ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत । यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । हि । सोतोः॑ । असृ॑क्षत । न । इन्द्र॑म् । दे॒वम् । अ॒मं॒स॒त॒ । यत्र॑ । अम॑दत् । वृ॒षाक॑पिः । अ॒र्यः । पु॒ष्टेषु॑ । मत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत । यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । हि । सोतोः । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत । यत्र । अमदत् । वृषाकपिः । अर्यः । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में ध्रुवप्रचलन, ग्रहों की गतिज्ञान का कारण व्योमकक्षा, सृष्टि के आरम्भ में सब ग्रहों का रेवती नक्षत्र पर अवलम्बन, वहाँ से ही प्रथम गतिक्रम, वसन्त सम्पात आदि विषय हैं।
पदार्थ
(सोतोः) विश्व को प्रकाशित करने के लिये (वि असृक्षत हि) जब किरणें विसर्जन की गयीं-छोड़ी गईं तब (इन्द्रं देवं न-अमंसत) उन्होंने इन्द्र उत्तर-ध्रुव को अपना देव प्रकाशक नहीं माना (यत्र पुष्टेषु) जिन पुष्ट अर्थात् पूर्ण प्रकाशित हुई किरणों में (अर्यः-वृषाकपिः-अमदत्) उनका स्वामी सूर्य हर्षित-प्रकाशित हुआ (मत्सखा-इन्द्रः) मेरा पति मुझ व्योमकक्षा का पति इन्द्र-उत्तर ध्रुव (विश्वस्मात्-उत्तरः) विश्व के उत्तर में है ॥१॥
भावार्थ
सृष्टि के आरम्भ में विश्व को दृष्ट-प्रकाशित करने के लिये जब किरणें प्रकट हुईं, तो उन्होंने खगोल के आधारभूत उत्तर ध्रुव को अपेक्षित नहीं किया, किन्तु सूर्य को अपना प्रकाशक बनाया। सूर्य से उनका सीधा सम्बन्ध है, परन्तु उत्तर ध्रुव सूर्य आदि सब गोलों का आधार या केन्द्र है। सारे नक्षत्रों की गतिविधि को बतानेवाली व्योमकक्षा का केन्द्र भी उत्तर ध्रुव है ॥१॥
विषय
वृषाकपि-सूक्तम्। वरुण। सर्वोपरि परमेश्वर की जगत्सर्जन रूप महिमा का वर्णन।
भावार्थ
विद्वान् लोग (सोतोः) उत्पादक परमेश्वर के विषय में (हि) निश्चय (वि असृक्षत) विविध प्रकार से यत्न करते हैं, अथवा अनेक जीवगण (सोतोः) उत्पादक प्रभु तथा उत्पादक प्रकृति तत्त्व से (हि) निश्चय से (वि असृक्षत) विविध प्रकार से उत्पन्न होते हैं। तो भी वे लोग (इन्द्रं) इस जगत् के धारण करने, प्रकाश करने और उस मूल भूमि, सर्वोत्पादक प्रकृति को व्यापने, विदारण करने वाले प्रभु (देवम्) सर्वसुखद देव परमेश्वर को (न अमंसत) नहीं जानते। (यत्र) जहां (वृषा कपिः) वृष्टि करने वा जगत् को संचालन करने वाला प्रभु (अमदत्) स्वयं तृप्त और समस्त जीवों को भी तृप्त करता है, स्वयं पूर्ण रस से अन्य युक्त है वह उन (पुष्टेषु) बड़े २ महान् लोकों में भी उनका (अर्यः) स्वामी और (मत्-सखा) मुझ जीव का मित्र है वही (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का देने वाला प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है। अथव (वृषा-कपिः) वृष्टिकारी प्रभु में सुख का पान करने वाला योगी जिस में स्वयं हर्ष, आनन्द प्राप्त करता है वह प्रभु ही सबका स्वामी सर्वोत्कृष्ट है। वृषा-कपिः का आध्यात्मिक और समाज और राष्ट्र-पक्ष में स्पष्टीकरण देखो अथर्ववेद आलोक भाष्य (कां० २०। सू० २२६। १)
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
प्रभु मित्रता में आनन्द
पदार्थ
[१] (हि) = निश्चय से (सोतो:) = ज्ञान के उत्पन्न करने के हेतु से (वि असृक्षत) = विशेषरूप से इन इन्द्रियों का निर्माण हुआ है । परन्तु सामान्यतः ये तत्त्व ज्ञान की ओर न झुककर विषयों की ओर भागती हैं । (देवं इन्द्रम्) = उस प्रकाशमय प्रभु का (न अमंसत) = मनन नहीं करती। 'पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् '। [२] ये इन्द्रदेव व प्रभु वे हैं (यत्र) = जिनमें स्थित हुआ हुआ (वृषाकपिः) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाला [कपि] शक्तिशाली [वृषा] पुरुष (अमदत्) = आनन्द का अनुभव करता है। यह वृषाकपि (अर्य:) = स्वामी बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। (पुष्टेषु) = अंग-प्रत्यंग की शक्तियों का पोषण करने पर (मत्सखा) = [माद्यति इति मत्] उस आनन्दमय प्रभु रूप मित्रवाला होता है। [३] यह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट हैं। एक ओर सारा संसार हो, दूसरी ओर प्रभु, तो ऐसी स्थिति में ये प्रभु ही वरने के योग्य हैं ? ' आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्' आत्म प्राप्ति के लिये सारी पृथिवी को त्यागना ही ठीक है । नचिकेता ने बड़े-से- बड़े ऐश्वर्यों के प्रलोभन को आत्म प्राप्ति के लिये छोड़ दिया । प्रभु मिल गये तो सब कुछ प्राप्त हो ही जाता है।
भावार्थ
भावार्थ–इन्द्रियाँ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए दी गई हैं। इनके द्वारा तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हुए हमें वृषाकपि बनकर प्रभु मित्रता में आनन्द का अनुभव करना चाहिए।
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते ध्रुवप्रचलनम्, ग्रहाणां गतिज्ञानकारणं व्योमकक्षा, सृष्टेरारम्भे सर्वग्रहाणां रेवतीनक्षत्रेऽवलम्बनं तत एव प्रथमगतिक्रमः, तत्रैव वसन्तसम्पात इत्येवमादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
वक्तव्यम्−अयं मन्त्रो निरुक्ते आगतः, तत्र सूर्यकिरणानां व्यवहारो दर्शितः “अथैषादित्यरश्मीनाम्-वि हि सोतोः” [निरु० १३।४] तथैवात्र व्याख्यायते। पूर्णसूक्तस्य विशिष्टं विस्तृतं विवरणं मया विरचिते “वैदिकज्योतिषशास्त्र” नामके पुस्तके द्रष्टव्यम्। (सोतोः-वि असृक्षत) विश्वं सोतुं प्रकाशयितुं रश्मयो यदा विसृष्टाः खलु (इन्द्रं देवं न-अमंसत) ते रश्मयः-इन्द्रमुत्तरध्रुवं स्वदेवं प्रकाशकं नामन्यन्त (यत्र पृष्टेषु-अर्यः-वृषाकपिः-अमदत्) येषु सम्यक् प्रकाशमानेषु रश्मिषु तेषां स्वामी सन् वृषाकपिः सूर्यः “रश्मिभिरभिप्रकम्पयन्नेति तद्वृषाकपिः” [निरु० १२।२७] स हर्षितः प्रकाशितोऽभवत् (मत्सखा-इन्द्रः-विश्वस्मात्-उत्तरः) मम सखा-पतिभूत उत्तरध्रुवो विश्वत उत्तरो वर्तते, इत्युक्तिरिन्द्राण्या व्योमकक्षायाः “माधवभट्टास्तु-वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते” [सायणः] ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The creatures having been created flowed forth, streamed too far and strayed from acknowledgement of the creator Indra, where Vrshapkapi, the human soul, jivatma, top master among the created, rejoiced among them.$My friend and favourite Indra, great and generous, is supreme over the whole creation, says Prakrti, the mother consort.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीच्या आरंभी विश्वाला प्रकाशित करण्यासाठी जेव्हा किरणे प्रकट झाली तेव्हा त्यांना खगोलाचा आधारभूत उत्तरध्रुव अपेक्षित नव्हता; परंतु सूर्य त्यांचा प्रकाशक होता. सूर्याचा त्यांचा संबंध सरळ आहे; परंतु उत्तरध्रुव, सूर्य इत्यादी सर्व गोलांचा आधार किंवा केंद्र आहे. संपूर्ण नक्षत्राच्या गतिविधी सांगणाऱ्या व्योमकक्षेचे केंद्र उत्तरध्रुव आहे. ॥१॥
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