ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
आ व॑ ऋञ्जस ऊ॒र्जां व्यु॑ष्टि॒ष्विन्द्रं॑ म॒रुतो॒ रोद॑सी अनक्तन । उ॒भे यथा॑ नो॒ अह॑नी सचा॒भुवा॒ सद॑:सदो वरिव॒स्यात॑ उ॒द्भिदा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । ऋ॒ञ्ज॒से॒ । ऊ॒र्जाम् । विऽउ॑ष्टिषु । इन्द्र॑म् । म॒रुतः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न॒क्त॒न॒ । उ॒भे इति॑ । यथा॑ । नः॒ । अह॑नी॒ इति॑ । स॒चा॒ऽभुवा॑ । सदः॑ऽसदः । व॒रि॒व॒स्यातः॑ । उ॒त्ऽभिदा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ व ऋञ्जस ऊर्जां व्युष्टिष्विन्द्रं मरुतो रोदसी अनक्तन । उभे यथा नो अहनी सचाभुवा सद:सदो वरिवस्यात उद्भिदा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वः । ऋञ्जसे । ऊर्जाम् । विऽउष्टिषु । इन्द्रम् । मरुतः । रोदसी इति । अनक्तन । उभे इति । यथा । नः । अहनी इति । सचाऽभुवा । सदःऽसदः । वरिवस्यातः । उत्ऽभिदा ॥ १०.७६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में मोक्षप्राप्ति का उपाय, संसारसुख के उपदेश, सदाचरण से जीवन की सफलता, विद्वानों का समागम करना चाहिए इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(वः) तुम विद्वानों को (आ ऋञ्जसे) भली-भाँति अपने अनुकूल बनाता हूँ, कि तुम (ऊर्जां व्युष्टिषु) अन्नादि को विविध कामनाओं में (इन्द्रं मरुतः-रोदसी) ऐश्वर्यवान् परमात्मा को, जीवन्मुक्तों को, पाप से रोकनेवाले मित्र सम्बन्धियों को (अनक्तन) सुखरूप भावित करो (यथा नः) जैसे उस कृपा से हमारे लिये (उभे सचा भुवा-अहनी) दोनों साथ होनेवाले दिन-रात (सदःसदः) घर-घर में (उद्भिदा) दुःखनिवारकरूप में (वरिवस्यातः) सेवन में आवें-दुःखनिवारक होवें ॥१॥
भावार्थ
विद्वानों के अनुकूल आचरण करने से अन्नादि की प्राप्ति होती है। परमात्मा को जीवन्मुक्त मित्रसम्बन्धी जन भी अपनाते हैं, दिन-रात भी प्रत्येक घर में सुखदायक व्यतीत होते हैं ॥१॥
विषय
ग्राव गण। विद्वानों और वीर पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वानो और वीर पुरुषो ! मैं (ऊर्जाम् वि-उष्टिषु) बलवाली सेनाओं के नाना विभागों में (वः आ ऋञ्जसे) आप लोगों को प्रसाधित करता हूं, अच्छी प्रकार सुसज्जित करता हूँ। आप लोग (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् स्वामी राजा वा सेनापति को और (मरुतः) शत्रु को मारने वाले बलवान् पुरुष को और (रोदसी) आकाश-भूमिवत् दुष्टों को रुलाने वाले, रुद्र को पालन करने वाली मुख्य सेनाओं को (अनक्तन) प्रकट करो। (यथा) जिस प्रकार से (नः) हमें (उभे अहनी) रात दिन दोनों कालों के तुल्य (सचाभुवा) एक साथ रहने वाले स्त्री पुरुष (सदः-सदः) प्रत्येक घर में (उत्-भिदा) उत्तम सुखप्रद अन्न आदि से (वरिवस्यातः) एक दूसरे की सेवा, सत्कार करें। (२) इसी प्रकार विद्वान् लोग प्राणों के निवासाश्रयों में इन्द्र, आत्मा और मरुतों, प्राणों को और रोदसी प्राण और अपान दोनों को (अनक्तन) प्रकट करें, उसका साक्षात् करें।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥
विषय
मरुत व रोदसी' का अलंकरण
पदार्थ
[१] श० १४ । २, २ । ३३ में 'प्राणा वै ग्रावाणः ' इन शब्दों में प्राणों को 'ग्रावा' कहा है। प्राणशक्ति का मूल 'वीर्य' सोम है । [१] जराकर्ण इन ग्रावों-सोमों को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि (ऊर्जा व्युष्टिषु) = बलों के उदय के निमित्त सब अंग-प्रत्यंगों को शक्ति प्राप्त कराने के निमित्त मैं (वः) = आपको (आ ऋञ्जसे) = सर्वथा प्रसाधित करता हूँ । तुम सिद्ध होकर (इन्द्रम्) = आत्मा को, (मरुतः) = प्राणों को, (रोदसी) = द्यावापृथिवी को मस्तिष्क व शरीर को (अनक्तन) = कान्त व शोभित बनाओ। रक्षित हुए हुए तुम्हारे द्वारा आत्मिक शक्ति का विकास हो, प्राणों की शक्ति का विकास हो, मस्तिष्क ज्ञानोज्ज्वल हो और शरीर स्वास्थ्य की दीप्तिवाला । [२] रक्षित हुए हुए तुम ऐसी कृपा करो कि (यथा) = जिससे (नः) = हमारे (उभे अहनी) = दोनों दिन व रात (सचाभुवा) = सदा उस प्रभु के साथ बीतनेवाले हों। हम जागरित अवस्था में व स्वप्नावस्था में प्रभु का स्मरण करते हुए अपने कार्यों को करनेवाले हों। ये दोनों दिन-रात (उद्भिदा) = हमारी उन्नति का कारण हों तथा (सदः सदः) = प्रत्येक सभा में (वरिवस्यातः) = उस प्रभु का पूजन करनेवाले हों । जब कभी सभाओं में हम एकत्रित हों तो प्रभु के गुणों का ही कीर्तन करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम शरीर में सोमकणों का प्रसाधन करें। सारे कार्यों को करते हुए प्रभु को न भूलें।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते वेदे मोक्षप्राप्तेरुपायः संसारसुखस्य चोपदेशाः सन्ति सदाचरणेन जीवनसाफल्यं विदुषां समागमः करणीय इत्येवमादयो विषयाः प्रदर्श्यन्ते।
पदार्थः
(वः) युष्मान् विदुषः (आ-ऋञ्जसे) समन्तात् प्रसाधयामि प्रार्थयेऽनुकूलान् सेवे यद् यूयम् (ऊर्जां व्युष्टिषु) अन्नादि-वस्तूनां कमनीयप्रवृत्तिषु “व्युष्टिषु विविधा उष्टयः कामनाश्च तासु” [ऋ० १।४४।३ दयानन्दः] (इन्द्रं मरुतः-रोदसी-अनक्तन) ऐश्वर्यवन्तं परमात्मानं रोदसी रोधसी पापाद् रोधयितारौ मित्रसम्बन्धिनौ जीवन्मुक्तान् “मरुतो वै देवविशः” [कौ० ७।८] “रोदसी रोधसी” [निरु० ६।१] सम्पादयत भावयत (यथा नः-उभे सचाभुवा-अहनी) यथा हि तया कृपया अस्मभ्यम्-उभौ सहभुवौ-अहोरात्रौ (सदः सदः) गृहे गृहे “ङि प्रत्ययस्य लुक्” सुपां सुलुक्० [अष्टा० ७।१।३९] (उद्भिदा) दुःखनिवारकत्वेन “उद्भिदाः-दुःखनिवारकाः” [ऋ० १।८९।१ दयानन्दः] (वरिवस्यातः) सेवेताम्-दुखनिवारकौ भवेताम् ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O scholars and celebrants of yajna, creators of soma wealth, I honour and cooperate with you at the dawn of light and energy in the morning. Pray honour, celebrate and serve Indra, the sun, the winds, the earth and the environment and reveal their power and potential for us so that both day and night they may produce and give us wealth bom of earth for every home.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांच्या अनुकूल आचरण करण्याने अन्न इत्यादीची प्राप्ती होते. परमात्म्याला जीवनमुक्त मित्रांनाही आपलेसे करण्याने प्रत्येक घरात दिवस-रात्रही सुखदायक होतात. ॥१॥
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