ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
ऋषिः - शार्यातो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
य॒ज्ञस्य॑ वो र॒थ्यं॑ वि॒श्पतिं॑ वि॒शां होता॑रम॒क्तोरति॑थिं वि॒भाव॑सुम् । शोच॒ञ्छुष्का॑सु॒ हरि॑णीषु॒ जर्भु॑र॒द्वृषा॑ के॒तुर्य॑ज॒तो द्याम॑शायत ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञस्य॑ । वः॒ । र॒थ्य॑म् । वि॒श्पति॑म् । वि॒शाम् । होता॑रम् । अ॒क्तोः । अति॑थिम् । वि॒भाऽव॑सुम् । शोच॑न् । शुष्का॑सु । हरि॑णीषु । जर्भु॑रत् । वृषा॑ । के॒तुः । य॒ज॒तः । द्याम् । अ॒शा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञस्य वो रथ्यं विश्पतिं विशां होतारमक्तोरतिथिं विभावसुम् । शोचञ्छुष्कासु हरिणीषु जर्भुरद्वृषा केतुर्यजतो द्यामशायत ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञस्य । वः । रथ्यम् । विश्पतिम् । विशाम् । होतारम् । अक्तोः । अतिथिम् । विभाऽवसुम् । शोचन् । शुष्कासु । हरिणीषु । जर्भुरत् । वृषा । केतुः । यजतः । द्याम् । अशायत ॥ १०.९२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा के रचित सूर्य आदि का विज्ञान और लाभ [ग्रहण तथा] हमें परमात्मा की उपासना करनी चाहिए, यह वर्णित है।
पदार्थ
(वः) हे मनुष्यों ! तुम (यज्ञस्य रथ्यम्) अध्यात्मयज्ञ के रथवाहक की भाँति वाहक (विश्पतिम्) प्रजापालक (विशां होतारम्) उसमें प्रवेश करनेवालों के ग्रहणकर्त्ता-स्वीकारकर्त्ता (अक्तोः-अतिथिम्) कर्म के या मार्ग के उपदेष्टा (विभावसुम्) ज्ञानप्रकाशधनवाले-ज्ञानप्रकाश धन के दाता परमात्मा को (शुष्कासु) आर्द्र भावरहित प्रजाओं में तथा (हरिणीषु) मनोहारिणी ध्यानोपासनपरायण प्रजाओं में (जर्भुरत्) यथावत् अपने स्वरूप को धरता है-स्थापित करता है, ऐसा (वृषा) सुखवर्षक (केतुः) ज्ञाता द्रष्टा (यजतः) सङ्गमनीय (द्याम्-अशायत) प्रकाशमान द्युलोक के प्रति व्याप्त होता है ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा अध्यात्मरथ का चालक, प्रजाओं का पालक, उसके अन्दर प्रवेश करनेवालों को स्वीकार करनेवाला यथावत् कर्मजीवनमार्ग का उपदेष्टा ज्ञानप्रकाशक है तथा वह उपासनापरायण, आर्द्रभावनापूर्ण और आर्द्रभावना से रहित समस्त प्रजाओं में प्रकाशदाता सब संसार में व्याप्त है, उसे ऐसा मानकर उपासना करनी चाहिये ॥१॥
विषय
वासनाओं का शोषण
पदार्थ
[१] (हरिणीषु) = चित्त का हरण करनेवाली इन्द्रिय वृत्तियों के (शुष्कासु) = शुष्क होने पर (शोचन्) = दीप्त होता हुआ पुरुष (जर्भुरत्) = उस प्रभु को धारण करता है। जो प्रभु (वः) = तुम्हारे (यज्ञस्य रथ्यम्) = जीवनरथ के वाहक हैं, जिस प्रभु से शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके जीवन की गाड़ी चलती है। (विशां विश्पतिम्) = जो सब प्रजाओं के पति हैं। (अक्तो:) = ज्ञान की किरणों के (होतारम्) = प्राप्त करानेवाले हैं। (अतिथिम्) = निरन्तर गतिशील व हमें प्राप्त होनेवाले हैं, हमारे अतिथि हैं। (विभावसुम्) = ज्ञानदीप्ति रूप धनवाले हैं । [२] इस प्रभु का धारण तभी होता है जब कि इन्द्रियों की विषयों से पराङ्मुखता को हम सिद्ध कर पाते हैं । इसको सिद्ध करनेवाला व्यक्ति (वृषा) = शक्तिशाली बनता है, (केतुः) = [कित निवासे रोगापनयने च] उत्तम निवासवाला व नीरोग बनता है । (यजतः) = प्रभु का पूजक, प्रभु से मेलवाला व यज्ञशील होता है। (द्यां अशायत) = [प्रतिशेते सा० ] सदा प्रकाश में निवास करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - चित्तवृत्तियों के निरोध से ही प्रभु का दर्शन होता है ।
विषय
विश्वेदेव। अग्नि के दृष्टान्त में प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
अग्नि के दृष्टान्त से प्रभु का वर्णन। हे विद्वान् लोगो ! (वः) स्वीकार आप लोग अपने (यज्ञस्य होतारम्) यज्ञ, देवोपासना के होता, स्वीकार करने वाले ऐसे प्रभु को (अकृण्वत) स्वीकार करो जो अग्नि के तुल्य (यज्ञस्य होतारं) यज्ञ, आहुतिवत् योग को स्वीकार करने वाला और (रथम्) जो रथ में लगे अश्व के समान विश्व रूप रथ का संचालक है, (विशां विश्पतिम्) प्रजाओं में राजा के तुल्य समस्त लोकों और जीवप्रजाओं का पालक है, (अक्तोः अतिथिम्) रात्रिकाल में चन्द्र के तुल्य अतिथिवत् आह्लादक जनक और (अक्तोः अतिथिम्) दिन में आने वाले वा सर्वोपरि विराजने वाले सूर्य के तुल्य तेजस्वी है (विभावसुं) विशेष दीप्ति से युक्त तेजोमय ऐश्वर्य का स्वामी है। (शुल्कासु शोचन्) सूखी लकड़ियों में अग्नि के तुल्य, (हरिणीषु) समस्त शक्तियों के बीच देदीप्यमान (जर्भुरत्) सब को पालन पोषण करता हुआ, (वृषा) सब सुखों का वर्षक, बलवान्, (केतुः) ज्ञानवान्, (यजतः) सर्वोपास्य होकर (द्याम् अशायत) महान् आकाश एवं सूर्यादि में भी व्यापक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते परमात्मना रचितानां सूर्यादीनां विज्ञानलाभौ ग्राह्यौ, तस्य चोपासना कार्येति वर्ण्यते।
पदार्थः
(वः) हे मनुष्याः ! यूयम् “वः” विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमास्थाने द्वितीया (यज्ञस्य रथ्यम्) अध्यात्मयज्ञस्य रथवाहकमिव वाहकम् “रथ्यः-यो रथं वहति सः” [ऋ० ५।५४।१३ दयानन्दः] (विश्पतिम्) प्रजापालकं (विशां होतारम्) तत्र विशतां ग्रहीतारं स्वीकर्त्तारं (अक्तोः-अतिथिम्) कर्मणो-मार्गस्य वा “अक्तुभिः प्रसिद्धैः कर्मभिर्मार्गैः” [ऋ० १।९४।५ दयानन्दः] उपदेष्टारम् “अतिथिः-उपदेष्टा” [ऋ० १।७३।१ दयानन्दः] (विभावसुम्) ज्ञानप्रकाशधनवन्तम्-ज्ञानप्रकाशधनस्य दातारम् “विभावसुम्-येन विविधा भा विद्यादीप्तिर्वास्यते तम्” [यजु० १२।३१ दयानन्दः] (शुष्कासु हरिणीषु) आर्द्रभावनारहितासु प्रजासु तथा मनोहारिणीषु ध्यानोपासनपरायणासु प्रजासु (जर्भुरत्) भृशं धरति यथा सः धारयति “जर्भुरत्-भृशं धरेत्” [ऋ० २।२।५ दयानन्दः] तथा (वृषा) सुखवर्षकः (केतुः) ज्ञाता द्रष्टा (यजतः) यजनीयः (द्याम्-अशायत) प्रकाशमानां दिवं द्युलोकं प्रत्यपि शेते व्याप्नोति ॥१॥
भावार्थः
इंग्लिश (1)
Meaning
Honour and adore Agni, leader of your life’s yajna, ruler and sustainer of communities of the people, pioneer and chief priest of the universe, useful giver of the peace of night, and spectrum light of the world. Generous and virile, brilliant illuminator, worthy of honour and adoration, burning the dry woods and vibrating in the greens it pervades every thing on earth and reposes in the regions of light.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अध्यात्मरथाचा चालक, प्रजेचा पालक, त्याच्यामध्ये प्रवेश करणाऱ्यांचा स्वीकारकर्ता, योग्य कर्मजीवन मार्गाचा उपदेष्टा, ज्ञानप्रकाशक आहे व उपासना करण्यायोग्य आहे, आर्द्रभावनापूर्ण व आर्द्रभावनारहित संपूर्ण प्रजेमध्ये प्रकाशक असून, सर्वत्र व्याप्त आहे. हे जाणून त्याची उपासना केली पाहिजे. ॥१॥
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