ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
ऋषिः - अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निः सप्तिं॑ वाजम्भ॒रं द॑दात्य॒ग्निर्वी॒रं श्रुत्यं॑ कर्मनि॒ष्ठाम् । अ॒ग्नी रोद॑सी॒ वि च॑रत्सम॒ञ्जन्न॒ग्निर्नारीं॑ वी॒रकु॑क्षिं॒ पुरं॑धिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । सप्ति॑म् । वा॒ज॒म्ऽभ॒रम् । द॒दा॒ति॒ । अ॒ग्निः । वी॒रम् । श्रुत्य॑म् । क॒र्म॒निः॒ऽस्थाम् । अ॒ग्निः । रोद॑सी॒ इति॑ । वि । च॒र॒त् । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । अ॒ग्निः । नारी॑म् । वी॒रऽकु॑क्षिम् । पुर॑म्ऽधिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निः सप्तिं वाजम्भरं ददात्यग्निर्वीरं श्रुत्यं कर्मनिष्ठाम् । अग्नी रोदसी वि चरत्समञ्जन्नग्निर्नारीं वीरकुक्षिं पुरंधिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । सप्तिम् । वाजम्ऽभरम् । ददाति । अग्निः । वीरम् । श्रुत्यम् । कर्मनिःऽस्थाम् । अग्निः । रोदसी इति । वि । चरत् । सम्ऽअञ्जन् । अग्निः । नारीम् । वीरऽकुक्षिम् । पुरम्ऽधिम् ॥ १०.८०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा अपने स्तुति करनेवाले को पाप से बचाता है, मोक्ष प्रदान करता है इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(अग्निः) ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा (सप्तिम्) गमनशील प्राण को (वाजम्भरम्) वेग धारण करनेवाले मन को (ददाति) देता है (अग्निः) परमात्मा (श्रुत्यम्) श्रवणशील आज्ञाकारी (कर्मनिष्ठाम्) कर्म में श्रद्धावाले (वीरम्) पुत्र को देता है (अग्निः) परमात्मा (रोदसी) गृहस्थाश्रम को संभालनेवाले स्त्री-पुरुषों को (समञ्जन्) परस्पर संयुक्त करने को (विचरत्) विशेष प्रेरणा देता है (वीरकुक्षिम्) पुत्र कुक्षि में जिसकी हो, ऐसी (पुरन्धिं नारीं) पुर नगर तथा घर को धारण करनेवाली स्त्री को सम्पादित करता है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा मानव को संसार में कार्यसिद्धि के लिए प्राण और मन प्रदान करता है और आज्ञाकारी पुत्र को भी प्रदान करता है। गृहस्थ आश्रम को धारण करने के लिये स्त्री-पुरुषों को प्रेरित करता है और स्त्री को पुत्र को गर्भ में धारण करने के योग्य बनाता है ॥१॥
विषय
अग्निः। प्रभु परमेश्वर आत्मा और वीर शासक पुरुष का अग्निवत् श्लिष्ट वर्णन। सर्वधारक अग्नि, सूर्यवत् सर्वधारक प्रभु सर्वोत्पादक है। पक्षान्तर में चिति शक्ति और वाणी आदि का धारक वेदादि वचनों से श्रोतव्य आत्मा।
भावार्थ
प्रभु, परमेश्वर, आत्मा और वीर शासक पुरुष का अग्निवत् श्लिष्ट वर्णन। (अग्निः) जिस प्रकार अग्नि (वाजं-भरम् सप्तिम्) अन्न को खाकर पुष्ट होने वाले गतिशील देह को (ददाति = दधाति) पुष्ट करता है, अग्नि विद्युत् (वाजं-भरम् सप्तिं ददाति) स्वामी को वेग से दूर देश में लेजाने वाला गतिशील यान प्रदान करता है, उसी प्रकार (अग्निः) परमेश्वर वा आत्मा ही (वाजं-भरम्) बल वीर्य के धारक सूर्य आदि लोक, अन्न आदि धारक गतिशील पृथिवी आदि लोक को (ददाति) धारण करता है। या वही प्रभु इस जीव को (वाजं-भरं सप्तिं) बलवीर्य धारक मन वा आत्मा से पुष्ट होने वाले प्राण वा देह को प्रदान करता है। (अग्निः) वही तेजःस्वरूप प्रभु हमें (वीरं) वीर्यवान् (श्रुत्यं) श्रुत, वेदार्थ-ज्ञान में निष्ठ (कर्म-निष्ठाम्) सत् कर्म में निष्ठ, पुरुष वा पुत्र (ददाति) प्रदान करता है। (अग्निः) वह प्रभु परमेश्वर सूर्यवत् (रोदसी सम्-अञ्जन्) दोनों लोकों को प्रकाशित करता हुआ (वि चरत्) व्यापता है, वही (अग्निः) ज्ञानवान् प्रभु (वीर-कुक्षिम्) पुत्र को कोख में धारण करने वाली (पुरं-धिम्) देहधारक वा गृह-कुटुम्ब की धारक (नारीम्) स्त्री को भी बनाता और र पालन करता (२) आत्मा (श्रुत्यं) वेद में प्रसिद्ध, वा वेद आदि वचनों से श्रवण करने योग्य (वीरं) देह को संचालित करने वा विविध वाणी बोलने वाले (कर्म-निः-ष्ठाम्) कर्म में निरत आत्मा को धारण करता, वही आत्मा दोनों लोकों में विचरता है, वही (वीर-कुक्षिम्) प्राणों के गर्भ के लिये ‘पुरन्धि’ अर्थात् पुर रूप देह के धारक नारी अर्थात् पुरुष की चिति शक्ति को धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः सौचीको वैश्वानरो वा॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥
विषय
'वीर श्रुत्य-कर्मनिष्ठ' सन्तान
पदार्थ
[१] (अग्निः) = वह अग्रेणी परमात्मा (सप्तिम्) = [सप् to worship] बड़ों का आदर करनेवाले [to obey, to do, to perfome] बड़ों के कहने के अनुसार कर्म करनेवाले (वाजम्भरम्) = अपने में शक्ति को धारण करनेवाले सन्तान को ददाति देता है । (अग्निः) = वे प्रभु (वीरम्) = वीर (श्रुत्यम्) = ज्ञानश्रवण में उत्तम (कर्मनिष्ठाम्) = [ कर्मणि निश्चयेन तिष्ठति] यज्ञादि उत्तम कर्मों में निष्ठावाले सन्तान को देता है। हम प्रभु का उपासन करते हैं, गतसूक्त के अनुसार सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखते हैं तो प्रभु हमारे सन्तानों को भी उत्तम बनाते हैं । [२] (अग्निः) = वे प्रभु (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, हमारे मस्तिष्क व शरीर को (समञ्जन्) = अलंकृत करते हुए (विचरत्) = गति करते हैं। प्रभु कृपा से ही हमारा मस्तिष्क उग्र व ज्ञानदीप्त बनता है और शरीर दृढ़ होता है । (अग्निः) = ये प्रभु ही (नारीम्) = गृहिणी को (वीरकुक्षिम्) = वीर सन्तानों को कोख में धारण करनेवाली व (पुरन्धिम्) = पालक व पूरक बुद्धिवाली बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की महिमा को देखनेवालों व स्तवन करनेवालों के सन्तान 'आज्ञापालक, सशक्त, ज्ञानी व यज्ञादि कर्मों में निष्ठावान' होते हैं। इनके अपने मस्तिष्क व शरीर उत्तम होते हैं। इनकी गृहिणियाँ वीर प्रसविनी व बुद्धिमती होती हैं।
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते परमात्मा स्वस्तुतिकर्तारं जनं पापान्निवारयति मोक्षं च तस्मै प्रयच्छतीत्येवमादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(अग्निः) ज्ञानप्रकाशस्वरूपः परमात्मा (सप्तिं वाजम्भरं ददाति) सरणं गमनशीलं प्राणम् “सप्तेः सरणस्य” [निरु० ९।३] वेगधारकं मनः “वाजम्भरं यो वाजं वेगं बिभर्ति तम्” [ऋ० १।६०।५ दयानन्दः] (अग्निः) परमात्मा (श्रुत्यं कर्मनिष्ठां वीरम्) श्रोतारं श्रवणशीलमाज्ञाकारिणं कर्मणि श्रद्धावन्तं पुत्रं ददाति (अग्निः) परमात्मा (रोदसी समञ्जन् विचरत्) रोधसी गृहस्थाश्रमस्य रोधकौ स्त्रीपुरुषौ परस्परं संयोजयन् व्याप्नोति (वीरकुक्षिं पुरन्धिं नारीम्) वीरः पुत्रः कुक्षौ यस्यास्तथाभूतं पुरं धारयित्रीं स्त्रियं करोति-सम्पादयति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni gives us fast faculties of sense and mind which bring us food for life and experience with success in many fields. Agni gives valiant progeny, learned and cultured with dedication to noble action. Agni pervades heaven and earth, beautifying them, and blesses the family home of man and woman, beatifying it with light and passion for good action, and Agni blesses the woman with fertility, motherhood of the brave and wisdom to keep a happy home.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा जगात कार्य सिद्धीसाठी मानवाला प्राण व मन प्रदान करतो व आज्ञाधारक पुत्रही प्रदान करतो. गृहस्थाश्रम धारण करण्यासाठी स्त्री-पुरुषांना प्रेरित करतो व स्त्रीला पुत्र धारण करण्यायोग्य बनवितो. ॥१॥
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