ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
महि॑ द्यावापृथिवी भूतमु॒र्वी नारी॑ य॒ह्वी न रोद॑सी॒ सदं॑ नः । तेभि॑र्नः पातं॒ सह्य॑स ए॒भिर्न॑: पातं शू॒षणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । भू॒त॒म् । उ॒र्वी इति॑ । नारी॒ इति॑ । य॒ह्वी इति॑ । न । रोद॑सी॒ इति॑ । सद॑म् । नः॒ । तेभिः॑ । नः॒ । पा॒त॒म् । सह्य॑सः । ए॒भिः । नः॒ । पा॒त॒म् । शू॒षणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि द्यावापृथिवी भूतमुर्वी नारी यह्वी न रोदसी सदं नः । तेभिर्नः पातं सह्यस एभिर्न: पातं शूषणि ॥
स्वर रहित पद पाठमहि । द्यावापृथिवी इति । भूतम् । उर्वी इति । नारी इति । यह्वी इति । न । रोदसी इति । सदम् । नः । तेभिः । नः । पातम् । सह्यसः । एभिः । नः । पातम् । शूषणि ॥ १०.९३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में अध्यापक उपदेशकों से ज्ञानग्रहण करना, परमात्मा की उपासना, अग्निहोत्र स्वास्थ्यलाभ के लिये करना चाहिये, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(द्यावापृथिवी महि) यज्ञ करने से आकाश भूमि महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, आकाश मेघ से पूर्ण और भूमि वृष्टिरूप यज्ञफल द्वारा धान्यपूर्ण हो जाती है, अतः (उर्वी नारी) अपने-अपने रूप से विस्तृत होते हुए प्राणियों के जीवन के नेता-ले जानेवाले हो जाते हैं (यह्वी रोदसी) नदियों के समान विश्व का रोधन करनेवाले (नः सदम्) हमारे लिये सदा सुखवाहक हों (तेभिः-नः पातम्) उन अपने-अपने पालक पदार्थों, मेघों और अन्नादि के द्वारा हमारी रक्षा करें (शूषणि) उत्पन्न हुए संसार में (नः-एभिः सह्यसः पातम्) हमारी इन पालक पदार्थों से अत्यन्त बाधित करनेवाले रोग आदि से रक्षा करें ॥१॥
भावार्थ
यज्ञ द्वारा आकाश से मेघ बरसता है और भूमि अन्नादि से पूर्ण हो जाती है, जो कि प्राणियों के जीवन के लिये निर्वाहक है। यज्ञ संसार में पीड़ा देनेवाले रोग आदि से भी रक्षा करते हैं ॥१॥
विषय
तेभिः- एभिः
पदार्थ
[१] हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक ! तुम हमारे लिये (महि उर्वी) = खूब विस्तीर्ण होवो । द्युलोक 'मस्तिष्क' है, पृथिवीलोक 'शरीर'। हमारा मस्तिष्क विस्तृत ज्ञान से उज्ज्वल हो, और हमारा शरीर प्रचण्ड तेजस्विता से देदीप्यमान हो । हे (रोदसी) = द्यावापृथिवी ! आन (नः) = हमारे लिये (सदम्) = सदा (यह्वी नारी न) = अपने गुणों के कारण महत्त्वपूर्ण स्त्री के समान होवो। जैसे पत्नी पति का पूरण करनेवाली बनती है, उसी प्रकार ये द्यावापृथिवी हमारा पूरण करनेवाले हों । द्युलोक ज्ञान की कमी को न रहने दे तथा पृथिवीलोक शक्ति व दृढ़ता का पूरण करनेवाला हो। [२] हे द्यावापृथिवी! आप (तेभिः) = उन मस्तिष्क की ज्ञानदीप्तियों से (नः) = हमें (सह्यसः) = कुचल डालनेवाले काम-क्रोधादि शत्रुओं से (पातम्) = सुरक्षित करो। ज्ञानाग्नि में काम भस्म हो जाए तथा (एभिः) = इन शरीर की शक्तियों से (नः) = हमें शूषणि बाह्य शत्रुओं के शोषण में (पातम्) = सुरक्षित करिये । हम इन पार्थिव शक्तियों से शत्रुओं का शोषण कर सकें। अध्यात्म शत्रुओं का नाश मस्तिष्क के ज्ञान द्वारा तथा बाह्य शत्रुओं का नाश शारीरिक शक्तियों के द्वारा हम करनेवाले बनें । अध्यात्म शत्रुओं के नाश से परलोक उत्तम होता है । बाह्य शत्रुओं के नाश से इहलोक अच्छा बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान से कामादि का तथा तेज से बाह्य शत्रुओं का हम विनाश करनेवाले हों ।
विषय
विश्वेदेव। स्त्री पुरुषों को उत्तम होने का उपदेश। वे बलवान्, रक्षक, शत्रुविजयी पुरुष की अनेक उपायों से रक्षा करें।
भावार्थ
हे (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमिवत् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (महि उर्वी) खूब विस्तृत और (नारी) उत्तम नरनारी होवो और (नः) हमारे बीच (यह्वी) शक्ति सामर्थ्य में महान् (रोदसी न) आकाश और भूमि के तुल्य परस्पर उपकारक (सदं) सदा होवें। अथवा आप दोनों (नः) हमें (सह्यसः) पराजयकारी से वा शत्रु-पराजयी राजा के (तेभिः) उन २ उपायों से (पातम्) रक्षा करो और (शूषणि) बल के निमित्त, (एभिः) इन २ उपायों से (नः पातम्) हमारी रक्षा करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्तेऽध्यापकोपदेशकाभ्यां ज्ञानं ग्राह्यं परमात्मन उपासना च कार्या, अग्निहोत्रं च स्वास्थ्यलाभाय कर्तव्यमित्यादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(द्यावापृथिवी महि) यज्ञकरणात्-आकाशभूमी महत्त्वपूर्णे “द्यावापृथिवी आकाशभूमी” [यजु० १५।५७ दयानन्दः] (भूतम्) भवतः यज्ञादाकाशो मेघपूर्णो भवति भूमिश्च वृष्टिरूपयज्ञफलेन शस्यपूर्णा भवति, तस्मात् (उर्वी नारी) स्वस्वरूपतो विस्तृते सत्यौ प्राणिनां जीवनस्य नेत्र्यौ च स्तः (यह्वी रोदसी) रोधसी “रोदसी रोधसी” [निरु० ६।१] “रोधः कूलं निरुणद्धि स्रोतः” [निरु० ६।१] तद्वत्यौ नद्याविव “यह्व्यो नद्यः” [निघ० १।१३] (नः सदम्) अस्मभ्यं सुखं वाहिन्यौ सदा भवतः (तेभिः-नः पातम्) तैः-स्वस्वपालकपदार्थैर्मेघैरन्नादिभिश्च सदाऽस्मान् रक्षतः (शूषणि) उत्पन्ने संसारे “शूष प्रसवे” [भ्वादि०] ततः कनिन् औणादिकः “पूषन् इति यथा शूषन् शब्दसाम्यात्” (नः-एभिः सह्यसः-पातम्) अस्मान् एतैः पालकपदार्थैः-अत्यन्ताभिभावितू रोगादेः-पातः ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the great earth and high heaven be vaster and greater, and always waxing and rising for us, may they like mothers help us rise and grow. May they, stronger and more prosperous, promote us by those heavenly gifts of light and rain. May they, ever stronger, amiable, procreative and productive, help us grow with these gifts of rain and food.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञामुळे आकाशातून मेघ वृष्टी करतो. भूमी अन्नधान्याने परिपूर्ण होते. ते प्राण्यांच्या जीवनासाठी निर्वाहक असतात. जगाला त्रस्त करणाऱ्या रोग इत्यादींपासूनही रक्षण करतात. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal