (अमृताः) = इन धनों के लिये मरनेवाले नहीं है, इनका जीवन केवल धन के लिये ही नहीं हो जाता। ये (ऋतावृधः) = अपने जीवन में ऋत का वर्धन करनेवाले होते हैं। धनों का विनियोग यज्ञों में करते हैं। इस प्रकार के देवों को पुकारता हुआ मैं भी धनी - प्रभु भक्त, विषयों में अनासक्त व यज्ञशील बनता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देवों के सम्पर्क में मैं भी दिव्य जीवनवाला बनूँ ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते राष्ट्रे ब्रह्मचारिणो विद्वांसो जीवन्मुक्ता वैज्ञानिकाः स्युस्तेभ्यो ज्ञानकलाप्रसारो भवेत्तथा सूर्यरश्मिवायुप्रभृतीनां पदार्थानां ज्ञानेन प्रजाजनाः स्युरिति वर्णितम्।

    पदार्थः

    (बृहच्छ्रवसः) महज्ज्ञानश्रवणवतः (ज्योतिष्कृतः) संसारे ज्ञानप्रकाशं ये कुर्वन्ति तान् (अध्वरस्य प्रचेतसः) अध्यात्मयज्ञस्य प्रकृष्टं चेतयितॄन् (देवान् हुवे) विदुष आमन्त्रये (ये) ये खलु (विश्ववेदसः) सर्वधनवन्तः सर्वैश्वर्यवन्तः (इन्द्रज्येष्ठासः) इन्द्रः परमात्मा ज्येष्ठः पूज्य उपासनीयो येषां ते (अमृताः) जीवन्मुक्ताः (ऋतावृधः) सत्यस्य वर्धयितारः (प्रतरं वावृधुः) मां प्रकृष्टतरं वर्धयन्तु ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the good and well being of life all round, I invoke the Vishvedevas, all bounties and divinities of nature and humanity. Abundant and renowned are they, refulgent givers of light, enlightened promoters of the yajna of love and non-violence, who enhance the creative and productive processes of overcoming ignorance, injustice and poverty. Immortal observers and promoters of universal law with Indra, the omnipotent, as their supreme leader, they know, command and promote the entire wealth and well being of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बहुश्रुत, ज्ञानज्योतीचा प्रसार करणाऱ्या आध्यात्मिक, परमात्म्याला श्रेष्ठ उपास्य मानणाऱ्या महाविद्वानांना वेळोवेळी आमंत्रित करून ज्ञानलाभ घेतला पाहिजे. ज्यामुळे जीवन उत्तरोत्तर प्रगतिपथावर जावे. ॥१॥

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