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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः देवता - आप्रियः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मां मे॑ अग्ने स॒मिधं॑ जुषस्वे॒ळस्प॒दे प्रति॑ हर्या घृ॒ताची॑म् । वर्ष्म॑न्पृथि॒व्याः सु॑दिन॒त्वे अह्ना॑मू॒र्ध्वो भ॑व सुक्रतो देवय॒ज्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । इ॒ळः । प॒दे । प्रति॑ । ह॒र्य॒ । घृ॒ताची॑म् । वर्ष्म॑न् । पृ॒थि॒व्याः । सु॒दिन॒ऽत्वे । अह्ना॑म् । ऊ॒र्ध्वः । भ॒व॒ । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । दे॒व॒ऽय॒ज्या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां मे अग्ने समिधं जुषस्वेळस्पदे प्रति हर्या घृताचीम् । वर्ष्मन्पृथिव्याः सुदिनत्वे अह्नामूर्ध्वो भव सुक्रतो देवयज्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । मे । अग्ने । सम्ऽइधम् । जुषस्व । इळः । पदे । प्रति । हर्य । घृताचीम् । वर्ष्मन् । पृथिव्याः । सुदिनऽत्वे । अह्नाम् । ऊर्ध्वः । भव । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । देवऽयज्या ॥ १०.७०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    यहाँ विद्यासूर्य, विद्वान् की विद्या उसकी सहयोगिनी, विद्वान् से विद्या ग्रहण करना, परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना उसे मैत्री करानेवाली होती है, वे मनबुद्धिचित्त अहङ्कार द्वारा साधनीय हैं आदि वर्णन है।

    पदार्थ

    (इडस्पदे) स्तुति के पद-स्थान हृदय में वर्तमान, या विद्यास्थान में वर्तमान, (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् या विद्वन् ! (मे) मेरी (इमां समिधं जुषस्व) इस सम्यक् इन्धनीय-दीपनीय आत्मा को अपने गुणों से प्रकाशनार्थ सेवा में ले अथवा शिष्यभाव से समर्पित तुच्छ उपहाररूप समिधा को सेवन कर-स्वीकार कर (घृताचीम्) अज्ञान रात्रि को (प्रतिहर्य) दूर कर-हटा (सुक्रतो) हे अच्छे कर्मवाले, अच्छे प्रज्ञानवान् ! (देवयज्या) तुझ उपास्य देव की संगति हो, वैसी स्तुति के द्वारा अथवा तुझ विद्वान् देव जैसा मैं हो जाऊँ, ऐसी संगति से (पृथिव्याः-वर्ष्मन्) शरीर के प्राणवर्षण प्राणप्रेरक स्थान हृदय में ध्यान से वर्तमान हो अथवा ज्ञान से हृदय में वर्तमान हो (सुदिनत्वे) मेरे अच्छे दिन के निमित्त (अह्नाम्-ऊर्ध्वः-भव) मेरे समस्त जीवनदिवसों के ऊपर अधिष्ठाता हो ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की आत्मभाव से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे मेरे स्तुत्य देव ! तू मेरे हृदय में विराजमान हो। आन्तरिक अन्धकार को दूर करके मेरे आत्मा को अपने प्रकाश से प्रकाशित कर। मुझे अपनी सङ्गति से मेरे जीवन के दिनों के ऊपर संरक्षक बनकर उत्कृष्ट बना। एवं विद्वान् के पास जाकर के प्रार्थना करनी चाहिए कि हे विद्वन् ! शिष्यभाव से प्राप्त मैं अपने को तेरे समर्पित करता हूँ। मेरे आत्मा को अपने ज्ञान से प्रकाशमान बना, अज्ञानान्धकार को दूर कर, अपने जैसा विद्वान् मुझे बना, मेरे हृदय के अन्दर तेरा ज्ञानमय स्वरूप निहित हो जाये। मेरे जीवन के दिनों को ऊँचा बनाने के लिए मेरा संरक्षक बन ॥१॥

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    विषय

    अग्नि।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी, ज्ञान का प्रकाश करने-हारे ! गुरो ! (मे) मेरी (इमाम्) इस (समिधम्) समिधा को (जुषस्व) स्वीकार कर यह मेरा आत्मा तेरे संग से, अग्नि के संग से काष्ठ के तुल्य प्रज्वलित हो, इसको अपना शिष्य स्वीकार कर। (इडः पदे) वेदवाणी के ज्ञान कराने के निमित्त, (घृताचीम्) सूर्य जिस प्रकार रात्रि को दूर करता है उसी प्रकार (घृताचीम् प्रतिहर्य) तू भी मेरे हृदयाकाश से अज्ञानमयी मोह रात्रि को (प्रति हर्य) दूर कर। अथवा अग्नि जिस प्रकार घृत से युक्त स्त्रुवा वा समिधा को ग्रहण करता है उसी प्रकार स्नेह वा ज्ञानप्रकाश से युक्त वाणी को (मे प्रति हर्य) मुझे प्राप्त करा। (पृथिव्याः) भूमि के (वर्ष्मन्) उन्नत भाग पर या भूमि पर वृष्टि कार्य करने के निमित्त मेघ के तुल्य तू (पृथिव्याः) ज्ञान-बीज के वपनार्थ भूमि के तुल्य शिष्यरूप भूमि के ऊपर (वर्ष्मन्) देहादि पर और (अह्नां सु-दिनत्वे) दिन को उत्तम दिन बनाने के निमित्त सूर्य के समान (अन्हां सु दिनत्वे) मेरे भावी दिनों को उत्तम सुखकारी दिन बनाने के लिये हे (सुक्रतो) शुभ कर्म और प्रज्ञावन् ! तू (देवयज्या) ज्ञान की कामना करने वाले शिष्यों को ज्ञान प्रदान करने एवं उनके सत्कार पूजा आदि से (ऊर्ध्वः भव) उन्नत, पूज्य होकर विराज।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेदज्ञान व देवयज्ञ

    पदार्थ

    [१] प्रभु सुमित्र से कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (मे) = मेरी (इमाम्) = इस (समिधम्) = वेदज्ञान के रूप में दी गई ज्ञानदीप्ति को (जुषस्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला बन। इस (घृताचीम्) = मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति की साधनभूत वेदवाणी को (इडस्पदे) = इस वाणी के स्थान में (प्रति हर्या) = प्रतिदिन प्राप्त करने की कामना कर । वाणी से इसका उच्चारण करता हुआ इसे अपनानेवाला बन । इस ज्ञान को अपनाने से तू सचमुच अपने मलों को दूर करके दीप्त हो उठेगा। उस समय 'अग्नि' यह तेरा नाम सार्थक हो जाएगा, तू सचमुच अपने को आगे प्राप्त करा रहा होगा। [२] (पृथिव्याः वर्षान्) = इस पृथिवी के पृष्ठ पर [वर्षान् = surface] अ(ह्नां सुदिनत्वे) = दिनों के शुभ बनाने के निमित्त (ऊर्ध्वो भव) = तू उठ खड़ा हो। सोया न रह जा । हे (सुक्रतो) = उत्तम प्रज्ञा व उत्तम कर्मोंवाले जीव ! तू (देवयज्या) = देवयज्ञ आदि के हेतु से पुरुषार्थवाला हो। इन देवयज्ञ आदि उत्तम कर्मों से ही तो तू अपने दिन को शुभ बना पायेगा। तू पुरुषार्थवाला हो, तेरे पुरुषार्थ यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रकट हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का आदेश है कि [क] ज्ञान को प्राप्त करो और [ख] यज्ञादि उत्तम कर्मों में जीवन को व्याप्त करो ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र विद्यासूर्यविदुषो विद्या तत्सहायकरी भवति, विदुषो विद्या ग्राह्या, परमात्मनः स्तुतिप्रार्थनोपासनास्तेन सह मैत्रीं सम्पादयन्ति ताश्च मनबुद्धिचित्ताहङ्कारैः साधनीयाः, इति वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (इडस्पदे) स्तुत्याः पदे स्तुतिस्थाने हृदये वर्तमान ! यद्वा ज्ञानप्रकाशस्य स्थाने विद्यास्थाने वर्तमान ! “ईडे स्तुतिकर्मणः, इन्धतेर्वा” [निरु० ८।८] (अग्ने) अग्रणायक परमात्मन् ! यद्वा विद्वन् ! (मे) मम (इमां समिधं जुषस्व) एतां समिन्धनीयां सम्यक् प्रकाशन्यामात्मसमिधं स्वगुणैः प्रकाशनार्थं सेवायां नय यद्वा शिष्यभावनया समर्पितां समिधं तुच्छोपहारभूतां सेवस्व-स्वीकुरु “समित्पाणिः श्रोत्रियं गुरुमभिगच्छ ब्रह्मनिष्ठम्” [मुण्डक उप० १।२] (घृताचीम्) अज्ञानरात्रिम् “घृताची रात्रिनाम” [निघ० १।७] (प्रतिहर्य) प्रतिगमय दूरं कुरु “हर्यति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (सुक्रतो) हे सुकर्म सुप्रज्ञान ! (देवयज्या) उपास्यदेवस्य तव सङ्गतिर्यथा स्यात् तथाभूतया भवत्सङ्गत्याः (पृथिव्याः-वर्ष्मन्) शरीरस्य “यच्छरीरं सा पृथिवी” [ऐ० आ० २।३।३] प्राणवर्षणस्थाने प्राणप्रेरकस्थाने हृदये वर्तमानो भव ध्यानेन ज्ञानेन वा हृदये स्थानं प्राप्नुहि (सुदिनत्वे) मम शोभनदिननिमित्तं (अह्नाम्-ऊर्ध्वः-भव) मम समस्तजीवनदिवसानामुपरि-अधिष्ठाता भव ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divine spirit of light and life, harbinger of knowledge and wisdom, on the sacred vedi of this holy earth, pray accept this homage of holy fuel and cherish this ladleful of ghrta and, O divine fire of noblest action, during this happy time of fine season rise on top of the world and shine by our faithful service to divinity by yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची आत्मीय भावाने प्रार्थना केली पाहिजे, की हे माझ्या स्तुत्यदेव, तू माझ्या हृदयात विराजमान हो. आंतरिक अंधकार दूर करून माझ्या आत्म्याला प्रकाशाने प्रकाशित कर. मला आपल्या संगतीने माझ्या जीवनाचा संरक्षक बनून उत्कृष्ट बनव व विद्वानाजवळ जाऊन प्रार्थना केली पाहिजे, की हे विद्वाना! शिष्य भावाने मी स्वत:ला समर्पित करतो. माझ्या आत्म्याला आपल्या ज्ञानाने प्रकाशयुक्त बनवून अज्ञानांधकार दूर कर. तुझ्यासारखा विद्वान मला बनव. माझ्या हृदयात तुझे ज्ञानमय स्वरूप निहित व्हावे. माझे जीवन उच्च करण्यासाठी माझा संरक्षक बन. ॥१॥

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