ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीषः
देवता - आपः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
तस्मा॒ अरं॑ गमाम वो॒ यस्य॒ क्षया॑य॒ जिन्व॑थ । आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । अर॑म् । ग॒मा॒म॒ । वः॒ । यस्य॑ । क्षया॑य । जिन्व॑थ । आपः॑ । ज॒नय॑थ । च॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । अरम् । गमाम । वः । यस्य । क्षयाय । जिन्वथ । आपः । जनयथ । च । नः ॥ १०.९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) जिस रस के (क्षयाय) निवास के लिए-सात्म्य करने के लिए-संस्थापित करने के लिए (आपः) हे जलो ! (जिन्वथ) तृप्त करते हो (तस्मै) उस रस के लिए-उसकी पुष्टि के लिए (वः) तुम्हें (अरं गमाम) हम पूर्णरूप से सेवन करते हैं (च) और (नः) हमें (जनयथ) प्रादुर्भूत-समृद्ध-पुष्ट करते हो ॥३॥
भावार्थ
जल का सार भाग शरीर में सात्म्य हो जाता है, वह समृद्ध करने, पुष्ट करने का निमित्त बनता है। इसी प्रकार आप विद्वान् जनों का ज्ञान-सार आत्मा में बैठ जाता है, जो आत्मा को बल देता है ॥३॥
विषय
जननशक्ति
पदार्थ
[१] हे (आपः) = जलो ! (यस्य क्षयाय) = जिस रस के निवास के हेतु से आप (जिन्वथ) = हमें प्रीणित करते हो, दोषों को दूर करके तृप्ति व प्रसन्नता का अनुभव कराते हो, (व:) = आपके (तस्मा) = उस रस के लिये (अरं गमाम) = हम खूब गायें, अर्थात् उस रस को खूब ही प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जलों में एक रस है जो कि हमारे जीवन को नीरोग, निर्मल व सशक्त बनाकर हमें प्रसन्नता का अनुभव कराता है। हम उस रस को प्राप्त करने का पूर्ण प्रयत्न करें। [२] हे (आपः) = जलो ! आप (च) = और (नः) = हमें (जनयथा) = विकसित शक्ति वाला करो। अथवा जननशक्ति से युक्त करो। वस्तुतः यहाँ यह संकेत स्पष्ट है कि जलों का समुचित प्रयोग वन्ध्यात्व को तथा नपुंसकत्व को नष्ट करता है।
भावार्थ
भावार्थ- जल अपने रसों से हमें प्रीणित करते हैं तथा हमारी शक्तियों का विकास करनेवाले हैं ।
विषय
आपः। आप्त जनों के कर्त्तव्य। जलों से उनकी तुलना। जलों का रोगों को, और आप्तों का दुर्भावों और पापों को दूर करने का कर्तव्य।
भावार्थ
हे (आपः) जलवत् शान्तिदायक आप्त जनो ! हे व्यापक प्रभो ! आप लोग (चनः) अन्नवत् उत्तम ज्ञान को (जनयथ) उत्पन्न करो, अन्यों के प्रति प्रकट करा दो। (यस्य क्षयाय) आप लोग जिसके ऐश्वर्य की वृद्धि करते हो, (तस्मै अरं गमाम) हम भी उसी को शीघ्र ही प्राप्त हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीष ऋषिः। आपो देवताः॥ छन्दः-१—४, ६ गायत्री। ५ वर्धमाना गायत्री। ७ प्रतिष्ठा गायत्री ८, ९ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य क्षयाय) यस्य रसस्य निवासाय शरीरे सात्म्यकरणाय संस्थापनाय “क्षि निवासगत्योः” [तुदादिः] (आपः-जिन्वथ) हे आपः ! तर्पयथ (तस्मै वः-अरं गमाम) तत्प्राप्तये युष्मान् पूर्णरूपेण सेवेमहि (च) यतश्च (नः-जनयथ) अस्मान् प्रादुर्भावयथ पोषयथ, उक्तं यथा-“वेत्थ यदा पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति” [छान्दो० ५।३।३] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O holy waters, lovers of peace and pleasure of bliss, we come to you without delay for that pleasure, peace and enlightenment for the promotion and stability of which you move and impel people and powers and invigorate us too. Pray bless us with vigour and vitality.
मराठी (1)
भावार्थ
जलाचा सार भाग शरीरात मिसळून जातो. तो समृद्ध करण्याचे व पुष्ट करण्याचे निमित्त बनतो. याच प्रकारे आप्त विद्वान लोकांचे ज्ञान-सार आत्म्यात समाविष्ट होते व आत्म्याला बल देते. ॥३॥
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