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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    भ॒द्रा अ॒ग्नेर्व॑ध्र्य॒श्वस्य॑ सं॒दृशो॑ वा॒मी प्रणी॑तिः सु॒रणा॒ उपे॑तयः । यदीं॑ सुमि॒त्रा विशो॒ अग्र॑ इ॒न्धते॑ घृ॒तेनाहु॑तो जरते॒ दवि॑द्युतत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्राः । अ॒ग्नेः । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वस्य॑ । स॒म्ऽदृशः॑ । वा॒मी । प्रऽणी॑तिः । सु॒ऽरणाः॑ । उप॑ऽइतयः । यत् । ई॒म् । सु॒ऽमि॒त्राः । विशः॑ । अग्रे॑ । इ॒न्धते॑ । घृ॒तेन॑ । आऽहु॑तः । ज॒र॒ते॒ । दवि॑द्युतत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रा अग्नेर्वध्र्यश्वस्य संदृशो वामी प्रणीतिः सुरणा उपेतयः । यदीं सुमित्रा विशो अग्र इन्धते घृतेनाहुतो जरते दविद्युतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्राः । अग्नेः । वध्रिऽअश्वस्य । सम्ऽदृशः । वामी । प्रऽणीतिः । सुऽरणाः । उपऽइतयः । यत् । ईम् । सुऽमित्राः । विशः । अग्रे । इन्धते । घृतेन । आऽहुतः । जरते । दविद्युतत् ॥ १०.६९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में राजा प्रजा के धर्म का प्रतिपादन, राजा के द्वारा प्रजा का हितसाधन तथा परमात्मा की कृपा सब पर रहती है, वह सबके द्वारा मान्य और उपासकों के दोषों का नाशक है, आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (वध्र्यश्वस्य-अग्नेः) नियन्त्रित अश्व हैं अथवा नियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं जिसकी, उस विद्वान् राजा की (संदृशः-भद्राः) सम्यक् दृष्टियाँ कल्याणकारिणी हैं (प्रणीतिः-वामी) प्रेरणा श्रेष्ठ है (उपेतयः सुरणाः) शरणें या छत्रछायाएँ सुख में रमण करानेवाली हैं (सुमित्रा-विशः) उसकी प्रजाएँ सुमित्र भाव को प्राप्त होकर (यत्-ईम्) जब (अग्रे) पहले (इन्धते) राजपद पर प्रसिद्ध करती हैं (आहुतः-घृतेन दविद्युतत्-जरते) राजा के रूप में स्वीकार किया हुआ वह तेज से प्रकाशमान राजा प्रजाओं के द्वारा स्तुत किया जाता है, प्रशंसित किया जाता है ॥१॥

    भावार्थ

    जिस राजा के अश्व तथा इन्द्रियाँ सुनियन्त्रित हों, प्रजा पर उसकी कृपादृष्टि हो, अच्छी प्रेरणा हो, छत्रछाया सुखदायक हो, प्रजाओं में परस्पर मित्रभाव हो, ऐसे राजा को प्रजाएँ उत्तम शासक मानती हैं और प्रशंसित करती हैं ॥१॥

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    विषय

    अग्नि। संयमी के परमात्मविषयक सम्यङ् दर्शन उसी की यज्ञाग्निवत् प्रतिष्ठा। पक्षान्तर में—राजा के कल्याणकारी कार्य, प्रजा द्वारा उसका अभिषेक।

    भावार्थ

    (वध्र्यश्वस्य) घोड़ों के समान इन्द्रियों का वेग शान्त करके इन्द्रियों को वश करने वाले संयमी पुरुष की (अग्नेः) उस प्रकाशस्वरूप ज्ञानवान्, सब के आदि सञ्चालक परमेश्वर के विषय में (सं-दृशः) अच्छी प्रकार से किये दर्शन (भद्राः) बहुत उत्तम, कल्याणकारक और सुखजनक होते हैं। उसकी (प्रणीतिः) उत्तम नीति, वाणी या व्यवहार भी (वामी) सब को सुखजनक होता है। उसके (उपेतयः) अन्यों के समीप आगमन भी (सुरणाः) सुखजनक उपदेश और हर्षदायक होते हैं। (यत्) जब (ईम्) इसको सब प्रकार से (सुमित्राः विशः) उत्तम स्नेही प्रजाएं उसके (अग्रे) सबसे प्रथम यज्ञाग्नि के तुल्य प्रमुख पद पर (इन्धते) प्रदीप्त या प्रतिष्ठित करते हैं, उसे विद्या और शील की शिक्षा से उज्ज्वल करते हैं। वह (आहुतः) आदर से स्वीकृत और आमन्त्रित होकर (घृतेन आहुतः) घी से आहुति प्राप्त अग्नि के सदृश, (घृतेन आहुतः) ज्ञान-प्रकाश से शिक्षित होकर (विद्युतम्) विशेष दीप्ति से चमकता हुआ, तेजस्वी होकर (जरते) ज्ञानोपदेश करता है। (२) राजा के पक्ष में—राजा स्वयं वध्र्यश्व है। ‘वध्रि’ अर्थात् तीव्र वेग से जाने वाले अश्वों का स्वामी वा ‘वध्रि’ शत्रुओं का वध करने वाले अश्व अर्थात् राष्ट्र-बल-सैन्य का स्वामी सेनापति वा राजा वहीं तेजस्वी अग्नि है। उसकी (दृशः भद्राः) सम्यक् दृष्टि सब प्रजाओं को सुख कल्याणकारिणी हों। उसकी (प्र-नीतीः वामीः) उत्तम नीतियां सब को कल्याणकारी हों। (उप-इतयः सुरणाः) उसके आगमन प्रजाओं के रक्त शोषण के लिये न हों प्रत्युत (सुरणाः) सुखप्रद, आनन्दोत्सव के लिये हो। (विशः सुमित्राः ईम् अग्रे इन्धते) प्रजाएं उसकी मित्र होकर उसको अग्रासन पर प्रकाशित करें। वह (घृतेन आहुतः) घृत से आहुति प्राप्त अग्नि के तुल्य (घृतेन आहुत) तेज से व्याप्त होकर वा (घृतेन आहुतः) जल से अभिषिक्त होकर (दविद्युतत्) चमकता हुआ (जरते) प्रजा पर आज्ञा-दान आदि से शासन करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्वः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृज्जगती। २ विराड् जगती। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, ५, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९, ११ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    वधायश्व [ संयम रज्जुवाला ]

    पदार्थ

    [१] (अग्नेः) = प्रगतिशील (वध्र्यश्वस्य) = संयम रज्जु से बद्ध इन्द्रियाश्ववाले पुरुष की (संदृश:) = दृष्टियाँ (भद्राः) = भद्र होती हैं। इसका दृष्टिकोण ठीक व कल्याण कर ही होता है । दृष्टिकोण की भद्रता का ही परिणाम है कि (प्रणीतिः) = इसका कार्यों के प्रणयन का मार्ग (वामी) = सुन्दर ही सुन्दर होता है। यह प्रत्येक कार्य को सुचारुरूपेण करता है। इसके (उपेतयः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों के प्रति उपगमन (सुरणाः) = [ शोभनरमणाः सा० ] उत्तम आनन्द को लिये हुए होते हैं, अर्थात् यह यज्ञादि कर्मों में आनन्दपूर्वक प्रवृत्त होता है । [२] (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (सुमित्राः विशः) = अपने को पापों व रोगों से बचानेवाली प्रजाएँ (अग्रे) = सब से पूर्व (इन्धते) = प्रभु रूप अग्नि का अपने में समिन्धन करती हैं, तो (घृतेन) = मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति के द्वारा [घृ क्षरणदीप्त्योः ] (आहुतः) = आत्मार्पण किया गया वह प्रभु (दविद्युतत्) = खूब दीप्त होता हुआ, हृदय में प्रकाश के रूप से चमकता हुआ, (जरते) = स्तुत होता है । 'सुमित्र' अपने पापों व रोगों को नष्ट करके, निर्मलता व ज्ञानदीप्ति का सम्पादन करके, प्रभु के प्रति अपने को अर्पित करता है। इसके हृदय में प्रभु का खूब ही प्रकाश होता है और सुमित्र प्रभु का सतत स्तवन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-संयमी पुरुष का दृष्टिकोण उत्तम होता है, कार्य करने का तरीका सुन्दर होता है, यज्ञादि में प्रसन्नता से यह प्रवृत्त होता है । यह संयमी निर्मलता व ज्ञानदीप्ति के द्वारा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है, प्रभु के प्रकाश को देखता है और उसका सतत स्तवन करता है ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते राजप्रजाधर्मप्रतिपादनम्, राज्ञा प्रजाहितसाधनं तथा परमात्मनः कृपा सर्वेषामुपरि भवति स सर्वैर्मन्तव्यः, सः उपासकानां दोषान्निवारयतीत्यादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (वध्र्यश्वस्य-अग्नेः) वध्रयो नियन्त्रिता अश्वो इन्द्रियाणि वा यस्य स तस्याग्रणेतुर्विदुषो वा (सन्दृशः-भद्राः) सन्दृष्टयः कल्याणकारिण्यः (प्रणीतिः-वामी) प्रेरणा श्रेष्ठा (उपेतयः सुरणाः) उपगतयः शरणाश्छत्रछायाश्च सुखरमणीयाः सन्ति (सुमित्राः-विशः) तस्य प्रजाः सुमित्रभावं प्राप्ताः (यत् इम्) यदा हि (अग्रे) पूर्वं (इन्धते) प्रकाशन्ते राजपदे प्रसिद्धं कुर्वन्ति मन्यन्ते (आहुतः-घृतेन दविद्युतत्-जरते) राजत्वेन स्वीकृतस्तेजसा द्योतमानः स्तूयते प्रशस्यते “तेजो वै घृतम्” [काठ० २२।६] प्रजाभिः ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययः’ ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the controlled and directed radiations of light and yajna fire, Agni, be auspicious, may its inspiration and guidance be auspicious and rewarding, may its associations and functioning mutualities be auspicious. When noble and friendly people kindle and install it in the prime position in the vedi of yajna then, raised and fed on oblations of ghrta, it rises and shines, adored and exalted by the celebrants.$(This metaphor of physical fire and light, of which the flames and radiations are controlled and directed, is extendable to the socio-political and educational life of the human community. In this context Agni is to be interpreted as the leader, ruler, commander and teacher, leading the people to auspicious attainments. And, as in the case of all words indicative of divinity, Agni is the supreme lord of light and life whose divine functions are all self-refulgent and self- controlled, leading us all to auspicious attainments.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राजाचे अश्व व इंद्रिये सुनियंत्रित असतील, प्रजेवर त्याची कृपादृष्टी असेल, चांगली प्रेरणा असेल, छत्रछाया सुखदायक असेल, प्रजेमध्ये परस्पर मित्रभाव असेल तर अशा राजाला प्रजा उत्तम शासक मानते व प्रशंसित करते. ॥१॥

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