ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
र॒क्षो॒हणं॑ वा॒जिन॒मा जि॑घर्मि मि॒त्रं प्रथि॑ष्ठ॒मुप॑ यामि॒ शर्म॑ । शिशा॑नो अ॒ग्निः क्रतु॑भि॒: समि॑द्ध॒: स नो॒ दिवा॒ स रि॒षः पा॑तु॒ नक्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठर॒क्षः॒ऽहन॑म् । वा॒जिन॑म् । आ । जि॒घ॒र्मि॒ । मि॒त्रम् । प्रथि॑ष्ठम् । उप॑ । या॒मि॒ । शर्म॑ । शिशा॑नः । अ॒ग्निः । क्रतु॑ऽभिः । सम्ऽइ॑द्धः । सः । नः॒ । दिवा॑ । सः । रि॒षः । पा॒तु॒ । नक्त॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षोहणं वाजिनमा जिघर्मि मित्रं प्रथिष्ठमुप यामि शर्म । शिशानो अग्निः क्रतुभि: समिद्ध: स नो दिवा स रिषः पातु नक्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठरक्षःऽहनम् । वाजिनम् । आ । जिघर्मि । मित्रम् । प्रथिष्ठम् । उप । यामि । शर्म । शिशानः । अग्निः । क्रतुऽभिः । सम्ऽइद्धः । सः । नः । दिवा । सः । रिषः । पातु । नक्तम् ॥ १०.८७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में राष्ट्रध्वंसक शत्रुओं तथा प्रजापीड़क जनों का विविध शस्त्र-अस्त्रों से नाश करना प्रधानता से वर्णन किया है।
पदार्थ
(रक्षोहणं वाजिनम्) जिससे रक्षा करनी चाहिये, उस राक्षस स्वभाववाले पापी शत्रु को जो मारता है, उस बलवान् (मित्रं प्रथिष्ठं जिघर्मि) अस्त्रप्रेरक अतिशक्तिप्रसारक आग्नेयास्त्रवाले को मैं राजा दीप्त करता हूँ, बोधित करता हूँ, चेताता हूँ (शर्म-उप यामि) ऐसा करके सुख को प्राप्त होता हूँ (सः) वह (शिशानः-अग्निः) वह तीक्ष्ण बलवाला अग्रणी सेनानायक (क्रतुभिः-समिद्धः) अनेक आग्नेयास्त्र प्रयोगों से संसिद्ध हुआ (नः) हमें (सः-रिषः-दिवानक्तं पातु) वह हिंसक शत्रु से दिन-रात रक्षा करे-सुरक्षित रखे ॥१॥
भावार्थ
राजा को सेनानायक ऐसा बनाना चाहिये, जो शत्रु को दबाने मारने में पूर्ण समर्थ आग्नेयास्त्र आदि चलानेवाला हो ॥१॥
विषय
रक्षोहा अग्नि। जंगल में अग्नि के तुल्य जगत्-जाल में रक्षक प्रभु की प्रार्थना।
भावार्थ
मैं (रक्षः-हणं) दुष्ट राक्षसों को, जो मुझ को मेरे उदेश्य तक पहुंचने से रोके रखते हैं उनका नाश करने वाले, (वाजिनं) वेगवान्, बलवान्, (मित्रम्) मुझे मृत्यु से बचाने वाले (प्रथिष्ठं) अति पृथु, महान् उस प्रभु को मैं (आ जिधर्मि) सब ओर अग्नि के तुल्य ही प्रदीप्त, प्रज्ज्वलित कर लूं जिससे मैं (शर्म उप यामि) सुख प्राप्त करूं। (शिशानः) सदा तीक्ष्ण (अग्निः) अग्नि के समान पापों को दग्ध करने वाला, सत्-स्वरूप, प्रकाशमय प्रभु (क्रतुभिः) नाना कर्मों और ज्ञानों द्वारा (समिद्धः) अति देदीप्त हो। (स) वह (नः) हमें (दिवा) दिन में और (सः नक्तं) वही रात में भी (नः) हमें (रिषः) हिंसक, दुष्ट स्वभाव के आक्रामक से (पातु) रक्षा करे। जिस प्रकार अग्नि जंगल के समीप में जलता हुआ चोर, व्याघ्र आदि से भी बचाता है उसी प्रकार हृदय में प्रभु की ज्योति भी जलती हुई लोभ, क्रोध, कामादि पापों से बचाती है। वह प्रभु सर्वत्र सदा हमारी रक्षा करता है, उसके आगे दुष्टों की नहीं चलती।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'रक्षोहा' प्रभु
पदार्थ
[१] (रक्षोहणम्) = हमारी राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाले, (वाजिनम्) = शक्तिशाली, (मित्रम्) = हमें मृत्यु व पापों से बचानेवाले, (प्रथिष्ठम्) = अत्यन्त विस्तारवाले प्रभु को (आजिघर्मि) = मैं अपने में दीप्त करता हूँ । प्रभु को अपने हृदय में देखने का प्रयत्न करता हूँ और (शर्म उपयामि) = आनन्द को प्राप्त होता हूँ। प्रभु का आभास भी आनन्द का अनुभव कराता है। जितना - जितना हम प्रभु के समीप पहुँचते जाते हैं उतना उतना हमारा जीवन आनन्दमय होता जाता है । [२] (शिशानः) = हमारी बुद्धियों को सूक्ष्म करते हुए (अग्निः) = वे प्रभु अग्रेणी हैं, हमें निरन्तर आगे ले चल रहे हैं। (क्रतुभिः) = संकल्पों व यज्ञादि उत्तम कर्मों के द्वारा (समिद्धः) = वे प्रभु हमारे में दीप्त होते हैं। प्रभु दर्शन के लिये संकल्प आवश्यक है और यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होना आवश्यक है । (स) = वे प्रभु (नः) = हमें (दिवा) = दिन में और (स) = वे प्रभु (नक्तम्) = रात्रि में (रिषः) = हिंसा से (पातु) = बचाएँ । प्रभु हमारा रक्षण करनेवाले हों । प्रभु ही 'रक्षोहा' हैं, वे ही हमें इन राक्षसी वृत्तियों का शिकार होने से बचाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु 'रक्षोहा' हैं, हमारी बुद्धियों को तीव्र करके, ज्ञान के द्वारा वे हमें अशुभ वृत्तियों का शिकार होने से बचाते हैं ।
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते राष्ट्रध्वंसकानां शत्रूणां प्रजापीडकानां दुष्टानां च नाशनं विविधशस्त्रास्त्रैः कार्यमिति प्राधान्येन वर्ण्यते।
पदार्थः
(रक्षोहणं वाजिनं मित्रं प्रथिष्ठं जिघर्मि) रक्षितव्यमस्मादिति रक्षो राक्षसस्तं शत्रुं पापकारिणं हन्ति यस्तं बलवन्तम् “वाजो बलम्” [निघ० २।९] अस्त्रं प्रेरकम् “मिञ् प्रक्षेपणे” [स्वादि०] ततः क्तः [उणा० ४।१६४] अतिशक्तिप्रसारकमग्निं तेजस्विनमग्निमन्त-माग्नेयास्त्रमग्रणीं सेनानायकम् ‘मतुब्लोपश्छान्दसः’ अहं राजा दीपयामि प्रबोधयामि चेतयामि वा (शर्म-उपयामि) एवं कृत्वा सुखं प्राप्नोमि (सः शिशानः-अग्निः क्रतुभिः समिद्धः) सतीक्ष्णबलोऽग्रणीः सेनानायकोऽनेकैराग्नेयास्त्रप्रयोगैः संसिद्धः “समिद्धे प्रसिद्धे” [ऋ० ४।२५।१ दयानन्दः] (नः) अस्मान् (सः-रिषः-दिवा-नक्तं पातु) स हिंसकात्-शत्रोः दिने रात्रौ रक्षतु ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I sprinkle the holy fire with ghrta and dedicate myself to Agni, light and fire of life, destroyer of evil and giver of victory, friend and saviour most boundless, and there I find peace and freedom for life eternal. May Agni, sharp and blazing with yajnic actions of creativity, protect and promote us against hate and enmity, violence and obstruction day and night.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने अशा सेनानायकाची नेमणूक करावी जो शत्रूचे दमन करण्यासाठी व नाश करण्यासाठी समर्थ असेल. आग्नेयास्त्र इत्यादी चालविणारा असेल. ॥१॥
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