ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒दृषि॒र्होता॒ न्यसी॑दत्पि॒ता न॑: । स आ॒शिषा॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नः प्रथम॒च्छदव॑राँ॒ आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । जुह्व॑त् । ऋषिः॑ । होता॑ । नि । असी॑दत् । पि॒ता । नः॒ । सः । आ॒ऽशिषा॑ । द्रवि॑णम् । इ॒च्छमा॑नः । प्र॒थ॒म॒ऽच्छत् । अव॑रान् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत्पिता न: । स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवराँ आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयः । इमा । विश्वा । भुवनानि । जुह्वत् । ऋषिः । होता । नि । असीदत् । पिता । नः । सः । आऽशिषा । द्रविणम् । इच्छमानः । प्रथमऽच्छत् । अवरान् । आ । विवेश ॥ १०.८१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 81; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा प्रलय में सबको अपने में लीन कर लेता है, जीव मूर्च्छित हो जाते हैं, जीवन्मुक्त उसकी प्रेरणा से मोक्षानन्द भोगते हैं, संसार का मूल प्रकृति है इत्यादि विषय वर्णित हैं ।
पदार्थ
(यः) जो (ऋषिः) सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ परमेश्वर (होता) प्रलयकाल में सबको अपने में लेनेवाला (विश्वा भुवनानि) सब पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को (जुहुत्) अपने में ग्रहण करता हुआ (नि-असीदत्) विराजता है (सः-नः पिता) वह हमारा पिता-जनक (आशिषा) आश्रयदान से (द्रविणम्) स्वबल-पराक्रम दर्शाने की (इच्छमानः) आकाङ्क्षा करता हुआ (प्रथमच्छत्) प्रथम उपादानकारण प्रकृति नामक को छादित करता है, प्रभावित करता है तथा, (अवरान्) पश्चात् उत्पन्न हुए जड-जङ्गमों को (आविवेश) अपनी व्याप्ति से आविष्ट प्रविष्ट होता है ॥१॥
भावार्थ
सर्वज्ञ परमात्मा प्रलयकाल में सारे लोक-लोकान्तरों को अपने में विलीन कर लेता है। इसके उपादानकारण प्रकृति को भी अपने अन्दर छिपा लेता है, पुनः उत्पन्न करता हुआ सब जड-जङ्गमों में अपनी व्याप्ति से प्रविष्ट रहता है ॥१॥
विषय
विश्वकर्मा। सबका दाता, सर्वपालक, सर्वप्रेमी, सर्वव्यापक, विश्वकर्मा परमेश्वर—सायण मतानुसार ईश्वर का प्रलय रूप सर्वमेध यज्ञ। एक यास्त्रोक्त इतिहास के अनुसार सायणीय अर्थ। उसमें दोष। यास्क वचन का दुर्ग-सम्मत अभिप्राय। आहुति का अर्थ आत्म-दर्शन। तदनुसार मन्त्रार्थ। सर्वमेध की व्याख्या। गीता, और उपनिषदादि में प्रोक्त आत्म-दर्शन की संगति।
भावार्थ
(यः ऋषिः) जो समस्त जगत का देखने वाला, (होता) सबको अपने भीतर आहूति करने वाला, वा सब प्राणियों वा लोकों को जीवन, बल, अन्न और अनेक ऐश्वर्य देने वाला परमेश्वर (इमा विश्वा भुवनानि) इन समस्त उत्पन्न हुए लोकों को और समस्त प्राणियों को (जुह्वत् नि असीदत्) अन्न, जीवन बल, आदि देता हुआ विराजता है वह (नः पिता) हम सब का पालक, पिता के तुल्य रक्षक, प्रभु है। (सः) वह (आशिषा) कामनामात्र से (द्रविणम् इच्छमानः) समस्त ऐश्वर्य वा द्रुत काल-गति से जाने वाले समस्त जगत् को चाहता हुआ (प्रथम-च्छत्) सबसे प्रथम समस्त जगत् को व्यापता हुआ, उसकी रक्षा करता हुआ (अवरान्) अपने अनन्तर उत्पन्न वा अपने से अल्पशक्ति वाले समस्त जीवों वा लोकों को भी (आ विवेश) व्यापता है, वह अनेक आत्माओं के भीतर व्यापक है।
टिप्पणी
सायण अध्यात्म पक्ष में भी इस मन्त्र की योजना करता है—जो विश्वकर्मा परमेश्वर प्रलयकाल में पृथिवी आदि समस्त लोकों को अपने आत्मा में आहुति के समान संहार करता हुआ (ऋषिः) अतीन्द्रिय-द्रष्टा सर्वज्ञ (होता) संहार रूप होम का करने वाला, (नः पिता नि ससाद) हमारे पिता रूप से विराजता है। अर्थात् प्रलयकाल आने पर समस्त लोकों का संहार करके हम जीवों का भी संहार करता और फिर रचता हुआ सर्वज्ञ परमेश्वर स्वयं एक ही है, वह परमेश्वर (आशिषा) ‘बहुः स्यां प्रजायेय’ बहुत हो जाऊं प्रजाओं को उत्पन्न करूं, इस प्रकार पुनः जगत् को रचने की इच्छा से (द्रविणम् इच्छमानः) द्रविण अर्थात् धनवत् जगत् के भोग को चाहता हुआ (प्रथम-च्छद्) मुख्य निष्प्रपंच पारमार्थिक रूप को छिपाता हुआ, (अवरान्) अपने बनाये, प्राणियों के हृदयों में (आविवेश) जीव रूप से प्रविष्ट हुआ, ऐसी श्रुति भी है—सोऽकामयत बहुः स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत् यदिदं किञ्च। तत्सृष्ट्वा तमनुप्राविशत् ॥ उस प्रभु ने इच्छा की कि बहुरूप हो जाऊं। उसने तप (श्रम) किया। इस समस्त जगत् को बनाया जो दीख रहा है, उसको रच कर फिर उसी में व्याप रहा। इसी प्रकार अन्य भी उपनिषद्-वचन हैं। इस स्थान पर सायण नवीन वेदान्त के प्रपञ्च में फंस गया। वस्तुतः जगत् को रच कर पुनः समस्त लोकों वा जीवों में ईश्वर जीवरूप होकर प्रविष्ट नहीं, प्रत्युत शासक प्रभु रूप ही रह कर प्रविष्ट अर्थात् व्याप्त हो रहा है। दूसरा उसका पितापन केवल प्रलयकाल में संहार कर पुनः जगत्-सर्ग करने में ही नहीं है। प्रत्युत सृष्टि की विद्यमानता में भी वह सर्वत्र भारी अन्नादि की आहुतियां देता है, सब जीवों को अन्न देता है, जीवों को कर्म-फल देता है, वह समस्त जगत् रूप द्रविण अर्थात् महान् ऐश्वर्य को चाहता हुआ वा प्रेरित, संचालित करता हुआ पहले भी जगत् को एकमात्र व्यापता था और सर्ग-काल में भी ‘अवर’ अर्थात् अपने से अल्प शक्ति वाले समस्त जीवों और लोकों, ब्रह्माण्डों को भी व्यापता है। यदि सब में व्याप्त न हो तो वह समस्त ब्रह्माण्डों को कैसे चलावे, कैसे रचावे। यास्कः—तत्रेतिहासमाचक्षते—विश्वकर्माभौवनः सर्वमेधे सर्वाणि भूतानि जुहवाञ्चकार। स आत्मानमप्यन्ततो जुहवाञ्चकार। तदभिवादिन्येषर्ग् भवति। य इमाविश्वा भुवनानि जुह्वत्। इति। (निरु० १०। २६)। अर्थ—इस प्रसंग में इतिहास कहते हैं। भौवन विश्वकर्मा ने सर्वमेध में समस्त भूतों की आहुति दी। अन्त में उसने अपनी भी आहुति दी। उसी को कहने वाली यह ऋचा होता है। य इमा विश्वा० इत्यादि। यास्क के इस आशय को लेकर सायण ने प्रथम अर्थ किया है—“विश्वकर्मा नामक ऋषि, भुवन का पुत्र (होता) होम करने वाला (सर्वाणि भुवनानि जुह्वत्) सब भुवनों को होम करता हुआ अर्थात् प्रथम जगत् की आहुति करके पश्चात् (पिता नि असीदत्) आग में वह पिता बैठ गया। क्योंकि अपने ही किये कर्म से देह की उत्पत्ति होती है। एक ही स्वयं पिता और स्वयं पुत्र हो यह विरोध नहीं है क्योंकि तपोबल से उसके दो शरीर मान लेते हैं। ‘स एकधा भवति’ इत्यादि श्रुति है। वह ऋषि (आशिषा) आशीष्-प्रतिप्रादक सूक्तवाक आदि से (द्रविणम् इच्छमानः) स्वर्ग नामक धन चाहता हुआ (प्रथमच्छत्) पहिले अग्नि को भुवनों से छादने वाला, (अवरान् आविवेश) अपने से आहुति किये अनेक भूतों में, अग्नि में प्रवेश किया। सायण ने इस यास्क के इतिहास को एक ऋषि का ऐसा सर्व-मेध यज्ञ मान लिया है कि उसने यज्ञाग्नि में सब प्राणियों की आहुति करके फिर स्वर्ग की इच्छा से अपने को भी आग में डाल दिया हो। यह अर्थ असंगत है। क्योंकि यास्क के इतिहास के उल्लेख का अभिप्राय सायण से पहिले विद्वान इस प्रकार नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में श्री दुर्गाचार्य लिखते हैं—इसी सूक्त की ‘विश्वकर्मा विमना०’ इत्यादि ऋचा में यास्काचार्य ने आत्मगति का प्रतिपादन किया है। (तत्र) इसी प्रसंग में यह इतिहास का उल्लेख है। आत्मगति को बतलाने के लिये ही आत्मज्ञानी लोग इस इतिहास का वर्णन करते हैं। आध्यात्मिक वा आधिदैविक आदि जो अर्थ कहा जाता है वेद के कहे उसी अर्थ को स्पष्ट करने के लिये इतिहास कहा है। वह इतिहास अपना सीधा अर्थ नहीं कहा करता, प्रत्युत अर्थ जानने वालों को अभिप्रेत अर्थ ही बतलाता है। (विश्वकर्मा हि भौवनः) समस्त जगत् को बनाने वाला ‘विश्वकर्मा’ है। उसी की सी अवस्था को अपने में लाकर वह यजमान भी ‘विश्वकर्मा’ हो जाता है। वह भुवनों अर्थात् भूतों को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को भूतों में आहुति करता है। इसी प्रकार जानने वाले वा देखने वाले ज्ञानी पुरुष के सब कामों में ‘सर्वमेध’ यज्ञ के समान गुण होता है। उसके केवल ऐसे देखने मात्र से ही उसका प्रत्येक यज्ञ ‘सर्वमेध’ हो जाता है। अग्नि में स्वयं अपने को डाल देने से उसका सर्वमेध यज्ञ नहीं होता, प्रत्युत सब भूतों में आत्मा और आत्मा में सब भूतों का दर्शन करने मात्र से ‘सर्वमेध’ हो जाता है। इस प्रकार वह समस्त भूत-विशेषों को सामान्य आत्मा में आहुति करता अर्थात् देखता है, और सामान्य आत्मा को विशेष भूतों में आहुति करता अर्थात् देखता है, तभी यह सभी कामों में ‘आत्मयाजी’ कहा जाता है। अतः ‘य इमा०’ ऋचा का अर्थ इस प्रकार है। समान रूप से सबके प्रति हिताचरण करने और समान दृष्टि से देखने वालों में से (यः) जो भी कोई (न्यसीदत्) इस कर्म को करता हुआ विराजता है, वह ‘ऋषि’ है और वही होता है। वह (विश्वा भुवनानि जुह्वत्) सब प्राणियों की सर्वमेध यज्ञ के रूप में दर्शन रूपसे आहुति करता है, (सः आशिषा) वह इस अभिलाषा से कि मैं ही सबके समान होजाऊं (द्रविणम् इच्छमानः) इस सर्वमेध यज्ञ की ‘सर्वता’ प्राप्त करना चाहता हुआ, (प्रथम-च्छत्) सब से श्रेष्ठ प्रजापति रूप से मुख्य पद को प्राप्त करने वाला होकर (अवरान्) हम सब प्राणियों को भी (आविवेश) व्यापता है, अपनाता है, (स नः पिता) वह हमारा पिता है। अत्र ‘पिता। नः’ इति पदपाठः। पिता। आनः। इति पदपाठस्तु पटियालाराजपण्डित श्री मुकुन्दझा इत्युद्घृतसायणभाष्यसम्मतः। इस प्रकार सर्वमेध का ही गीता और उपनिषदों में प्रतिपादन किया है जैसे— यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते। यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः। ईशोपनि० ६, ७ ॥ उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥ येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥ गीता० अ० ४ ॥ सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ६ ॥ ३० ॥ सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते ॥ ६ ॥ ३१ ॥ सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ ६ ॥ १९ ॥ यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय। ९। ६ ॥ समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति। १३। २७ ॥ समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्॥ न हि नस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ १३ ॥ २८ ॥ यदा भूतपृथग् भावमेकस्थमनुपश्यति। तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ अ० १३। ३० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा भौवनः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:– १, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २ ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रलय में व सृष्टि के प्रारम्भ में
पदार्थ
[१] प्रलयकाल में प्रभु इस सारे ब्रह्माण्ड की मानो अपने में आहुति दे डालते हैं। सारे पदार्थ प्रकृतिरूप हो जाते हैं वह प्रकृति प्रभु के सामर्थ्य के रूप में, प्रभु में ही रहती है। इस प्रकार उस समय एक प्रभु ही प्रभु प्रतीत होते हैं ' आनीदवातं संवधया तदेकम् । तस्माद्धान्यान्न परः किञ्चनास' [१० । १२९ । २] । जीव भी सब सुषुप्त-सी अवस्था में होते हैं । इसी से उपनिषद् कहती है कि 'नान्यत् किंचन मिषत् - और कुछ गतिमय न था । उस समय (यः) = जो (नः पिता) = हम सबके पिता [= रक्षक] प्रभु हैं वे (इमा विश्वा भुवनानि) = इन सब लोक-लोकान्तरों को (जुह्वत्) = अपने में आहुत करते हुए (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (होता) = सारे पिण्डों की अपने में आहुति देनेवाले के रूप में (न्यसीदत्) = अपने स्वरूप में स्थित होते हैं । [२] अब प्रलयकाल की समाप्ति पर (स) = वे प्रभु आशिषा- 'बहुस्यां प्रजायेय ''मैं बहुत हो जाऊँ [= बहुतों से जाना जाऊँ] इस संसार को उत्पन्न कर दूँ' इस इच्छा से (द्रविणम्) = ['सृ गतौ से संसार, गम् गतौ से जगत्, द्रुगतौ से द्रविणा] = संसार को (इच्छमान:) = चाहता हुआ (प्रथमच्छद्) = उन प्रथम उत्पन्न होनेवालों को अपने में आवृत करते हुए [प्रथमान् छादयति], जैसे अब बालक मातृ गर्भ में आवृत होता है उसी प्रकार सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु के मानस पुत्र प्रभु से आवृत थे । (अवरान्) = पीछे होनेवाले सब प्राणियों के अन्दर भी (आविवेश) = प्रविष्ट हो रहे हैं। हम सब के अन्दर प्रभु विद्यमान हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले ये सब परमात्मा के गर्भ में थे ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रलयकाल में सारे भुवन परमात्मा में आहुत हो जाते हैं, उस समय केवल प्रभु ही विद्यमान प्रतीत होते हैं । सृष्टि के प्रारम्भ में अपने मानस पुत्रों को प्रभु गर्भ में धारण करते हैं और पीछे होनेवाली इनकी प्रजाओं में वे प्रविष्ट हो रहे हैं ।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मा प्रलयकाले सर्वान् पदार्थान् स्वस्मिन् लीनीकरोति जीवाश्च तत्र मूर्च्छिता भवन्ति जीवन्मुक्तास्तु तत्प्रेरणया मोक्षानन्दं भुञ्जते मूलात् प्रकृतिरूपात् संसारमुत्पादयतीत्येवमादयो विषया वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(यः-ऋषिः-होता) यः सर्वद्रष्टा सर्वज्ञः परमेश्वर: प्रलयकाले सर्वान् स्वस्मिन्नादाता "हु आदाने च" [जुहो॰] (विश्वा भुवनानि) सर्वाणि पृथिव्यादीनि लोकलोकान्तराणि (जुहुत्-नि-असीदत्) स्वस्मिन् गृह्णन् सन् विराजते (सः-नः पिता-आशिषा द्रविणम्-इच्छमानः) सोऽस्माकं पिता जनक आश्रयदानेन स्वबलं पराक्रमं दर्शयितुमाकाङ्क्षन् (प्रथमच्छत्-अवरान्-आविवेश) प्रथममुपादान-कारणं प्रकृत्याख्यं छादयति तथाभूतः स खल्ववरान् पश्चादुत्पन्नान् जडजङ्गमान् समन्ताद्विशति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The eternal Rshi, visionary creator and cosmic yajaka, our father generator, who calls up all these worlds of the universe into existence ever abides by himself. Moved with desire to give the wealth of life with his blessings to the souls, he first generates the original Prakrti vesting it with his divine will and then simultaneously enters and pervades the modes and forms of Prakrti as they evolve.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वज्ञ परमात्मा प्रलयकाळात संपूर्ण लोक लोकांतरांना आपल्यात विलीन करून घेतो. त्याच्या उपादान कारण प्रकृतीलाही आपल्यामध्ये सामावून घेतो व पुन्हा उत्पन्न करून सर्व जड जंगमात आपल्या व्याप्तीने प्रविष्ट असतो. ॥१॥
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