ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीषः
देवता - आपः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
यो व॑: शि॒वत॑मो॒ रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह न॑: । उ॒श॒तीरि॑व मा॒तर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वः॒ । शि॒वऽत॑मः । रसः॑ । तस्य॑ । भा॒ज॒य॒त॒ । इ॒ह । नः॒ । उ॒श॒तीःऽइ॑व । मा॒तरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न: । उशतीरिव मातर: ॥
स्वर रहित पद पाठयः । वः । शिवऽतमः । रसः । तस्य । भाजयत । इह । नः । उशतीःऽइव । मातरः ॥ १०.९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वः) हे जलों ! तुम्हारा (यः) जो (शिवतमः-रसः) अत्यन्त कल्याणसाधक रस है-स्वाद है (तस्य नः) उसे हमें (इह) इस शरीर में (भाजयत) सेवन कराओ (उशतीः-मातरः-इव) पुत्रसमृद्धि को चाहती हुई माताओं के समान, वे जैसे अपना दूध पुत्र को सेवन कराती हैं-पिलाती हैं ॥२॥
भावार्थ
जलों के अन्दर तृप्तिकर स्वाद है, जोकि सुख देनेवाला है और भोजन को रस में परिणत करता है। इसी प्रकार आप विद्वान् जनों का ज्ञानरस आत्मा को सुख वा जीवन देता है। उनके उपदेशों का श्रवण करना चाहिये ॥२॥
विषय
कामयमान माताओं के समान
पदार्थ
[१] हे जलो! (यः) = जो (वः) = तुम्हारा (शिवतमः) = अत्यन्त कल्याण करनेवाला (रसः) = रस है, (नः) = हमें (इह) = इस जीवन में (तस्य) = उसका (भाजयत) = भागी बनाओ । 'भज सेवायाम्'- हमें उस रस का उसी प्रकार सेवन कराओ (इव) = जिस प्रकार (उशती:) = बालक के हित की कामना करती हुई (मातरः) = माताएँ बच्चे को स्तन्य- [दूध] का पान कराती हैं। [२] बच्चा माता के दूध का पान करके जैसे नीरोग व पुष्ट शरीर वाला होता है, उसी प्रकार हम जलों के रस का सेवन करते हुए नीरोगता व पुष्टि को प्राप्त करते हैं। [३] यहाँ स्तन्यपान की उपमा देकर यह संकेत किया गया है कि जलों को धीमे-धीमे पीना चाहिए, उनका रस लेने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने पर ही जल गुणकारी होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जलों का रस हमारे लिये उसी प्रकार पुष्टिकर व नीरोगता को देनेवाला है जैसे कि हितकामना वाली माता का दूध बच्चे के लिये ।
विषय
आपः। आप्त जनों के कर्त्तव्य। जलों से उनकी तुलना। जलों का रोगों को, और आप्तों का दुर्भावों और पापों को दूर करने का कर्तव्य।
भावार्थ
हे (आपः) जलवत् आप्त जनो ! हे सर्वव्यापक प्रभो ! (उशतीः इव मातरः) पुत्र को चाहने वाली माताओं के समान (वः यः शिवतमः रसः) आप का जो अति कल्याणकारी रस, ज्ञान और बल है (तस्य) इसका (इह नः भाजयत) हमें यहां सेवन कराइये।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीष ऋषिः। आपो देवताः॥ छन्दः-१—४, ६ गायत्री। ५ वर्धमाना गायत्री। ७ प्रतिष्ठा गायत्री ८, ९ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वः) हे आपः ! युष्माकं (यः) यः खलु (शिवतमः-रसः) कल्याणतमोऽतिकल्याणसाधको रसोऽस्ति (तस्य नः) तम् “व्यत्ययेन षष्ठी” नोऽस्मान् (इह) अस्मिन् शरीरे (भाजयत) सेवयत (उशतीः-मातरः-इव) पुत्रसमृद्धिं कामयमाना मातर इव, यथा ताः स्वस्तन्यं रसं दुग्धं पुत्रं भाजयन्ति पाययन्ति तद्वत् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us share here in body that nectar sweet taste of yours which is most blissful, be like loving mothers for their children.
मराठी (1)
भावार्थ
जलामध्ये तृप्ती करणारा रस आहे. जो सुख देणारा आहे व भोजनाला रसात रूपांतरित करतो. याच प्रकारे आप्तविद्वान लोकांचा ज्ञानरस आत्म्याला सुख किंवा जीवन देतो. त्यांच्या उपदेशांचे श्रवण केले पाहिजे. ॥२॥
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