ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
इन्द्रं॑ स्तवा॒ नृत॑मं॒ यस्य॑ म॒ह्ना वि॑बबा॒धे रो॑च॒ना वि ज्मो अन्ता॑न् । आ यः प॒प्रौ च॑र्षणी॒धृद्वरो॑भि॒: प्र सिन्धु॑भ्यो रिरिचा॒नो म॑हि॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । स्त॒व॒ । नृऽत॑मम् । यस्य॑ । म॒ह्ना । वि॒ऽब॒बा॒धे । रो॒च॒ना । वि । ज्मः । अन्ता॑न् । आ । यः । प॒प्रौ । च॒र्षणि॒ऽधृत् । वरः॑ऽभिः । प्र । सिन्धु॑ऽभ्यः । रि॒रि॒चा॒नः । म॒हि॒ऽत्वा ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं स्तवा नृतमं यस्य मह्ना विबबाधे रोचना वि ज्मो अन्तान् । आ यः पप्रौ चर्षणीधृद्वरोभि: प्र सिन्धुभ्यो रिरिचानो महित्वा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । स्तव । नृऽतमम् । यस्य । मह्ना । विऽबबाधे । रोचना । वि । ज्मः । अन्तान् । आ । यः । पप्रौ । चर्षणिऽधृत् । वरःऽभिः । प्र । सिन्धुऽभ्यः । रिरिचानः । महिऽत्वा ॥ १०.८९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा सब जगत् में व्यापक सबका शासक उपासकों का दुःखनिवारक उपास्य है, इत्यादि विषय दिखलाए हैं।
पदार्थ
(नृतमम्-इन्द्रम्) हे मानव ! तू सर्वोपरिनायक ऐश्वर्यवान् परमात्मा की (स्तव) स्तुति कर (यस्य मह्ना) जिसका महत्त्व (रोचना विबबाधे) प्रकाशवाली वस्तुओं को दबा लेता है (ज्मः-अन्तान् वि) पृथिवी के सब अन्तों-प्रदेशों को या जायमान सृष्टि के प्रदेशों को दबा लेता है (यः) जो (चर्षणीधृत्) कर्मफल प्रदान करने से मनुष्यों का धारक है (वरोभिः) वारक ग्रहणधर्मों से (आ पप्रौ) विश्व को अपनी व्याप्ति से पूरित करता है (महित्वा सिन्धुभ्यः) महत्त्व से स्यन्दनशील विश्व को बाँधनेवालों से (प्र रिरिचानः) प्रकृष्टरूप से अतिरिक्त है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा समस्त प्रकाशवाले आकाशीय गृहतारों को पृथिवी या फैली हुई सृष्टि के प्रदेशों को अपनी व्याप्ति से प्रभावित कर रहा संसार के बन्धनों से पृथक् है, उसकी स्तुति करनी चाहिए ॥१॥
विषय
नृतम-प्रकाशमय - अनन्त महिम
पदार्थ
[१] (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली, सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को (स्तवा) = मैं स्तुत करता हूँ। जो प्रभु (नृतमम्) = सर्वोत्तम नेता हैं, हृदयस्थरूपेण प्रेरणा देते हुए सदा सन्मार्ग का दर्शन कराते हैं। [२] उस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ (यस्य) = जिसकी (मह्ना) = महिमा से (रोचना) = [परेषां तेजांसि सा० ] काम-क्रोधादि शत्रुओं के तेज को (विबबाधे) = एक उपासक बाधित कर पाता है । प्रभु का स्मरण ही उपासक को इतना शक्तिशाली बनाता है कि वह काम-क्रोधादि को जीतने में समर्थ हो जाता है। [३] उस प्रभु की उपासना करता हूँ (यः) = जो (वरोभिः) = अन्धकार के निवारक तेजों से (ज्मः) = पृथिवी के (अन्तान्) = प्रान्तभागों को भी (आपप्रौ) = पूरण करनेवाले हैं। प्रभु सारे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले हैं। इस प्रकाश के द्वारा ही वे (चर्षणीधृत्) = सब कामशील मनुष्यों का धारण करनेवाले हैं। वे प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (सिन्धुभ्यः प्ररिरिचान:) = समुद्रों से भी अतिरिक्त हैं । सब समुद्र प्रभु की महिमा को सीमित नहीं कर पाते ।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु सर्वोत्तम नेता हैं, प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं, अनन्त महिमावाले हैं।
विषय
इन्द्र और सोम। सर्वाध्यक्ष सम्राट् के तुल्य सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, महान् प्रभु का वर्णन। अध्यात्म में—आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(यस्य मह्ना) जो अपने महान् सामर्थ्य से (रोचना) चमकने वाले, तेजस्वी, सूर्य, चन्द्र, तारों के तुल्य अनेक तेजस्वियों को (वि-बबाधे) बाधित करता, पीड़ित करता, अपने अधीन करता है, और जो अपने महान् सामर्थ्य से (ज्मः अन्तान् वि) पृथिवी के प्रान्त भागों को भी विशेष रूप से पीड़ित करता, उनको प्रकाश, ताप आदि द्वारा शोषित करता तथा आंधी आदि चलाता है। (यः चर्षणी धृत्) जो मनुष्यों को वा अध्यक्षों को धारण करने वाला, सर्वद्रष्टा सर्वाध्यक्ष सम्राट् के तुल्य होकर जगत् को (वरोभिः) नाना अन्धकार नाशक तेजों से (आ पप्रौ) पूर्ण करता है। और जो (महित्वा) अपने महत्व परिमाण वा गुणों और शक्ति सामर्थ्यों के महान् होने से (सिन्धुभ्यः प्र रिरिचानः) समुद्रों और महान् आकाशों से भी बड़ा है (नृ-तमं) नायकों में सर्वश्रेष्ठ, सर्वपुरुषोतम उस (इन्द्रं) सर्वजगत् के द्रष्टा, सर्वप्रकाशक परमेश्वर की तू (स्तव) स्तुति कर। (२) अध्यात्म में—नेता और प्राणों में सर्वश्रेष्ठ ‘आत्मा’ ‘इन्द्र’ है। उसकी इन्द्रिय ‘रोचन’ हैं। पार्थिव शरीर ‘ज्म’ है। ज्ञानेन्द्रिय ‘चर्षणी’ हैं। इच्छा शक्तियां, ‘वरः’ हैं और देहगत नाड़ियां ‘सिन्धु’ हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि रेणुः॥ देवता—१–४, ६–१८ इन्द्रः। ५ इन्द्रासोमौ॥ छन्द:- १, ४, ६, ७, ११, १२, १५, १८ त्रिष्टुप्। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ५, ९, १०, १४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मा सर्वस्मिन् संसारे व्यापकः सर्वस्य शासक उपासकानां दुःखनिवारकश्चेत्येवमादयो विषयाः प्रदर्श्यन्ते।
पदार्थः
(नृतमम्-इन्द्रं स्तव) हे मानव ! सर्वोपरिनायकमैश्वर्यवन्तं परमात्मानं स्तुहि (यस्य मह्ना) यस्य महत्त्वम् “विभक्तिव्यत्ययेन तृतीया” (रोचना-विबबाधे) तेजांसि प्रकाशात्मकानि वस्तूनि विबाधतेऽभिभवति (ज्मः अन्तान् वि) पृथिव्याः “ज्मा पृथिवीनाम” [निघं० १।१] पर्यन्तान् यद्वा जायमानायाः सृष्टेः पर्यन्तान्-अभि भवति (यः-चर्षणीधृत्) यश्च मनुष्याणां धारकः कर्मफलप्रदानेन (वरोभिः) वारकैर्ग्रहणधर्मैः (आ पप्रौ) विश्वं पूरयति स्वव्याप्त्या (महित्वा सिन्धुभ्यः) महत्त्वेन स्यन्दमानेभ्यो विश्वबन्धकेभ्यः “तद्यदेवैरिदं सर्वं सितं तस्मात् सिन्धवः” [जै० १।९।२।९] (प्र रिरिचानः) प्रकृष्टरूपेणातिरिक्तो महानस्ति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Adore and celebrate Indra, highest over humanity, who overwhelms the lights of the world with his grandeur and rules over the ends of the earth, who, watchful sustainer of humanity, pervades and fills the worlds of the universe by his excellences and, all overpowering, exceeds the oceans of earth and space by his glory and grandeur.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा संपूर्ण प्रकाशयुक्त आकाशातील ग्रहताऱ्यांना पृथ्वी किंवा पसरलेल्या सृष्टीच्या प्रदेशांना आपल्या व्याप्तीने प्रभावित करत आहे. जगाच्या बंधनापासून पृथक आहे. त्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥१॥
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