ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
ह॒ये जाये॒ मन॑सा॒ तिष्ठ॑ घोरे॒ वचां॑सि मि॒श्रा कृ॑णवावहै॒ नु । न नौ॒ मन्त्रा॒ अनु॑दितास ए॒ते मय॑स्कर॒न्पर॑तरे च॒नाह॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठह॒ये । जाये॑ । मन॑सा । तिष्ठ॑ । घोरे॑ । वचां॑सि । मि॒श्रा । कृ॒ण॒वा॒व॒है॒ । नु । न । नौ॒ । मन्त्राः॑ । अनु॑दितासः । ए॒ते । मयः॑ । क॒र॒न् । पर॑ऽतरे । च॒न । अह॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु । न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥
स्वर रहित पद पाठहये । जाये । मनसा । तिष्ठ । घोरे । वचांसि । मिश्रा । कृणवावहै । नु । न । नौ । मन्त्राः । अनुदितासः । एते । मयः । करन् । परऽतरे । चन । अहन् ॥ १०.९५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में पति-पत्नी के ऐसे ही राजा-प्रजा के धर्म का आदर्श, घर में राष्ट्र में जार चोर को न प्रविष्ट होने दिया जावे, कामी पति स्त्री न हों, सन्तानार्थ गृहस्थ-धर्म सेवें, अन्त में ब्रह्मचर्य धारण करें विषय हैं।
पदार्थ
(हये) हे गतिशील वंश को बढ़ानेवाली या राष्ट्र को बढ़ानेवाली (जाये) पत्नी ! राष्ट्र में जायमान प्रजा ! (घोरे) दुःखप्रद भयंकर कष्टों में (मनसा तिष्ठ) मनोभाव से मनोयोग से स्थिर रह (मिश्रा) परस्पर मेल करानेवाले (वचांसि नु) वचनों को अवश्य (कृणवावहै) सङ्कल्पित करें-बोलें (नौ) हम दोनों के (एते) ये (अनुदितासः) न प्रकट करने योग्य-गोपनीय (मन्त्राः) विचार (मयः) सुख (न करन्) क्या नहीं करते हैं-क्या नहीं करेंगे ? निश्चित करेंगे (परतरे) अन्तिम (अहन्-चन) किसी दिन-किसी काल में अवश्य सुख करेंगे सन्तान प्राप्त करने पर ॥१॥
भावार्थ
युवक युवति का विवाह हो जावे, युवक भावी स्नेह के लिये सन्तान-विषयक विचार का प्रस्ताव करता है एवं रजा राज्याभिषेक के पश्चात् अधिक दृढ़ सम्बन्ध के विचार प्रस्तुत करता है ॥१॥
विषय
पति की कामना
पदार्थ
[१] (हये) = [हयति to worship] हे उपासना की वृत्तिवाली, (जाये) = उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली, (घोरे) = उदात्त चरित्रवाली तू (मनसा तिष्ठ) = पूरे दिल से इस घर में रहनेवाली हो। पत्नी की तीन विशेषताएँ 'हये-जाये-घोरे' इन सम्बोधनों से सुव्यक्त हो रही हैं। इसने अब माता-पिता का स्मरण न करते हुए इस पतिगृह में पूरे दिल से स्थित होना है। यही तो इसका वास्तविक घर है, पहला घर तो इसकी माता का घर था । उस घर को माताजी ने बनाया था, इसे अब यह स्वयं बनाएगी। [२] (नु) = अब हम (वचांसि) = परस्पर की बातों को (मिश्रा कृणवावहै) = एक दूसरे से मिश्रित करनेवाले हों। घर के विषय में सब बातें सोच लें। भोजनादि की व्यवस्था को सलाह करके ठीक-ठाक कर लें, यह बातचीत थोड़े बहुत विनोद [relaxation] का भी साधन बनती ही है । [३] (नौ) = हमारे (एते मंत्राः) = ये प्रभु की स्तुति के साधनभूत मन्त्र (अनुदितासः न) = अनुचरित न हों । हम मिलकर प्रातः - सायं प्रभु का उपासन करें । ये मन्त्र (परतरे चन अहन्) = जीवन के पिछले दिनों में भी, वृद्धावस्था में भी, प्रारम्भ के रोमान्स के वर्षों के बीत जाने पर भी (मय: करन्) = हमारा कल्याण करनेवाले हों। ये मन्त्र हमारे लिये मार्गदर्शक हों, यह स्तवन हमारे में शक्ति व उत्साह का संचार करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- पति चाहता है कि पत्नी [क] उपासना की वृत्तिवाली, [ख] उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली तथा [ग] उदात्त स्वभाववाली हो। पति-पत्नी घर के विषय में सलाह करके चलें । प्रातः सायं प्रभु स्मरण अवश्य करें।
विषय
पुरूरवा और उर्वशी। सेनापति प्रजा और राजा का पति-पत्नी के तुल्य संवाद। वे परस्पर मन्त्रणा कर के भविष्य के कार्य किया करें।
भावार्थ
सेना, सेनापति, प्रजा और राजा का पति पत्नीवत् परस्पर संवाद। हे (हये) ‘हया’ अर्थात् अश्व के समान सर्वाङ्ग में बलवति ! (जाये) पुत्रोत्पन्न करने में समर्थ स्त्री के तुल्य अपने पालक नायक को अपने आप अपने बल पराक्रम से प्रसिद्ध करने वाली, वा (जाये) जय दिलाने वाली ! हे (घोरे) घोर, दुष्कर संग्राम करने हारी ! शत्रुसंहारकारिणि ! तू (मनसा) ज्ञानसहित वा शत्रु स्तम्भक बल के साथ (तिष्ठ) स्थिर हो। हम दोनों (मिश्रा) परस्पर मिले हुए, दृढ़ सम्बन्ध बना रखने वाले (वचांसि) परस्पर प्रतिज्ञा-वचनों को (कृणवावहै नु) करें। क्या (नौ) हम दोनों के (एते) ये (अनु-दितासः मन्त्राः) परस्पर अनुकूलता से सुरक्षित, परस्पर किये मन्त्र, विचार (परतरे चन अहनि) भविष्य के दिनों भी (मयः चन न करन्) सुख प्रदान नहीं कर सकते ? करते ही हैं। जैसे स्त्री पुरुषों के परस्पर रहस्यालाप चिरकाल तक उनको सुखी, सुप्रसन्न बनाये रखते हैं उसी प्रकार सेना सेनापति आदि के भी गुप्त सुविचारित मन्त्र भविष्य में उनको सुखी करते हैं, वाक्य के आदि में ‘न’कार का प्रयोग प्रश्न-वाक्य का सूचक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते पतिपत्नीधर्मस्य राजप्रजाधर्मस्य चोत्तम आदर्शः प्रदर्श्यते, गृहे राष्ट्रे च जारश्चौरो वा न प्रविशेत्, पतिः कामप्रधानो न भवेत् तथा च स्त्री, गृहस्थस्यान्तिमे काले ब्रह्मचर्यं सेव्यम्।
पदार्थः
(हये जाये) हे गतिशीले वंशवर्धिके राष्ट्रवर्धिके वा “हि गतौ वृद्धौ च” [स्वादि०] पत्नि ! राष्ट्रे जायमाने प्रजे ! वा (घोरे) तेजस्विनि ! दुष्टानां दुःखप्रदे “घोरा भयङ्करा दुष्टानां दुःखप्रदाः” [ऋ० ६।६१।७ दयानन्दः] (मनसा तिष्ठ) मनोभावेन मनोयोगेन स्थिरा भव (मिश्रा वचांसि नु कृणवावहै) मिश्रानि परस्परं सम्मेलनकराणि वचनानि खल्ववश्यं कुर्वः (नौ) आवयोः (एते-अनुदितासः-मन्त्राः) इमे गोपनीया विचाराः (मयः-न करन्) सुखं किं न कुर्वन्ति करिष्यन्ति ? निश्चितं करिष्यन्ति (परतरे चन-अहन्) अन्तिमे दिने कालेऽवश्यं सुखं करिष्यन्ति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
(This sukta is a dialogue between Pururava, the man, and Urvashi, the consort.) Hey venerable one, awful too though, stay awhile with mind at ease. Let us have a dialogue between us, words of mutual interest, of love and sweetness. These words and thoughts have remained unexpressed between us. Will they not do some good to us some later day?
मराठी (1)
भावार्थ
युवक-युवतीचा विवाह झाला पाहिजे. युवक भावी स्नेह बंधनासाठी संतानाविषयी विचार प्रस्तुत करतो व राजा राज्याभिषेकानंतर अधिक संबंध दृढ करण्याचा विचार करतो. ॥१॥
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