ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ह॒विष्पान्त॑म॒जरं॑ स्व॒र्विदि॑ दिवि॒स्पृश्याहु॑तं॒ जुष्ट॑म॒ग्नौ । तस्य॒ भर्म॑णे॒ भुव॑नाय दे॒वा धर्म॑णे॒ कं स्व॒धया॑ पप्रथन्त ॥
स्वर सहित पद पाठह॒विः । पान्त॑म् । अ॒जर॑म् । स्वः॒ऽविदि॑ । दि॒वि॒ऽस्पृशि॑ । आऽहु॑तम् । जुष्ट॑म् । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । भर्म॑णे । भुव॑नाय । दे॒वाः । धर्म॑णे । कम् । स्व॒धया॑ । प॒प्र॒थ॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हविष्पान्तमजरं स्वर्विदि दिविस्पृश्याहुतं जुष्टमग्नौ । तस्य भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त ॥
स्वर रहित पद पाठहविः । पान्तम् । अजरम् । स्वःऽविदि । दिविऽस्पृशि । आऽहुतम् । जुष्टम् । अग्नौ । तस्य । भर्मणे । भुवनाय । देवाः । धर्मणे । कम् । स्वधया । पप्रथन्त ॥ १०.८८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में सूर्य विद्युत् अग्नि के व्यवहार तथा परमात्मा के ज्ञानप्रसाद लाभ और उसकी उपासना के प्रकार वर्णित हैं।
पदार्थ
(स्वर्विदि) सूर्य को प्राप्त करनेवाले (दिविस्पृशि) आकाश को छूनेवाले (अग्नौ) यज्ञाग्नि में (हविः-पान्तम्) जो खाने-पीने योग्य हव्य (अजरम्) प्रसरणशील (आहुतम्) प्रेरित (जुष्टम्) प्रीत-पसन्द की हुई (तस्य भर्मणे) उसके भरण करने में (भुवनाय) भावन करने के लिये (धर्मणे) धारण करने के लिये (स्वधया) अन्न से (कं पप्रथन्त) सुखकर अग्नि में अग्नि को धरते हैं ॥१॥
भावार्थ
विशेष हवि जो खाने-पीने योग्य आकाश को छूनेवाले, सूर्य को प्राप्त होनेवाले, पहुँचने योग्य को यज्ञाग्नि में होमता है, वह सुख को प्राप्त करता है ॥१॥
विषय
सोम का धारण
पदार्थ
[१] शरीर में प्रभु वैश्वानर अग्नि के रूप से रहते हैं। इस वैश्वानर अग्नि में, शरीर में उत्पन्न होनेवाले 'सोम' की आहुति दी जाती है, तो सोम का शरीर में ही रक्षण हो जाता है। इस रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हों, [ख] ज्ञान की वृद्धि में सदा लगे रहें और [ग] यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त हों । इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (स्वर्विदि) = [स्वृ शब्दे ] स्तुति शब्दों को [विद लाभे] प्राप्त करनेवाले, अर्थात् प्रभु का स्तवन करनेवाले, (दिविस्पृशि) = प्रकाश में स्पर्श करनेवाले, अर्थात् प्रकाशमय जीवनवाले, (अग्नौ) = गतिशील [अगि गतौ] पुरुष में (आहुतम्) = जिसकी आहुति दी जाती है और (जुष्टम्) = जो प्रीतिपूर्वक सेवन किया जाता है, वह (हविः) = यह सोमरूप हवि (पान्तम्) = शरीर का रक्षण करनेवाली है, (अजरम्) = कभी भी जीर्ण न होने देनेवाली है [ न जरा यस्मात्] । सोम के शरीर में ही आहुत करने के द्वारा हम शरीर का रोगों से बचाव कर पाते हैं और इस शरीर में जीर्णता को नहीं आने देते। [२] (तस्य) = उस सोमरूप हवि के (भर्मणे) = भरण के लिये, (भुवनाय) = उत्पादन के लिये तथा (धर्मणे) = धारण के लिये (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति (स्वधया) = आत्मतत्त्व के धारण के द्वारा (कम्) = सुख को (पप्रथन्त) = विस्तृत करते हैं। सोम के रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] प्रभु का स्मरण करें। यह प्रभु स्मरण हमें विलास के मार्ग पर जाने से बचाता है। प्रभु स्मरण के अभाव में विलास की वृत्ति बढ़कर विनाश ही विनाश हो जाता है। [ख] साथ ही प्रसन्न रहना भी आवश्यक है। शोक, क्रोध, ईष्यादि वृत्तियाँ भी सोम के विनाश का कारण बनती हैं। इसीलिए ब्रह्मचारी के लिए क्रोध, शोक आदि का त्याग आवश्यक है ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सोम का रक्षण ही उसे नीरोग व अजर बनाता है। इसके रक्षण के लिए आवश्यक है कि [क] प्रभु का स्मरण करें, [ख] ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें, [ग] सदा क्रियाशील बने रहें ।
विषय
सूर्य, वैश्वानर। किरणों के जलादान के दृष्टान्त से देह में प्राणों का अन्नदान और मुमुक्षुओं का प्रभु में आत्मदान का वर्णन।
भावार्थ
(देवाः) सूर्य के चमकने और प्रकाश देने वाले किरणों और (स्वः-विदि) प्रकाश और ताप को प्रदान करने वाले, (दिवि-स्पृशि) भूमि और आकाश में व्यापने वाले (अग्नौ) अग्निमय सूर्य में (पान्तं) पान करने योग्य, (हविः) ग्रहण करने योग्य हवि के सदृश, (अजरं) अविनश्वर, (आहुतम्) प्रदान किये और (जुष्टम्) स्वयं ग्रहण किये जल तत्व को (तस्य) उसकी (भर्मणे) सर्वपोषणकारी (भुवनाय) पुनः व्यक्त रूप से प्रकट होने वाले (धर्मणे च) सबको धारण करने वाले जगत् के हितार्थ (स्वधया) स्व-शरीर वा चेतनादि की पोषणकारिणी ‘स्वधा’ अन्न वा जल रूप से (कं पप्रथन्त) विस्तृत करते हैं। इसी प्रकार (२) देव विद्वान जीवगण वा प्राण गण जिस (पान्तं) पालक वा पीने खाने योग्य अन्न को अपने जाठर अग्नि में आहुति करते हैं, उसके अग्नि के पोषणीय धारणीय देह की (स्वधया) स्वधा अर्थात् चेतना रूप से व्यक्त करते हैं। वे अन्न को खाकर उसी को चेतना रूप से देह में प्रकट करते हैं। (३) इसी प्रकार विद्वान् जन उस प्रभु रूप अग्नि में पालनीय प्रिय इस जीव को प्रभु में समर्पित करते हैं तो उसी सर्वपोषक, सर्व-धारक, सर्वोत्पादक प्रभु की स्वधा शक्ति से वे (कं पप्रथन्त) परम मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते सूर्यविद्युदादीनां व्यवहाराः परमात्मनो ज्ञानप्रसादलाभास्तस्योपासनाप्रकाराश्च वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(स्वर्विदि) या सूर्यं विन्दते प्राप्नोति तथाविधे “स्वरादित्यो भवति” [निरु० २।१४] (दिविस्पृशि) दिवमाकाशं स्पृशति यस्तस्मिन् (अग्नौ) यज्ञाग्नौ (हविः-पान्तम्) हव्यं यत् पानीयं भक्षणीयम् “पा पाने” [स्वादि०] ततः “जॄविशिभ्यां झच्” [उणा० ३।१२६] इति बाहुलकात् झच्-कर्मणि “झोऽन्तः” [अष्टा० ७।१।३] (अजरम्) संसारे गतिशीलं प्रसरणस्वभावं (आहुतम्) अभिहुतं प्रेरितं (जुष्टम्) प्रीतं (तस्य भर्मणे) तस्य भरणाय (भुवनाय) भावनाय (धर्मणे) धारणाय च (स्वधया) अन्नेन “स्वधा-अन्ननाम” [निघ० २।७] (कं पप्रथन्त) सुखकरमग्निं प्रथयन्ति विद्वांसः, इति निरुक्तानुसारी खल्वर्थः ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Devas, the divines of humanity and divinities of nature, with food and reverence, offer delicious, expansive, loved and solemnly dedicated havi into the holy fire which rises to the skies and reaches the sun. Thus do they exalt Agni so that they may well be, rise and exalt in the gracious order of Agni under the divine shelter and support of the order.
मराठी (1)
भावार्थ
आकाशाला स्पर्श करणाऱ्या सूर्याच्या प्राप्तीसाठी खाण्यापिण्यायोग्य पदार्थ विशेष हवी यज्ञाग्नीमध्ये जो होम करतो. त्याला सुख प्राप्त होते. ॥१॥
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